पाॅलिटाॅक्स न्यूज/मध्यप्रदेश. कांग्रेस को 18 साल देने वाले ग्वालियर के महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया अब बीजेपी के हो चुके हैं. राजमाता के बाद वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे पहले से ही बीजेपी में हैं. वहीं ज्योतिरादित्य यानि महाराज भी अब बीजेपी की आवाज को बुलंद करेंगे. लेकिन क्या बीजेपी में सिंधिया की महत्वकांशाओं को सम्मान मिलेगा? वहीं सवाल यह भी उठता है कि ऐसा भी हुआ क्या जो ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा का दामन थामने के लिए मजबूर होना पड़ा. इससे जुड़े दो बड़े पहलुओं को समझा जाना जरूरी है. पहला पहलू कमलनाथ और दिग्विजयसिंह की जोड़ी से जुड़ा है तो दूसरा सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कमजोरियों से.
ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के एक मात्र ऐसे नेता थे जिनकी गांधी परिवार में बिना रोक टोक एंट्री थी. एक अर्थ में वो सोनिया, राहुल और प्रियंका के बाद गांधी परिवार के चौथे सदस्य के रूप में जाने जाते थे. कांग्रेस में इतनी मजबूत स्थिति में होने के बाद भी ज्योतिरादित्य घुटन महसूस कर रहे थे. उनकी घुटन का कारण मध्यप्रदेश की सियासत के दो बड़े और पुराने चेहरे दिग्विजयसिंह और कमलनाथ रहे. दोनों की जोड़ी ने ऐसे हालात पैदा कर दिए कि महाराज साहब को अपने ही मध्य प्रदेश और कांग्रेस में घुटन मसहूस होने लग गई.
अब सवाल ये उठता है क्या सिर्फ राज्यसभा में जाने को लेकर ज्योतिरादित्य इतने अधीर हो गए थे कि उन्होंने अपनी मातृ पार्टी को नमस्ते कह दिया. यहां तक कि वो अपने प्रिय सखा राहुल गांधी से भी मिलने नहीं गए. सिंधिया ने तो इतना तक कह दिया कि उन्होंने समय मांगा था लेकिन गांधी परिवार से उन्हें मिलने का समय नहीं दिया गया. अगर ऐसा रहा है तो फिर वाकई सिंधिया का कांग्रेस में कोई खास महत्व नहीं बचा था, लेकिन क्या बीजेपी में सिंधिया की महत्वकांशाओं को सम्मान मिलेगा?
‘महाराज’ से नहीं थी धोखे की उम्मीद, दिग्विजय ने बताई सिंधिया का नाम नहीं लेने की मजबूरी
नहीं, ऐसा लगता नहीं है, सिंधिया के लिए बीजेपी में जाना मजबूरी हो सकती है लेकिन भाजपा के लिए ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि वो सिंधिया की शर्तों को ज्यों का त्यों माने. हां, सिधिंया को भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति में मौका जरूर मिल सकता है. राज्यसभा के बाद उन्हें केबिनेट मंत्री भी बनाया जा सकता है लेकिन यह सिंधिया के लिए कोई नई बात नहीं है. वो चार बार सांसद रहने के साथ कांग्रेस सरकार में केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं, इसलिए उनके जीवन के लिए यह कोई बड़ी उपलब्धि नहीं होगी. दूसरी बात बीजेपी में समर्पित नेताओं की लंबी फेहरिस्त है, जो संघ की पृष्ठभूमि से आते हैं. इन नेताओं को साइड में करके कोई भी बीजेपी में अपना स्थान नहीं बना सकता. यह तो जग जाहिर है कि बीजेपी अपने महत्वपूर्ण दायित्व संघ पृष्ठभूमि के नेताओं को ही सौंपती है.
ऐसे में ज्योतिरादित्य सिंधिया को तत्कालिक सियासी फायदा तो बीजेपी से मिल सकता है,लेकिन लंबे समय में ज्योतिरादित्य को भाजपा में बड़ा मुकाम मिलना मुश्किल है. खुद सिंधिया की बुआ यशोधरा राजे मध्य प्रदेश में बीजेपी की नेता हैं लेकिन बड़ी भूमिका में नहीं है. वहीं उनकी एक और बुआ वसुंधरा राजे दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री रहने के बाद भी बीजेपी में जिन पस्थितियों से गुजर रही है, ये बात किसी से छिपी नहीं है. वसुंधरा के कहने से न तो राजस्थान प्रदेश अध्यक्ष तय हुआ और न ही संगठन में कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का उन्हें मौका मिल पा रहा है.
