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लोकसभा चुनाव अपने अंतिम दौर में आ पहुंचा है और विश्लेषकों ने चुनावी परिणाम का आकलन लगाना शुरु कर दिया है. अगर किसी तथ्य पर सभी चुनावी विश्लेषक एकमत हैं तो वह है ‘इस बार बीजेपी को चुनाव में पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा’. अभी तक चुनावी रुझान भी इसी ओर इशारा करते हैं. इस तथ्य को बीजेपी नेता राम माधव और सुब्रमण्यम स्वामी भी स्वीकार कर चुके हैं. स्वामी ने हाल ही में एक इंटरव्यू में कहा था कि इस बार बीजेपी को केवल 220 सीटों पर ही कामयाबी मिलेगी. वहीं बीजेपी महासचिव राम माधव ने कहा था कि अगर इस बार पार्टी 271 सीटें जीत पाती तो बहुत अच्छा होगा.

अगर बीजेपी यह मान चुकी है कि उसे बहुमत नहीं मिलेगा तो उसे सत्ता में वापसी के लिए सहयोगी घटक दलों की दरकार होगी. लेकिन इस बार बीजेपी के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके सहयोगियों की खुद की हालत अपने ही राज्यों में काफी खराब दिख रही है.

बीजेपी को उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद महागठबंधन से पहले ही भारी नुकसान होने की संभावना है. अगर सहयोगी घटक दलों ने भी अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तो बीजेपी के लिए चुनाव के बाद सरकार बनाना लोहे के चने चबाना जैसा होगा. 2014 के चुनाव में कांग्रेस के साथ भी कुछ ऐसे ही हालात रहे थे जहां कांग्रेस खुद तो बुरी तरह हारी ही थी, सहयोगी दलों को भी करारी हार का सामना करना पड़ा था. यहां उन दलों का जिक्र कर रहे हैं जो एनडीए के सहयोगी दल हैं लेकिन उनके हालात खुद के राज्यों में दयनीय हैं…

लोजपा
बीजेपी बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी और जदयू के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है. बिहार की 40 सीटों में से बीजेपी 17, जदयू 17 और लोजपा छह सीटों पर चुनावी दंगल में हैं. बीजेपी के लिए यहां परेशानी यह है कि इस बार लोजपा की स्थिति 2014 जैसी नहीं दिख रही और न ही दलित वोटों पर उनकी पकड़ पहले वाली बची है. 2014 के लोकसभा चुनाव में लोजपा ने पांच सीटों पर जीत हासिल की थी लेकिन इस बार बिहार के दलितों में रामविलास पासवान को लेकर गहरी नाराजगी है जिसका नुकसान बीजेपी को उठाना पड़ सकता है.

रामविलास पासवान ने इस बार तीन टिकट तो अपने ही परिवार के सदस्यों को गिफ्ट में बांटी हैं. अब हालात यह हैं कि जदयू और बीजेपी को दलित वोट दिलाना तो दूर, पासवान लोजपा के उम्मीदवारों तक को समाज के वोट नहीं दिला पा रहे हैं. जमुई से उनके बेटे चिराग पासवान, हाजीपुर से पशुपति कुमार पारस, समस्तीपुर से रामचंद्र पासवान चुनाव लड़ रहे है.

जदयू
जनता दल यूनाइटेड ने 2014 के चुनाव में बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी को पीएम उम्मीदवार घोषित करने के बाद एनडीए से नाता तोड़ लिया था. जेडीयू 2014 में अकेले चुनाव मैदान में थी और 2015 का विधानसभा चुनाव राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़ा. नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने और लालु यादव के पुत्र तेजस्वी यादव उप मुख्यमंत्री के पद पर विराजमान हुए. हालांकि यह शासकीय ड्रामा ज्यादा समय नहीं ठहर सका और नीतीश कुमार ने पाला बदलकर अपने पुराने सहयोगी बीजेपी के साथ मिलकर फिर से सरकार बना ली.

अब जदयू लोकसभा चुनाव बीजेपी के साथ मिलकर लड़ रही है. पाला बदलने से बिहार की जनता में नीतीश कुमार के प्रति नाराजगी पहले से ही देखने को मिल रही है. वहीं राजद ने उपर बिहार के जनादेश का अपमान करने का आरोप लगाया है. तेजस्वी उनको हर रैली में पलटुराम कहकर घेर रहे है.

अकाली दल
पंजाब की सियासत में अकाली दल का प्रभाव शुरुआत से रहा है लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में उनके हालात बदतर हो गए. अकाली दल को 2012 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश की 56 सीटों पर जीत हासिल हुई थी लेकिन 2017 में पार्टी केवल 15 सीटों पर सिमट गई. यहां तक की अकाली दल इस बार मुख्य विपक्षी दल भी नहीं बन पाया. यहां आम आदमी पार्टी ने 21 सीटें हासिल की थी इसलिए ‘आप’ विपक्ष में बैठने का हकदार बनी. पंजाब में बीजेपी की सियासत केवल अकाली दल के पीछे रही है. अगर अकाली दल के यहां हालात इतने दयनीय हैं तो बीजेपी के लिए वहां कोई भी संभावना तलाशना बेमानी होगा.

एआईडीएमके
2014 के चुनाव में एआईडीएमके ने तमिलनाडु की 37 सीटों पर कब्जा किया था लेकिन तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता के निधन के बाद पार्टी की स्थिति वैसी नहीं रही. जयललिता के निधन के बाद सीएम पद के लिए पार्टी के भीतर संघर्ष हुआ. समझौते के तौर पर पलनीसामी को मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री ओ. पेनरीसेल्वम को उपमुख्यमंत्री बनाया गया. बीजेपी ने तमिलनाडु में एआईडीएमके और पीएमके से गठबंधन किया है.

यहां से बीजेपी पांच, पीएमके सात और शेष सीटों पर एआईडीएमके चुनाव लड़ेगी. लेकिन चुनावी सर्वेक्षण में डीएमके को भारी जीत मिल रही है. ऐसे में डीएमके नेता एमके. स्टालिन की लोकप्रियता के आगे मोदी का जादू फेल होता दिखाई दे रहा है.

शिवसेना
बीजेपी और शिवसेना ने 2014 का लोकसभा चुनाव साथ लड़ा था. विधानसभा चुनाव में शिवसेना और बीजेपी की मध्य सीट बंटवारे को लेकर हुई तकरार के बाद दोनों पार्टियों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा. बीजेपी ने प्रदेश में सरकार बनाई लेकिन सरकार में शिवसेना की हिस्सेदारी नहीं रही. उसके बाद से 2019 तक शिवसेना ने कई बार बीजेपी पर उपर जमकर शब्दों के हमले किए.

कुछ समय पहले तक ऐसा लगने लगा था कि लोकसभा चुनाव भी शिवसेना और बीजेपी अलग-अलग ही लड़ेंगी लेकिन चुनाव से ऐन वक्त पहले अमित शाह के के कहने पर शिवसेना गठबंधन में चुनाव लड़ने को तैयार हुई. हालांकि यहां बीजेपी-शिवसेना गठबंधन काफी मजबूत है लेकिन कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन उसे टक्कर दे रहा है.

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