ज्योतिरादित्य बनेंगे मुख्यमंत्री चाहे सफर राजाशाही से राजपथ तक का हो या फिर शाही सिंघासन से सियासत तक का, इस राह पर चलना आसान नहीं है. आजादी से लेकर अब तक कई राजवंशो ने राजनीति में आने की कोशिस की लेकिन कुछ को सफलता मिली और कुछ सियासत के दावपेंच में उलझकर रह गए और वापस अपने-अपने महलों की और लौट गए. लेकिन उनमें से एक राजवंश ऐसा भी है जिसकी कई पीढ़ियां आज भी राजनीति में अपना अलग मुकाम रखती हैं. जिनकी रग-रग में राजनीती बसती है. जिनके भाषण से जनता ख़ुशी से झूम उठती है और जिसकी तीन पीडियों ने अपने अपने तरीके से राजनीती को कुछ न कुछ दिया है.

पॉलिटॉक्स न्यूज़ के इस पहलु में हम आज बात कर रहे है सिंधिया परिवार की, ग्वालियर का ऐसा शाही परिवार जिसने आज़ादी के बाद अपने महलों में सिर्फ राजनीति को पनपने दिया. इसकी शुरुआत राजमाता विजयाराजे सिंधिया से हुई. ग्वालियर से लगातार आठ बार सांसद रही विजयाराजे सिंधिया का विवाह ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया से 21 फरवरी 1941 को हुआ था. पति के निधन के बाद वे राजनीति में सक्रिय हुई थी और 1957 से 1991 तक आठ बार ग्वालियर और गुना से सांसद रहीं. 25 जनवरी 2001 में उन्होंने अंतिम सांस लीं. विजयाराजे सिंधिया पहले कांग्रेस में थी लेकिन आपातकाल के बाद जब देशी रियासतों को समाप्त कर उनकी सम्पतियो को सरकारी घोषित कर दिया तब विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस छोड़ जनसंघ में शामिल हो गईं.

जीवाजीराव और विजयाराजे सिंधिया की 4 बेटियां और एक पुत्र था. विजयाराजे सिंधिया की दो बड़ी बेटियों का राजनीती से कोई खासा लगाव नहीं था. तीसरे नम्बर के उनके बेटे माधवराव सिंधिया भी राजनीती से जुड़े हुए थे और वे लगातार9 बार सांसद रहे. उनकी चौथी बेटी वसुंधरा राजे भी राजनीती से जुडी हुई हैं और दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, फिलहाल बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और झालावाड़ से विधायक हैं. उनकी 5वीं बेटी यशोधरा राजे भी राजनीती से जुडी हुई हैं, वे मध्यप्रदेश सरकार में मंत्री रह चुकी हैं और फिलहाल शिवपुरी से भाजपा विधायक हैं.

इस तरह राजमाता विजयाराजे के बाद उनके बेटे माधवराव सिंधिया ने भी सियासत में एंट्री की. माधवराव ने 1971 में जनसंघ के टिकट पर गुना से लोकसभा चुनाव लड़ा और कांग्रेस के प्रत्याशी को डेढ़ लाख वोटों के अंतर से पटखनी दी. इसके बाद उन्होंने 1977 के आम चुनाव में ग्वालियर लोकसभा सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा और ऐतिहासिक जीत दर्ज की. 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई, जनवरी 1980 में देश में आम चुनाव का एलान हुआ. जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी के खिलाफ राजमाता विजयाराजे को रायबरेली से चुनाव लड़वाने का एलान किया.

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दूसरी तरफ उस वक्त युवा सोच के माधवराव सिंधिया के कांग्रेस नेता संजय गांधी के साथ रिश्ते बेहतर हो रहे थे, तो उन्होंने अपनी मां विजयाराजे सिंधिया से इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने का अपना फैसला बदलने के लिए कहा. लेकिन विजयाराजे नहीं मानी और यहीं से मां बेटे के रिश्ते में दरार आ गई. ये रार इतनी बढ़ी की उसी 1980 के चुनाव में माधवराव ने पूरी तरह से कांग्रेस का दामन थाम लिया और कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर उन्होंने बड़ी जीत दर्ज की. लेकिन दूसरी और विजयाराजे सिंधिया रायबरेली में इंदिरा गांधी से चुनाव हार गईं.

ठीक इसी वक्त देश की राजनीति में एक और नया मोड़ आया. 1980 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का गठन हुआ. विजयाराजे सिंधिया जनसंघ के खंडहर पर खड़ी की गई इस नई-नवेली पार्टी की उपाध्यक्ष बनाई गईं. यहां से मां बेटे के रिश्ते में जो कड़वाहट पैदा हुई वो आजीवन बनी रही. यहां तक कि विजयाराजे सिंधिया अपने इकलौते बेटे माधवराव सिंधिया से इतनी खफा थीं कि उन्होंने 1985 में अपने हाथ से लिखी वसीयत में कह दिया था कि मेरा बेटा माधवराव सिंधिया मेरे अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं होगा. हालांकि 2001 में जब राजमाता का निधन हुआ तो मुखाग्नि माधवराव सिंधिया ने ही दी थी.