असल में कांग्रेस और बीजेपी की राजनीतिक पृष्ठभूमि में बड़ा भारी अंतर है. कांग्रेस का कमजोर दौर चल रहा है इसलिए कोई भी नेतृत्व को आंखे दिखा सकता है या फिर पार्टी को नुकसान पहुंचाने की धमकी दे सकता है. वहीं बीजेपी का दौर सुदृड चल रहा है. इस समय बीजेपी किसी भी दूसरी पार्टी के मुकाबले बहुत मजबूत स्थिति में है. यही कारण है कि वसुंधरा राजे को खामोशी के साथ केंद्रीय नेतृत्व के निर्णयों के अनुसार चलना पड़ रहा है.
वहीं मध्य प्रदेश में कांग्रेस में जान फूंकने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के जाने से कांग्रेस के ही कमजोर होने के बड़े संकेत दिख रहे हैं. यह इस बात की पुष्टि भी है कि कांग्रेस में गांधी परिवार भले ही प्रमुख और निर्णायक हो लेकिन धरातल पर वो भी कमजोर ही नजर आ रहा है. मध्य प्रदेश के मामले में समय रहते गांधी परिवार ने ठोस कदम उठा लिए होते तो ज्यातिरादित्य सिंधिया जैसा नेता को कांग्रेस को खोना नहीं पड़ा और न ही मध्य प्रदेश में सरकार के लिए खराब स्थिति पैदा होती. इस सियासी हलचल से तो राजस्थान भी अछूता नहीं चल रहा. लेकिन यहां अभी ऐसे कोई हालात नहीं बने हैं कि मध्यप्रदेश जैसी स्थिति का सामना कांग्रेस को करना पड़ जाए.
तीन घटनाओं से समझा जा सकता है कि ज्यातिरादित्य कैसे दो अनुभवी खिलाड़ियों की राजनीति का शिकार हुए. ज्योतिरादित्य मध्य प्रदेश में 2018 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के बड़े चेहरे थे. उन्होंने दिन रात मेहनत कर 15 साल से सत्ता पर काबिज बीजेपी को पटकनी देकर कांग्रेस का राज स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. लेकिन जब मुख्यमंत्री बनने की बात आई तो कमलनाथ बाजी मार ले गए. उस घटनाक्रम में भी दिग्गी राजा की बड़ी भूमिका थी. राहुल गांधी भी किसी मजबूूर नेतृत्व की भूमिका में नजर आए और उन्होंने ज्योतिरादित्य को समझा बुझाकर शांत कर दिया.
फिर आई कांग्रेस के मध्य प्रदेश इकाई का अध्यक्ष बनने की. यहां भी दिग्गी राजा ने ऐसी टांग लगाई कि महाराज परेशानी में पड़ गए. यहां एक बात और महत्वपूर्ण है कि ज्योतिरादित्य के गुना जो कि उनकी खानदानी सीट मानी जाती रही है, उससे हारना उन्हें भारी पढ़ा. इस सीट से हारने के बाद महाराज की साख में कमी आई जिसका फायदा दिग्गी राजा और कमलनाथ ने उठाया. सब तरह का प्रयास करने के बाद भी ज्योतिरादित्य सिंधिया मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष की सीट पर नहीं विराज पाए.
तीसरा मौका आया सिंधिया के मध्य प्रदेश से राज्यसभा में जाने का. लेकिन पिछली दोनों बार की तरफ इस बार भी कांग्रेस ने पक्षपात वाली नीति अपनाई और सिंधिया के लिए राज्यसभा में जाने को लेकर भी अड़चनें खड़ी कर दी. इन्हीं घटनाओं को ज्योतिरादित्य ने अपने स्वाभिमान और प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया. इन सारी विपरित परिस्थितियों से जूझ रहे ज्योतिरादित्य को गांधी परिवार से भी ऐसे कोई संकेत नहीं मिले कि उन्हें अपनी इज्जत बचाने का कोई भरोसा मिल सके.
बीजेपी भी इसी मौके में थी और यहीं मध्यप्रदेश की राजनीति में सियासत का बड़ा खेल हो गया. महाराज से जुड़े 22 विधायक बीजेपी सरकार वाले राज्य के बेंगलुरू शहर के एक रिसार्ट में पहुंच गए. वहीं महाराज खुद अमित शाह के साथ प्रधानमंत्री के घर गए. इधर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने ज्योतिरादित्य को बीजेपी की सदस्यता दिलाई, तो वहीं बीजेपी ने उन्हें मध्य प्रदेश से राज्यसभा उम्मीदवार घोषित कर दिया. वहीं मध्य प्रदेश में बिगड़े सियासी समीकरण के कारण कमलनाथ की सरकार खतरे में पड़ गई.
इन सभी घटनाक्रम के बीच गांधी परिवार को एक बात तो समझनी होगी कि कांग्रेस की सैकेंड लाइन को पहली पंक्ति में खड़े नेताओं की सियासत से महफूज रखना होगा. यदि कांग्रेस आलाकमान यह कर पाने में विफल रहा तो फिर नरेंद्र मोदी का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना पूरा होने से कांग्रेस खुद नहीं रोक पाएगी.