पाॅलिटाॅक्स न्यूज/बिहार. वो 1990 का दशक था, उसके बाद कांग्रेस कभी बिहार में अपना मुख्यमंत्री नहीं बना सकी. राजद के लालू प्रसाद यादव और उसके बाद जदयू के नीतीश कुमार का ऐसा जादू चला कि कांग्रेस चाहकर भी सत्ता में वापसी नहीं कर पाई. यह दोनों नेता जेपी आंदोलन से निकले हुए वो नेता रहे, जिन्होंने बिहार की राजनीति को नए सिरे से जन्म दिया. इन दोनों की राजनीति ने न सिर्फ कांग्रेस को सत्ता से बाहर किया बल्कि कांग्रेस को उनके पीछे चलने पर मजबूर कर दिया.
बिहार की 243 विधानसभा सीटों के लिए एक बार फिर से चुनाव होने जा रहे हैं. प्रदेश में राजनीतिक वातावरण गरमा गया है. एक बार फिर लालू यादव की पार्टी राजद और नीतीश की जदयू के बीच सीधा-सीधा मुकाबला होना है. खास बात यह है कि पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश की जदयू ने लालू की राजद के साथ मिलकर सरकार बनाई थी. लेकिन दोनों के बीच का गठबंधन ज्यादा नहीं चल सका और नीतीश ने लालू से नाता तोड़कर बीजेपी के समर्थन से अपनी सरकार बना ली. अब चुनाव से पहले दोनों पार्टियां अपना सियासी समीकरण बनाने में लगी हैं.
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बिहार में अब तक 33 मुख्यमंत्री रहे जिनमें जगन्नाथ मिश्र, भोला पासवान, नीतीश कुमार और राबड़ी देवी सबसे ज्यादा तीन बार मुख्यमंत्री रहे. बिहार में 7 बार राष्ट्रपति शासन भी रहा.
चारा घोटाले ने कम की लालू की लालटेन की रोशनी
1990 में कांग्रेस के जगन्नाथ मिश्र के बाद लालू यादव पहली बार जनता दल से बिहार के मुख्यमंत्री बने. 1995 में हुए चुनाव से पहले लालू यादव अपनी पार्टी राजद को मजबूती के साथ खड़ी कर चुके थे. 1995 के चुनाव में लालू यादव को बहुमत मिला और वो एक बार फिर मुख्यमंत्री बने लेकिन चारा घोटाले में भ्रष्टाचार के बड़े आरोपों के बीच लालू यादव को दो साल बाद ही 1997 में मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा. लालू यादव ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री बना दिया. राबड़ी देवी 2000 तक मुख्यमंत्री रही. 2000 में नीतीश कुमार पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने लेकिन 7 ही दिनों में ऐसा राजनीतिक घटनाक्रम हुआ कि राबड़ी देवी एक बार फिर से बिहार की मुख्यमंत्री बन गई. राबड़ी देवी 2005 तक मुख्यमंत्री रही.
2005 से लेकर अब तक रहा नीतीश कुमार का दबदबा
बिहार की राजनीति मेें सुशासन बाबू के नाम से लोकप्रिय हुए नीतीश कुमार राबड़ी देवी के बाद 2005 में मुख्यमंत्री बने. इसके बाद से लगातार नीतीश कुमार ही बिहार के मुख्यमंत्री है. इस बीच मई 2014 से फरवरी 2015 तक 9 महीने के लिए जीतन राम मांझाी बिहार के मुख्यमंत्री बने लेकिन नीतीश कुमार के प्रभाव के चलते उनकी समय से पहले ही सत्ता से विदाई हो गई. बिहारी बाबू नीतीश कुमार एक बार फिर से मुख्यमंत्री बन गए.
ऐसे बदलता गया सत्ता का समीकरण
लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच चले सत्ता के संघर्ष में बीजेपी ने बिहार की राजनीति में अपने पैर पसारे. 2005 में बीजेपी और जदयू का गठबंधन हुआ. यह गठबंधन 2014 में टूटा. नई राजनीतिक परिस्थितियों के बीच नीतीश कुमार की जदयू और लालू प्रसाद यादव की राजद ने आपस में हाथ मिला लिया.
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2015 का चुनाव दोनों ने कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा. हालांकि इन चुनाव में राजद को नीतीश कुमार की जदयू को मिली 71 सीटों के मुकाबले 80 सीटें मिली थी लेकिन नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे. गठबंधन में कड़वाहट आई और दोनों के बीच दरार पड़ गई. नीतीश ने अपनी सरकार बचाए रखने के लिए एक बार बीजेपी से हाथ मिला लिया.
तेजस्वी यादव एक नेता के तौर पर उभरने में कामयाब रहे
चूंकि लालू यादव चारा घटाला मामले में जेल में है, इसलिए राजद के पास नेतृत्व कमजोर हो गया. लेकिन पिछले 5 सालों में उनके बेटे तेजस्वी यादव ने बिहार में एक मजबूत नेता के तौर पर उभरने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी. तेजस्वी यादव ने विपक्ष के तौर पर नीतीश सरकार पर समय-समय पर कई सधे हुए राजनीतिक हमले किए. यहीं नहीं, कई सर्वे रिपोर्ट में तेजस्वी यादव को बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में जनता की पहली पसंद भी बताया जा रहा है.
बीजेपी ने साफ किया – नीतीश के नेतृत्व में लडेंगे चुनाव
जहां एक ओर तेजस्वी यादव कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लडेंगे, वहीं नीतीश कुमार एक बार फिर बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लडेंगे. बीजेपी ने साफ कर दिया है कि अगर जदयू और बीजेपी गठबंधन सत्ता में आया तो नीतीश कुमार ही फिर से मुख्यमंत्री होंगे.
कांग्रेस भी बढ़ाना चाहती है अपना प्रभाव
2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने राजद और जदयू के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया था. कांग्रेस ने 40 सीटों पर जीत दर्ज की थी. इस बार होने वाले चुनाव में महागठबंधन से नीतीश कुमार की पार्टी हट चुकी है. ऐसे में महागठबंधन में मुख्य रूप से राजद और कांग्रेस ही बड़ी पार्टी के रूप में है. बदली राजनीतिक स्थितियों में कांग्रेस अपना दबदबा बढ़ाना चाहती है. यही कारण है कि चुनाव से पहले कांग्रेस के नेताओं ने चुनाव लड़ने के लिए 80 सीटों की मांग की है. हालांकि इस पर अभी कोई निर्णय नहीं हुआ है लेकिन माना जा रहा है कि कांग्रेस इससे कम सीटों पर चुनाव नहीं लड़ेगी.