देश में अब लोकसभा और विधानसभा चुनाव के एक साथ एक ही वक्त पर होने की संभावना जताई जा रही है. बिल लोकसभा में पास हो चुका है। अब तक देश में राज्यों के विधानसभा और देश के लोकसभा चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं. अब इस परिपाठी को बदलने का प्रयास किया जा रहा है. मोदी सरकार इसके पीछे जनता के पैसे की बर्बादी का हवाला दे रही है. अगर एक साथ विधानसभा, लोकसभा और निकाय चुनाव कराएं जाएंगे तो पैसे की बचत होगी. हालांकि आगामी 2034 तक तो इस तरह की कोई संभावना नजर नहीं आती है. हालांकि मोदी सरकार इसे अगले साल आम चुनाव से पहले ही क्रियान्वित करना चाह रही है लेकिन ऐसा करना या इसकी बात भी करना बेमानी होगा.
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क्या है वन नेशल वन इलेक्शन
वन नेशन वन इलेक्शन का मतलब है कि पूरे देश में एक साथ ही लोकसभा, विधानसभाओं और निकाय के चुनाव हों. यानी मतदाता लोकसभा और राज्य के विधानसभाओं के सदस्यों को चुनने के लिए एक ही दिन, एक ही समय पर या चरणबद्ध तरीके से अपना वोट डालेंगे. एक ही दिन स्थानीय निकाय के चुनाव भी आयोजित किए जाएं. केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद पहली बार 2014 में इस मुद्दे पर बहस शुरू हुई थी लेकिन 10 साल बीतने के बाद भी कोई निर्णय नहीं लिया जा सका. अब शुरूआत तो हुई है लेकिन इसे लागू करने के लिए अन्य राज्यों की मंजूरी भी जरूरी है. इस प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि विस और लोक चुनाव साथ होंगे जबकि 100 दिनों के भीतर दूसरे फेज़ में निकाय चुनाव कराए जाएंगे. कैबिनेट ने बिल पास कर दिया है. अब इसे अगले हफ्ते संसद में पेश किया जा सकता है.
ऐसा हो पाना फिलहाल असंभव टास्क
चूंकि एनडीए के पास निम्न और उच्च, दोनों सदनों में समर्थन हासिल है. ऐसे में बिना नानुकुर के भी बिल विधेयक की शक्ल ले सकता है. हालांकि इसपर कई तरह की कानूनी अड़चले आ सकती है. एक तरफ चुनाव आयोग को पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए बड़ी तैयारी करनी होगी. वहीं विपक्ष सहित छोटी पार्टियों को कमजोर कर सकती है. विपक्षी पार्टियों के पास चुनावी मैनेजमेंट के लिए धन, बल और कार्यकर्ता कम होते हैं. जिससे उन्हें एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनावों को लड़ने में परेशानी हो सकती है. हालांकि द.अफ्रिका, जर्मनी, जापान जैसे सात देशों की चुनावी प्रणाली का हवाला देते हुए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के पैनल की ये रिपोर्ट सदन के भीतर तो संवैधानिक तौर पर मान्य हो सकती है लेकिन सदन के बाहर इसका विरोध होना निश्चित है.
क्या है सरकार-विपक्ष का तर्क
मोदी कैबिनेट और चुनाव आयोग का मानना है कि पूरे देश की विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ होते हैं, तो इससे चुनाव पर होने वाले खर्च में कमी आएगी. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले अगस्त 2018 में लॉ कमीशन की एक रिपोर्ट आई थी. इसमें कहा गया था कि अगर 2019 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ होते हैं, तो उससे 4,500 करोड़ रुपए का खर्च बढ़ेगा. ये खर्चा इसलिए क्योंकि EVM ज्यादा लगानी पड़ेंगी. इसमें ये भी कहा गया था कि साथ चुनाव कराने का सिलसिला आगे बढ़ता है, तो 2024 में 1,751 करोड़ रुपए का खर्च बढ़ता. यानी, धीरे-धीरे ये एक्स्ट्रा खर्च भी कम हो जाता.
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वहीं विपक्ष का कहना है कि राष्ट्रीय स्तर पर देश और राज्य के मुद्दे अलग-अलग होते हैं. एक साथ चुनाव हुए तो वोटर्स के फैसले पर असर पड़ने की संभावना है. चुनाव 5 साल में एक बार होंगे तो जनता के प्रति सरकार की जवाबदेही कम हो जाएगी.
2034 से पहले हो पाना मुश्किल
दरअसल भारतीय जनता पार्टी की मंशा वन नेशन वन इलेक्शन के जरिए कई राज्यों में मजबूत हो रही विपक्ष सहित छोटी पार्टियों को कमजोर करने की है. बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल पार्टी, बिहार में राजद और नीतीश कुमार, झारखंड में झामुमो जैसी पार्टियां राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव नहीं लड़ती हैं. महाराष्ट्र में भी टूट से पहले शिवसेना और एनसीपी स्थानीय तौर पर काफी मजबूत पार्टियां थी. विपक्षी पार्टियों के पास चुनावी मैनेजमेंट के लिए धन, बल और कार्यकर्ता कम होते हैं. ऐसे में उन्हें एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनावों को लड़ने में परेशानी हो सकती है. यहां बीजेपी मजबूत दल होने के चलते बाजी मार सकती है और आम चुनाव के साथ साथ स्थानीय चुनावों में प्लस हो सकती है. हालांकि राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि आगामी 2034 के आम चुनावों से पहले इसका क्रियान्वयन किया जाना मुमकिन नहीं है.