Politalks.News/Rajasthan. आज 14 सितंबर है यानि राजभाषा का दिन, बात होगी राजभाषा हिंदी की. जब-जब हम हिंदी की बात करते हैं तब मिठास और मधुरता का एहसास होता है. हमारे देश की पहचान दुनिया में एकता और अखंडता के रूप में जानी जाती है. लेकिन सच्चाई यह है कि अभी तक ‘आजाद भारत के कई राज्यों में 71 वर्षों के बाद भी हिंदी अपनी जड़ें जमा नहीं पाई है,’ इसका सबसे बड़ा कारण दक्षिण भारत के राज्यों के राजनीतिक दलों की राजभाषा को लेकर नकारात्मक सोच रही है. ‘वोट बैंक की खातिर नेता राजभाषा पर भी सियासी खेल खेलते आ रहे हैं.’ हिंदी ऐसी भाषा है जिस पर सबसे ज्यादा राजनीति हुई है.
हम ज्यादा पीछे नहीं जाते हैं, पिछले माह अगस्त में ही तमिलनाडु की डीएमके की सांसद ‘कनिमोझी ने हिंदी भाषा को लेकर देशभर में राजनीति गर्म कर दी थी.’ सांसद कनिमोझी के हिंदी विरोधी बयान के बाद तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल तक राजनीति शुरू हो गई थी. ऐसे ही पिछले महीने जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हिंदी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देने के लिए बातें की तब भी दक्षिण भारत के राजनीति दलों के नेताओं ने इसका विरोध किया.
हमारे देश में 14 सितंबर को हर वर्ष विश्व हिंदी दिवस मनाया जाता है. हिंदी दिवस को लेकर बड़े-बड़े आयोजन होते हैं लेकिन अबकी बार कोरोना महामारी के वजह से कार्यक्रम आयोजित नहीं किए गए. उत्तर भारत में भी कई राजनीति दलों के नेता और सरकारी अफसर ऐसे हैं जिन पर पश्चिमी सभ्यता का लिबास चढ़ा हुआ है, वह भी राजभाषा के साथ सौतेला व्यवहार करते हैं. हर बार हिंदी दिवस पर हमारे नेता और अफसर इस राजभाषा को बढ़ावा देने के लिए बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन हिंदी के विकास को लेकर धरातल पर कुछ नहीं होता है.
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पिछले वर्ष हिंदी दिवस पर अमित शाह के बयान के बाद मच गया था सियासी बवाल–
पिछले वर्ष हिंदी दिवस के अवसर पर गृहमंत्री अमित शाह ने राजभाषा हिंदी को देश की साझा भाषा के रूप में इस्तेमाल करने पर तमिलनाडु, कर्नाटक में कड़ी आलोचना की गई थी. दक्षिण भारतीय नेताओं ने ‘अमित शाह के बयान को जबरन हिंदी थोपने जैसा बता विरोध जताया था. तमिलनाडु में डीएमके नेता एमके स्टालिन और कर्नाटक में जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी ने हिंदी दिवस पर दिए गए अमित शाह के बयान को सियासी रंग दे दिया था. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी अमित शाह के बयान पर सवाल उठाए थे.
कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री ‘सिद्धरमैया ने तो यहां तक कह दिया था कि हिंदी के राष्ट्रभाषा होने का झूठ बंद किया जाना चाहिए‘. सिद्धरमैया ने अमित शाह के बयान के बाद कहा था कि गृहमंत्री झूठ और गलत जानकारी फैलाकर एक भाषा का प्रचार नहीं कर सकते. कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने भी हिंदी दिवस पर सवाल उठाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जानना चाहा कि देश भर में ‘कन्नड दिवस’ कब मनाया जाएगा’. उन्होंने हिंदी थोपना बंद करो का हैशटैग भी चलाया था. यहां हम आपको बता दें कि हिंदी ने विश्व के कई देशों में अपना प्रभाव छोड़ा है लेकिन अपने ही देश में इसके साथ सौतेला व्यवहार होता रहा है.
दक्षिण भारत के राजनीतिक दलों की मजबूरी भी कम जिम्मेदार नहीं-
14 सितंबर 1949 को जब हमारे देश में हिंदी को राजभाषा का आधिकारिक दर्जा मिला था तब दक्षिण के राज्यों ने इसका खुल कर विरोध किया था. तमिलनाडु के कई लोगों ने तो हिंदी राजभाषा को लागू किए जाने के विरोध में आत्महत्या तक कर डाली थी. तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने कभी भी हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया है बल्कि उल्टा हिंदी का विरोध करते ही रहे हैं. वहां के राजनीतिक दल और नेताओं को यह पता है कि ‘अगर हिंदी को हम बढ़ावा देंगे तो हमारा वोट बैंक पर असर पड़ेगा.’
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26 जनवरी, 1965 को हिंदी देश की राजभाषा बन गई और इसके साथ ही दक्षिण भारत के राज्यों- खास तौर पर तमिलनाडु और चैन्नई (तब का मद्रास) में आंदोलनों और हिंसा का एक जबरदस्त दौर चला और इसमें कई छात्रों ने आत्मदाह तक कर लिया था. इसके बाद 1967 में राजभाषा कानून में संशोधन किया गया. उल्लेखनीय है कि इस संशोधन के जरिए अंग्रेजी को देश की राजभाषा के रूप में तब तक आवश्यक मान लिया गया जब तक कि गैर-हिंदी भाषी राज्य ऐसा चाहते हों, आज तक यही व्यवस्था चली आ रही है.
