Politalks.News/KeralaElection. पिछले 40 वर्षों से केरल में यह परंपरा बन गई थी कि सत्तारूढ़ राजनीतिक दल को पाँच साल बाद बाहर जाने का रास्ता दिखा दिया जाता था और केरल की जनता विपक्ष को सत्ता में ले आती थी, लेकिन अगली बार उसे फिर बाहर कर दिया जाता था. लेकिन इस बार वर्षों पुरानी यह परंपरा टूट गई, जब केरल ने पिनराई विजयन की अध्यक्षता वाली लेफ़्ट डेमोक्रेटिक फ़्रंट (एलडीएफ़) को लगातार दूसरी बार सरकार बनाने के लिए चुन लिया. बता दें, 2016 के विधानसभा चुनावों में एलडीएफ़ ने 140 सदस्यों वाले सदन में 91 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी, इस बार एलडीएफ ने 93 सीटों पर जीत हासिल की है और दोबारा सरकार बनाने जा रही है.
ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि फिर इस बार केरल में ऐसा क्या हुआ जिस वजह से वहां के चुनावी गणित में यह फेरबदल आया? जानिए इस बारे में पॉलिटॉक्स न्यूज़ की ये खास रिपोर्ट:
यह भी पढ़ें: आखिर कैसे मोदी-शाह सहित सभी दिग्गजों के दांव को परास्त कर बंगाल की ‘सिकंदर’ बनी दीदी?
A.पिनराई विजयन की साफ छवि
पिनराई विजयन को केरल में लोग ‘धोती पहनने वाला मोदी‘ कहते हैं. केरल में एलडीएफ की जीत केवल और केवल विजयन के पक्ष में जनादेश है. केरल में मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने ख़ुद को आपदा-प्रबंधक और एक मज़बूत नेता के रूप में स्थापित किया. लोगों ने विजयन को एक ऐसे नेता के रूप में देखा, जो संकट की स्थिति में प्रदेश का नेतृत्व करने में सक्षम हो. इधर कांग्रेस की अध्यक्षता वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ़्रंट या भारतीय जनता पार्टी के पास पिनरई जैसा कोई क़द्दावर नेता नहीं था. वहीं, एलडीएफ की ओर से विजयन ने अकेले ही चुनाव अभियान को संभाला और उनके सामने उनकी पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से भी कोई और नेता उभरकर सामने नहीं आता दिखा. केरल के अन्य सभी नेताओं की तुलना में विजयन सबसे बड़े नेता हैं. आपको बता दें, पिनराई विजयन पर कभी कोई इल्ज़ाम नहीं लगा और उनकी छवि पाक साफ़ रही. विजयन सरकार का अच्छा प्रदर्शन और अपने वादों को पूरा करना ही उनके काम आया है.
B.लोककल्याणकारी नीतियों ने जीता केरल का दिल
केरल में पिनराई विजयन सरकार एक सक्रिय सरकार के रूप में नजर आई. लोक कल्याण की नीतियों और आपदा प्रबंधन की कुशलता से लोगों का दिल जीत लिया. कोविड महामारी के दौरान विजयन सरकार ने सामाजिक सुरक्षा पेंशन बढ़ाई. सरकार ने लोगों को नए तरीक़े से राशन दिया. इन नीतियों का नतीजा यह निकला कि महामारी के दौर में भी ग़रीब लोगों के पास कुछ पैसा और भोजन था, इसलिए उन्हें इस मुश्किल समय में अधिक संघर्ष नहीं करना पड़ा. विजयन
सरकार के कल्याणकारी उपायों- जैसे पेंशन और राशन किट- ने सरकार के लिए एक सकारात्मक छवि बनाई और लोगों ने घोटालों और भ्रष्टाचार से संबंधित आरोपों की परवाह नहीं की.
यह भी पढ़ें:- महाशक्ति बनने जा रहे हमारे देश को कोरोना ने बनाया लाचार, लापरवाही के लिए कौन है असल जिम्मेदार?
