पहले हरियाणा, मध्यप्रदेश और अब महाराष्ट्र, एक समान माहौल और एक जैसी कहानी. ढाक के तीन वाली वाला परिणाम. कांग्रेस के लिए दोनों जगह एक कहानी है जो लगता है कि दोहरायी जा रही है. फिर चाहें नेताओं की आपसी गुटबाजी हो या फिर बागियों का उलटफेर, सभी जगह कांग्रेस ने मुंह की खाई है. स्थानीय नेताओं पर आंख मूंद कर विश्वास भी पार्टी के लिए विश्वासघात जैसा साबित हुआ है. ऐसे में कांग्रेस को अब हार का मंथन नहीं, आत्ममंथन करना चाहिए. बदलाव की आवश्यकता है. सिरे से बदलाव, एक ऐसा बदलाव जो अलग तरीके से सोच सके, एक नए नजरिये से नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को ढाल सके और मतभेद एवं मनभेद में पहचान कर सके.
अब केंद्र में बैठी सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी वो नहीं रही, जिससे आसानी से टक्कर ली जा सके. वहां हर बार बहुमत आवश्यकता से पार जा रहा है. वहीं जो कभी सत्ता की धुरी हुआ करती थी, कांग्रेस उनके सामने आधी भी नहीं है. पिछले दो आम चुनावों में जहां कांग्रेस बमुश्किल 50 सीटों को पार कर पायी थी, इस बार 99 तक तो पहुंची लेकिन सैकड़े का आंकड़ा छूने से दूर रह गयी. ऐसे में कांग्रेस को समझ जाना चाहिए कि पिछले तीन बार से सत्ता से विमुख कर बीजेपी से टक्कर लेनी है तो कुछ अलग ऐजेंडा, कुछ अलग सोच को अपनाना होगा. यही वक्त की दरकार भी है.
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यही बात कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे भी कह चुके हैं. उनके कहे अनुसार, ‘कांग्रेस में ऊपर से नीचे तक बदलाव की जरूरत है. हमें चुनावी रणनीति में सुधार करना होगा. माहौल पक्ष में मतलब जीत की गारंटी नहीं है.’ ऐसा पार्टी के साथ कई चुनावों में हुआ है. कर्नाटक और हिमाचल को छोड़ दिया जाए तो करीब करीब हर राज्य में कहानी एक जैसी है. राजस्थान और मध्यप्रदेश में भी चुनाव टक्कर का बताया जा रहा था. माहौल 50:50 का था लेकिन ऐन वक्त पर बीजेपी ने गति पकड़ी और कांग्रेस ने छोड़ी, मतलब ‘हाथ’ फिसल गया.
रणनीति में भी बदलाव की आवश्यकता है. जहां विधानसभा के चुनावी रण में मुख्य नेताओं को अपने आपको झोंक देना चाहिए था, राहुल गांधी अपनी पैदल यात्राओं में व्यस्त थे. बस कुछ जिलों को केंद्र बिंदू बनाया गया और बाकी छोड़ दिए गए. एक तरफ बीजेपी की ओर से पीएम मोदी तक के हर महिने में 8-10 दौरे हो रहे थे, वहीं राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के 5 दौरे भी बमुश्किल रहे. सोनिया गांधी करीब करीब हर चुनावी दौरे से नदारद थी. हालांकि कुछ स्वास्थ्य कारण रहे लेकिन जनता को ये समझाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है.
स्थानीय नेताओं में गुटबाजी पर तो बात न ही की जाए तो ठीक रहेगा. कांग्रेस की ये समस्या बरसो पुरानी है, जिसका समाधान कभी नहीं हो पाया है. इसी वजह से कांग्रेस के कई युवा और काबिल नेता बीजेपी के ‘कमल’ में समा गए हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलंद देवड़ा, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और पंजाब के पूर्व सीएम अमरिंदर सिंह..फेहरिस्त काफी लंबी है.
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अब कांग्रेस को अपनी केंद्र की नहीं, बल्कि राज्यों की स्थिति सुधारने की आवश्यकता है. पहले गुजरात, उत्तर प्रदेश और अब मध्य प्रदेश, हरियाणा एवं महाराष्ट्र भी बीजेपी के अभेद गढ़ों में शामिल हो रहा है. ये सभी बड़े और अहम राज्य हैं जहां से बीजेपी को हटा पाना मुश्किल होगा. ऐसे में कांग्रेस को अपने राज्य के शीर्ष नेतृत्व में बदलाव करना होगा. मतभेदों के साथ मनभेदों को मिटाना भी जरूरी है. जिस तरह राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट में चल रहा है, वो कुर्सी की लड़ाई को मिटाना होगा. अगर ऐसा संभव नहीं हो रहा है तो किसी तीसरे का विकल्प खोजना होगा ताकि दोनों के बीच की ‘कैट फाइट’ का अंत किया जा सके. अगर ऐसा करना असंभव है तो कांग्रेस का गर्त में जाना भी निश्चित तौर पर संभव है.