हिंदी के प्रति वास्तविक प्रेम नेताओं के भाषणों तक ही सीमित रहता है-
हिंदी दिवस के दिन इसके प्रचार-प्रसार और विस्तार को लेकर खूब शोर मचाया जाता रहा है. हमारे देश में सरकारी अर्ध सरकारी संस्थानों में हिंदी-हिंदी होने लगता है. कहीं हिंदी दिवस तो कहीं हिंदी पखवाड़े का आयोजन भी होता है. हिंदी दिवस को लेकर देशभर में इतने अधिक आयोजन होते हैं कि वहां पर आने वाले हिंदी के तथाकथित प्रेमी कई संस्थानों के अधिकारी गण हिंदी भाषा को लेकर लंबे चौड़े भाषण देते हैं. जबकि इनका हिंदी के प्रति वास्तविक प्रेम भाषणों तक ही सीमित रहता है अमल में लाया नहीं जाता है.
अपना देश शायद दुनिया का अकेला ऐसा देश है जहां भाषा के नाम पर भी दिवस मनाए जाते हैं. 71 सालों से हमारे देश में हिंदी दिवस को लेकर प्रचार-प्रसार तो खूब किया जाता रहा है लेकिन वास्तविक और जिम्मेदार ही इसको अमल में लाने से कतराते हैं.
हम आपको बता दें कि भारत के बाहर इन देशों में हिंदी खूब मुस्कुराती है- गुयाना, सूरीनाम, त्रिनाद एंड टोबैगो फिजी, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका और सिंगापुर में बोलचाल की भाषा हिंदी भी है. हालांकि इन सभी देशों में भारतीय रहते हैं. भारत की अपेक्षा इन देशों में हिंदी खूब फल-फूल और अच्छी सेहत में है, वहां हिंदी कोई विरोध नहीं है जबकि भारत में कई जगह हिंदी में लिखना पढ़ना ही विरोध का रूप ले लेता है.
वोटों के लालच ने नहीं होने दी दृढ़ इच्छाशक्ति
हिंदी भाषा को सम्पूर्ण सम्मान दिलाने का काम दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ किसी भी सरकार ने नहीं किया. यहां तक कि गुजरात जहां तीन बार नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री रहे और अभी 6 साल से प्रधानमंत्री हैं, वहां भी हिंदी से ज्यादा गुजराती भाषा की ही मान्यता है. इसका प्रमुख कारण है भाषाई राजनीति के दम पर अपनी सत्ता के पिलर मजबूत करना. शायद यही कारण है की आज क्या मनोरंजन की दुनिया और क्या मीडिया, हर कोई क्षेत्रीय भाषा को बढ़ावा देने में लगे हैं. कोई भी चैनल और अखबार का क्षेत्रीय भाषा में होता है खासकर साउथ में तो उसकी टीआरपी और रेवेन्यू किसी भी हिंदी भाषी मीडिया से कई गुना ज्यादा होगा.
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हिंदी स्वयं ही अपनी ताकत से बढ़ रही है विश्व में–
आज पूरा विश्व एक ग्लोबल बाजार के रूप में उभर चुका है. जिसमें हिंदी स्वयं ही तीसरी भाषा के रूप में उभर गई है. हमारे देश में हिंदी का विस्तार भले ही अधिक न हो पाया हो लेकिन विश्व में आज कई बड़ी-बड़ी कंपनियों में हिंदी खूब फल-फूल रही है. गूगल फेसबुक, व्हाट्सएप, टि्वटर और याहू समेत तमाम कंपनियों ने हिंदी भाषा का बहुत बड़ा बाजार बना दिया है और हिंदी के नाम पर ही अरबों खरबों रुपये की कमाई कर रहे हैं. हमारे देश समेत विश्व के कई देशों में हिंदी सम्मेलन आयोजित होते रहते हैं. इन सम्मेलनों में भी हजारों लोगों की आमदनी का जरिया हिंदी बनी हुई है.
केंद्रीय हिंदी संस्थान हो चाहे वर्धा महाराष्ट्र का हिंदी विश्वविद्यालय या कई राज्यों में हिंदी के संस्थान संस्थानों पर केंद्र व राज्य सरकार हर वर्ष अरबों का बजट स्वीकृत करती है. इन संस्थानों में भी हजारों लोगों को रोजगार दे रखा है. हर बार की तरह इस बार भी हिंदी दिवस के विस्तार और प्रचार प्रसार के लिए खूब शोर मचेगा और बातें होंगी. कुछ दिनों तक मंत्री, नेता और हिंदी प्रेमी कई कार्यक्रमों में खूब सज-धजकर पहुंचेंगे और हिंदी भाषा की प्रशंसा के लिए बड़े-बड़े भाषण देंगे और चलते बनेंगे. इस तरह एक बार फिर हिंदी पखवाड़ा बीत जाएगा लेकिन राजभाषा के प्रति सौतेला रवैया, वैसे ही जारी रहेगा.