C.कोरोना और बाढ़ में आपदा प्रबंधन में बेहतर प्रदर्शन
आपको याद दिला दें, आपदा प्रबंधन में पिनराई विजयन सरकार के प्रदर्शन की तारीफ़ हुई. जब कभी भी केरल में कोई संकट आया, तो एक बड़ा मज़बूत संदेश लोगों को दिया गया कि राज्य में एक व्यक्ति नेतृत्व कर रहा है. चाहे दो बार बाढ़ की आपदा हो या नीपा वायरस का संकट हो या कोविड महामारी हो, विजयन सरकार एक्शन में दिखी. जबसे कोविड का मामला शुरू हुआ,
पिनरई विजयन हर चैनल पर लोगों से बात करते नज़र आए. ऐसे में विजयन स्थिति को नियंत्रण में लिए हुए थे.
D.अल्पसंख्यकों का एलडीएफ के पक्ष में एकीकरण
केरल में एलडीएफ को मुस्लिमों के वोट भी मिले और उसकी वजह थी भाजपा का उदय. यूडीएफ़ और एलडीएफ़ के बीच मुसलमानों का झुकाव एलडीएफ़ की ओर रहा क्योंकि सबको लगा कि भाजपा से टक्कर लेने और उनके हितों की रक्षा करने के लिए एक बेहतर विकल्प विजयन ही हैं. केरल में ईसाई मतों के भी ध्रुवीकरण की बात सामने आई है. केंद्रीय
त्रावणकोर क्षेत्र में केरल कांग्रेस जो कई वर्षों से कांग्रेस की मज़बूत सहयोगी रही है और जो उस क्षेत्र में सीटें जीतने में यूडीएफ़ और कांग्रेस की मदद करती थी, वो भी एलडीएफ़ के साथ चली गई जिससे बहुत सारे ईसाई वोट एलडीएफ़ में स्थानांतरित हो गए. अल्पसंख्यकों में कांग्रेस और यूडीएफ़ के पारंपरिक वोट बड़े पैमाने पर एलडीएफ़ को मिले. केरल में
27 प्रतिशत मुसलमानों के साथ ईसाई कुल आबादी का 17 प्रतिशत हैं और ऐसा लगता है कि इस 44 प्रतिशत अल्पसंख्यक आबादी ने एलडीएफ़ का समर्थन किया है. मुस्लिम और ईसाई यूडीएफ़ की पारंपरिक चुनावी रीढ़ थे, उनके समर्थन के बिना यूडीएफ़ चुनाव नहीं जीत सकता. सीपीएम परंपरागत रूप से केरल में एक हिंदू पार्टी रही है और उसके
अधिकांश मतदाता हिंदू ही रहे हैं. यूडीएफ़ से बड़ी संख्या में उच्च जातियों के लोग भाजपा में चले गए और अल्पसंख्यक एलडीएफ़ में स्थानांतरित हो गए, इसलिए यूडीएफ़ के लिए कुछ भी नहीं बचा.
यह भी पढ़ें:- कांग्रेस को अगले महीने मिलेगा फुल टाइम अध्यक्ष या इस बार कोरोना बनेगा ब्रह्मास्त्र ?
E.कांग्रेस को ले डूबी आंतरिक गुटबाजी
कांग्रेस की आपसी कलह इतनी ज़्यादा थी कि वह पंचायत चुनाव हार गए. ओमन चांडी और रमेश चेनिथला के गुटों की गुटबाज़ी के चलते पार्टी पंचायत चुनाव हारी. विधानसभा चुनाव के समय साथ मिलकर काम करने की कोशिश की गई पर वो फिर भी नहीं जीत पाए. केरल में ज़्यादातर क्षेत्रों में, विशेषकर गांवों में कांग्रेस की संगठनात्मक संरचना मौजूद नहीं है
और इसका ख़मियाज़ा पार्टी को उठाना पड़ा. संसाधनों के मामले में भी कांग्रेस की स्थिति अच्छी नहीं है. केरल में पांच साल और केंद्र में सात साल से सत्ता से बाहर रहने के बाद कांग्रेस पार्टी निश्चित रूप से चुनावों में लड़ने के लिए आवश्यक संसाधन नहीं जुटा पाई. साथ ही यूडीएफ़ में अब मूल रूप से कांग्रेस और मुस्लिम लीग ही बचे हैं. बाक़ी सब उनसे टूटकर या तो एलडीएफ में गए या भाजपा के साथ हो लिए. दूसरी तरफ़, एलडीएफ़ ग्यारह पार्टी का गठबंधन है
जिसमे तीन से पांच दलों की केरल मेंबड़ी मौजूदगी है इसलिए यह मुक़ाबला शुरू से ही एकतरफ़ा दिख रहा था.