महाराष्ट्र में महायुति गठबंधन को महाविकास अघाड़ी और यूं कहें कि इंडिया गठबंधन पर भारी जीत हासिल हुई. 288 में से बीजेपी को 149 में से 132 और महायुति को 234 सीटों पर प्रचंड बहुमत हासिल हुआ. यह जनादेश महाराष्ट्र में बीजेपी का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा है. वहीं 80 विधानसभा सीटों वाले झारखंड में झामुमो गठबंधन ने 56 सीटें जीतीं (पिछले चुनाव से 9 सीटें ज्यादा) और 44.3% वोट हासिल किए, जो पिछले चुनावों की तुलना में 9% ज्यादा हैं. बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन को केवल 24 सीटों से ही संतोष करना पड़ा. राज्य के आदिवासी क्षेत्र में तो बीजेपी केवल एक सीट पर ‘कमल’ खिला सकी. दोनों राज्यों में पार्टी के प्रदर्शन में काफी अंतर है. सवाल यही है कि जब महाराष्ट्र में एक समान नारों के बीजेपी ने ऐसा ऐतिहासिक प्रदर्शन किया तो झारखंड जैसे छोटे राज्य में फेल कैसे हो गयी है.
देखा जाए तो बीजेपी को महाराष्ट्र में समर्थित सरकार होने का लाभ मिल सकता है लेकिन एंटीकमबेंसी भी वहां पर देखी गयी थी. राज्य में बीजेपी पिछले 10 सालों से सरकार चला रही है. हालांकि दोनों राज्यों में सत्तारूढ़ गठबंधन की जीत और विपक्ष की विफलता में कई फैक्टर्स ने योगदान दिया, पर दो चीजें साफ हैं: कल्याणकारी योजनाएं और महिला मतदाताओं का समर्थन. सत्तारूढ़ गठबंधन ने महाराष्ट्र में महिलाओं के लिए लाड़की बहिन योजना और झारखंड में मैया सम्मान योजना को लागू किया और इन योजनाओं के लाभार्थियों ने बड़ी संख्या में सत्तारूढ़ गठबंधन को वोट दिया.
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बीजेपी ने दोनों राज्यों में ‘बंटोगे तो कटोगे’ और ‘एक हो तो सेफ हो’ जैसे नारे दिए. महाराष्ट्र में तो इन नारों ने काम किए लेकिन झारखंड में घुसपैठ और भ्रष्टाचार पर बीजेपी की ओर से ज्यादा जोर दिया गया लेकिन यहां कि जनता ने महिलाओं की मैय्या सम्मान योजना में लाभ देखा. यहां मोदी फैक्टर तो चला लेकिन हिंदू एकता का संयोजन पूरी तरह से बिखर गया. झारखंड में अधिकांश तबका गरीब और दलित है और ये दोनों ही बीजेपी से दूर हैं. यही वजह रही कि दलितों का समर्थन बीजेपी को कम मिला और मुस्लिमों का उससे भी कम.
एक कारण यह भी रहा कि हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झारखंड मुक्ति मोर्चा सरकार आदिवासी हितों का प्रतिनिधित्व करने की अपनी छवि का बचाव कर रही थी. वहीं बीजेपी एक नैरेटिव बनाने की कोशिश कर रही थी जो एक व्यापक वर्ग को आकर्षित करने, मौजूदा सरकार के प्रदर्शन और भ्रष्टाचार पर आक्रामक हमला करने से प्रेरित था. यह नैरेटिव आदिवासी वर्ग में असंतोष पैदा कर रहा था. एक ओर बीजेपी यूसीसी और बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे पर मतदाताओं को एकजुट करने में लगी थी, वहीं दूसरी तरफ स्थानीय मतदाता अपनी ही पहचान को लेकर चिंतित थे.
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किसी बड़े आदिवासी चेहरे की गैर मौजूदगी भी बीजेपी की चिंता का सबब है. यही वजह रही कि पूर्व मुख्यमंत्री एवं झामुमो नेता चंपई सोरेन के बीजेपी में चले जाने के बाद भी बीजेपी के प्रदर्शन में पिछली बार के मुकाबले गिरावट देखी गयी. कथित ‘वॉशिंग मशीन’ में जाने के बाद भी उनकी असक्रियता बीजेपी के लिए भारी पड़ी. झारखंड बीजेपी के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी शायद इन सभी मुद्दों को समझने और भुनाने में असफल साबित हो रहे हैं.
कुल मिलाकर बात ये स्पष्ट है कि करीब एक दशक में बीजेपी झारखंड में संथाल समुदाय को छोड़कर अन्य आदिवासी समूहों को आकर्षित कर पाने में असफल रही है. पार्टी के लिए राज्य के आदिवासियों से जुड़ना एक बड़ी चुनौती है. देश में हिन्दुत्व को लोकप्रिय बनाने की अपनी महत्वकांक्षा के चलते भारतीय जनता पार्टी यह कठिन काम कैसे करेगी, इससे झारखंड में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का भविष्य तय होगा. शायद चंपई सोरेन को आगे कर बीजेपी इस दुविधा से पार पा सकती है.