आपको बता दें, राजमाता विजयाराजे सिंधिया भी पहले कांग्रेस में ही थीं, लेकिन इंदिरा गांधी ने जब राजघरानों को ही खत्म कर दिया और संपत्तियों को सरकारी घोषित कर दिया तो उनकी इंदिरा गांधी से ठन गई थी. इसके बाद वे जनसंघ में शामिल हो गई थी. जब उनके बेटे माधवराव सिंधिया ने जनसंघ छोड़कर कांग्रेस का दामन थामा तो विजयाराजे अपने बेटे से काफी नाराज हो गई थीं. उस समय विजयाराजे ने कहा था कि इमरजेंसी के दौरान उनके बेटे के सामने पुलिस ने उन्हें लाठियों से पीटा था. उन्होंने अपने बेटे तक पर गिरफ्तार करवाने का आरोप लगाया था. दोनों में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता बढ़ने लगी थी और पारिवारिक रिश्ते खत्म होने लग गए. इसी के चलते विजयाराजे ने ग्वालियर के जयविलास पैलेस में रहने के लिए लिए अपने ही बेटे माधवराव से किराया भी मांगा था. हालांकि एक रुपए प्रति का यह किराया प्रतिकात्मक रूप से लगाया गया था.

माधवराव सिंधिया लगातार 9 बार संसद रहे और कभी नहीं हारे. उन्होंने अपना पहला चुनाव जनसंघ की तरफ से गुना से लड़ा और जीत दर्ज की. आपातकाल हटने के बाद 1977 में हुए चुनाव में वे निर्दलीय खड़े हुए और जनता पार्टी की लहर होने के बावजूद उन्होंने जीत दर्ज की. 1980 में वे कांग्रेस में शामिल हुए और तीसरी बार जीत दर्ज की. 1984 में माधवराव सिंधिया ने गुना के बजाए ग्वालियर से चुनाव लड़ा. ग्वालियर से उनके सामने बीजेपी के दिग्गज नेता और पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव में खड़े थे. लेकिन यहाँ भी माधवराव सिंधिया ने भारी मतों से जीत जीत दर्ज की.

1 जनवरी 1971 को माधवराव सिंधिया के घर एक राजकुमार ने जन्म लिया. जिसका नाम ज्योतिरादित्य सिंधिया रखा गया. उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा दून स्कूल देहरादून से की और बाकि की पढाई के लिए वे हार्वर्ड यूनिवर्सिटी चले गए. ज्योतिरादित्य के राजनितिक करियर की शुरुआत 2001 में हुई. 30 सितम्बर 2001 को उनके पिता माधवराव सिंधिया की एक हवाई हादसे में मौत हो गयी. उनकी मौत के बाद गुना लोकसभा सीट खाली हो गई. 18 दिसंबर 2001 को ज्योतिरादित्य सिंधिया औपचारिक रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए और अपने पिता के धर्मनिरपेक्ष, उदार और सामाजिक न्याय मूल्यों को बनाए रखने का संकल्प लिया.

19 जनवरी 2002 को 30 साल की उम्र में ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस की तरफ से गुना सीट से अपना नामांकन भरा और पहली जीत हासिल की. मई 2004 में उन्हें फिर से चुना गया और उन्होंने गुना से जीत दर्ज की. 2007 में केंद्रीय मंत्रिपरिषद में संचार और सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री के रूप में उनका कार्यकाल शानदार रहा. 2009 में लगातार तीसरे कार्यकाल के लिए फिर से ज्योतिरादित्य को चुना गया और चुनाव जीतकर वे केन्द्र सरकार में वाणिज्य और उद्योग राज्य मंत्री बने. बाद में वह बिजली राज्य मंत्री भी रहे. 2014 से एक बार फिर ज्योतिरादित्य गुना से लोकसभा पहुंचे लेकिन इस बार केन्द्र में मोदी सरकार थी.

2019 के लोकसभा चुनाव में इतिहास बदल गया और पहली बार सिंधिया परिवार से ज्योतिरादित्य सिंधिया को हार का मुंह देखना पड़ा. इसके बाद सिंधिया के समर्थकों ने उन पर कांग्रेस राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की मांग करने का दबाव बनाना शुरू कर दिया. उनके समर्थक चाहते हैं कि या तो वो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बनाये जाएं या कांग्रेस राष्ट्रीय अध्यक्ष. अब चूंकि सोनिया गांधी को एक बार फिर से CWC की बैठक में सर्वसम्मति से कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष चुन लिया गया है तो एक बार फिर से उनके समर्थकों ने उनके एमपी का मुख्यमंत्री बनाने का प्रेशर शुरू कर दिया है.

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गौरतलब है कि कर्नाटक और गोवा के बाद भाजपा सुप्रीमो अमित शाह की नजर अब मध्य प्रदेश पर है. उधर शिवराज सिंह चौहान निर्दलीय विधायकों के साथ संपर्क बनाए हुए हैं. कमलनाथ सरकार को बमुश्किल बहुमत मिला हुआ है. ज्योतिरादित्य खेमा उपेक्षा से दुखी है और हाईकमान से लगातार शिकायत कर रहा है. ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक लगातार बैठकें कर रहे हैं. हाल ही में ज्योतिरादित्य ने दिल्ली में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात भी की थी. इसके बाद कयास लगाए जा रहे हैं कि ज्योतिरादित्य को मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री बनाने के लिए अमित शाह सहयोग कर सकते हैं. वहीं सिंधिया की दूरभाष पर भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से हुई लम्बी वार्ता भी इस बात को हवा दे रही है.

खैर, 2002 से 2019 तक लगातार गुना सीट की नुमाइंदगी लोकसभा में ज्योतिरादित्य सिंधिया करते आए हैं. 2019 में यह पहला मौका है जब ज्योतिरादित्य सिंधिया की हार ने यह तय कर दिया की 1957 के बाद से पहली बार मध्यप्रदेश सिंधिया परिवार से कोई व्यक्ति संसद में नहीं पहुंचा है.

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