देश के राजनीतिक हलकों में कर्नाटक के घटनाक्रम की जबर्दस्त चर्चा है. अब सवाल उठने लगे हैं कि राज्यपाल ने तीन तीन बार चिट्ठियां लिख दीं, फिर भी कुमारस्वामी सरकार के विश्वासमत पर अब तक मत विभाजन क्यों नहीं हो पाया है. यह राज्यपाल की अवमानना है या नहीं? क्या राज्यपाल का सरकार पर नियंत्रण नहीं है? ऐसा लग रहा है कि कर्नाटक का राजनीतिक संकट राज्यपाल वजू भाई वाला, विधानसभा अध्यक्ष केआर रमेश कुमार और मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी की जदएस-कांग्रेस गठबंधन सरकार के बीच एक और संवैधानिक संघर्ष का रूप ले रहा है.

कानून के जानकारों के मुताबिक राज्यपाल विवश हैं. वह मौजूदा परिस्थितियों में सरकार को बर्खास्त नहीं कर सकते. इसका कारण 1994 का एक फैसला है, जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक के एक मामले में कहा था कि विधानसभा में मत विभाजन के बगैर सरकार को बर्खास्त करना असंवैधानिक है. तब कर्नाटक के मुख्यमंत्री एसआर बोम्मई थे. मौजूदा परिस्थितियों में कुमारस्वामी की सरकार रहे या जाए, सुप्रीम कोर्ट में उस फैसले का परीक्षण अवश्य किया जाएगा.

अभी इस मुद्दे पर फैसला नहीं हुआ है कि बागी विधायकों के इस्तीफे पहले मंजूर होने चाहिए या उन्हें दलबदल कानून के तहत अयोग्य घोषित करना चाहिए. विधायकों के इस्तीफे पर फैसला होने के बाद एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर सुनवाई होगी. कुमारस्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में मांग की थी कि उन्हें विधानसभा में विश्वासमत प्रस्ताव लाने की अनुमति दी जाए. इसके बाद से ये राजनीतिक नाटक चल रहा है.

विश्वासमत प्रस्ताव सदन में पेश हो चुका है, उस पर मत विभाजन अभी तक नहीं हुआ है. भाजपा जल्दी से जल्दी विश्वासमत प्रस्ताव पर मत विभाजन का दबाव बनाए हुए है. राज्यपाल एक चिट्ठी विधानसभा अध्यक्ष को और दो चिट्ठियां मुख्यमंत्री कुमारस्वामी को लिख चुके हैं. राज्यपाल की चिट्ठियों को निर्देश माना जाए तो उनके निर्देशों का पालन अब तक नहीं हुआ है. निकट भविष्य में इस तरह बने राजनीतिक गतिरोध का समाधान दिखाई नहीं दे रहा है.

यह संकट 1989 में अल्पमत में आई जनता दल की बोम्मई सरकार को बर्खास्त किए जाने जैसा है. उस समय सरकार के 18 विधायकों ने तत्कालीन राज्यपाल को पत्र सौंपकर दलबदल कर लिया था. केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने राज्यपाल की सिफारिश पर बोम्मई सरकार को हटाकर कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था. इसके खिलाफ बोम्मई सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी. सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों वाली बेंच ने बोम्मई सरकार बर्खास्त करने के फैसले को असंवैधानिक बताया था. पांच जज फैसले के पक्ष में थे. हालांकि यह फैसला सरकार बर्खास्त होने के पांच साल बाद सुनाया गया था. फिर भी यह फैसला लोकतंत्र के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण है.

इसी फैसले के कारण 1999 में केंद्र की तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को बिहार में राबड़ी देवी की सरकार को बहाल करना पड़ा था. केंद्र में रहने वाली सरकार यदि राज्य में चल रही विपक्ष की सरकार के साथ न्यायसंगत व्यवहार नहीं करती है तो इस परिस्थिति में यह फैसला नजीर बना हुआ है. राज्यों में सत्तारूढ़ विपक्षी पार्टियों को इस फैसले से बहुत राहत है.

कुमारस्वामी ने शुक्रवार को विधानसभा में ठीक ही कहा कि जब वह सुप्रीम कोर्ट से विश्वासमत का आदेश प्राप्त कर चुके हैं, तो राज्यपाल बहुमत साबित करने के लिए समय सीमा तय नहीं कर सकते. जब सदन में पहले से विश्वासमत पर कार्यवाही चल रही है तो राज्यपाल के निर्देश वैध नहीं हैं. भाजपा के कुछ सांसद भी राज्यपाल के निर्देशों को गलत मानते हैं. वे इस बात पर सहमत थे कि राज्यपाल विधानसभा अध्यक्ष के अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते.

बोम्मई फैसले के प्रकाश में ही सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा अध्यक्ष पर यह फैसला छोड़ दिया था कि वह इस्तीफा मंजूर करें या विधायकों को अयोग्य ठहराएं. बोम्मई फैसले के मुताबिक जब तक अध्यक्ष मामले पर कोई निर्णय नहीं ले लें, तब तक विधायकों या सांसदों के इस्तीफों और अयोग्यता संबंधी प्रकरणों पर अदालत न कोई फैसला कर सकती है और न ही कोई निर्देश दे सकती है. इस तरह कर्नाटक का राजनीतिक संकट लंबा खिंचने के पूरे आसार बन गए हैं.

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