चुनाव स्पेशल: गजब की है बिहार की सियासत, 20 साल में 6 बार सीएम बने नीतीश कुमार, तीन बार मुख्यमंत्री बदले

जब जब बढ़ा वोटिंग परसेंटेज़, तब तब हुआ सरकार को फायदा, यादव परिवार के राज के बाद कभी नहीं हुई 60 फीसद वोटिंग, लगातार चौथी बार सत्ता पाने की आस में नीतीश कुमार

Politalks.news/Bihar. बिहार में अब विधानसभा चुनाव की सुगबुगाहट तेज हो चली है. कोरोना के चलते रैलियां तो नहीं हो रहीं, लेकिन वर्चुअल रैलियों का दौर जारी है. फिलहाल चुनाव आयोग ने अभी बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान तो नहीं किया है, लेकिन राजद ने डिजिटल कैंपेनिंग के जरिए अपना चुनाव प्रचार शुरु कर दिया है. जदयू 6 सितम्बर से अपनी डिजिटल रैली की शुरुआत करने वाली है तो भाजपा 13 सितंबर से चुनाव प्रचार शुरू करने जा रही है. वहीं दल-बदल और जोड़-तोड़ का गेम तो पहले से शुरु हो गया है. वैसे देखा जाए तो बिहार की सियासत काफी अजब गजब रही है.

बीते 20 सालों में यहां एक बार राष्ट्रपति शासन लगने के बावजूद 6 बार चुनाव हुए हैं और इस दौरान नीतीश कुमार 6 बार मुख्यमंत्री बने हैं. तीन बार मुख्यमंत्री भी बदले गए हैं. इन 20 सालों में कुल आठ बार सीएम का शपथ ग्रहण हुआ जिसमें नीतीश कुमार 6 बार, राबड़ी देवी और जीतनराम मांझी एक-एक बार मुख्यमंत्री बने.

अगर हम बिहार विधानसभा के पिछले 20 साल के दौरान हुए चुनावों पर गौर करें तो कई चीजें सामने आती हैं. एक बात सबसे खास है बिहार में, यहां जब जब वोटिंग परसेंटेज बढ़ा है, वर्तमान सरकार को ही फायदा हुआ है. लेकिन ये भी सच है कि यादव कुनबे के राज जाने के बाद कभी भी वोटिंग परसेंटेज 60 फीसदी तक भी नहीं हुआ. सबसे ज्यादा वोटिंग पिछले चुनावों में हुई लेकिन यहां भी जदयू ने राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़ा. उस समय 56 फीसदी वोटिंग हुई थी. उससे पहले का वोटिंग परसेंटेज केवल 52 फीसदी था.

एक समय था जब बिहार में कांग्रेस का एकक्षत्र राज हुआ करता था. आजादी के बाद 1989 तक कांग्रेस के 14 मुख्यमंत्रियों ने बिहार में राज किया लेकिन उसके बाद कांग्रेस बिहार में कभी वापसी नहीं कर पाई और न ही कभी चुनौती दे पाई. 1990 के चुनाव में कांग्रेस को 71 सीटें जरुर मिली लेकिन 1995 में 29 सीटों पर सिमट गई. उसके बाद कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिरता गया. 2015 के चुनाव में नीतीश के साथ आने से जरूर कांग्रेस को फायदा हुआ, लेकिन पिछले 30 सालों कांग्रेस कभी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं आ सकी.

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शुरुआत करें साल 2000 से जब बिहार से झारखंड का बंटवारा नहीं हुआ था. उस समय कुल 324 सीटें हुआ करती थीं. चारा घोटाले में नाम आने के बाद लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी उनकी बागडोर संभाल रही थीं. इस चुनाव में कुल 62.6 फीसदी वोट पड़े लेकिन बहुमत किसी को नहीं मिला. इसमें राजद को 28.3 फीसदी, भाजपा को 14.6 फीसदी और समता पार्टी (अब जदयू) को 8.7 फीसदी वोट मिले थे. समता पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन को बहुमत न होने के बावजूद तत्कालीन राज्यपाल सुंदर सिंह भंडारी ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी जिसको लेकर राजद ने जमकर विरोध किया. इस विरोध के चलते नीतीश की सरकार केवल सात दिन ही चली और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद कांग्रेस के समर्थन से एक बार फिर से राबड़ी देवी बिहार की मुख्यमंत्री बनीं.

इसके बाद आया फरवरी 2005 का बिहार विधानसभा चुनाव जो सच में बिहार की राजनीति का टर्निंग प्वॉइंट साबित हुआ. इस चुनाव के बाद बिहार में राजद का ग्राफ गिरता चला गया. इस चुनाव में कुल 46.5 फीसदी वोटिंग हुई जो पिछले चुनाव के मुकाबले करीब 16 फीसदी कम रही. वजह रही कि झारखंड बिहार से अलग हो गया था. 210 सीटों पर हुए इस चुनाव में राजद को सबसे ज्यादा 75 सीट और जदयू को 55 सीट मिली. यहां लोजपा ने शानदार प्रदर्शन किया और 29 सीटें जीतने में कामयाब हुई. उस समय सत्ता की चाबी लोजपा के पाले में थी. अगर लोजपा राजद को सपोर्ट करती तो कांग्रेस के समर्थन से उनकी सरकार बन सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका और आखिरकार राष्ट्रपति शासन लागू हो गया.

अक्टूबर में फिर से चुनाव हुए और इस बार भाजपा-जदयू गठबंधन को बहुमत मिला. इसके साथ ही बिहार में 15 साल से शासन कर रहे लालू राज का अंत हुआ. नीतीश कुमार दूसरी बार सीएम बने. इस चुनाव में कुल 45.85 फीसदी वोट पड़े थे. इसमें सबसे ज्यादा राजद को 23.45 फीसदी वोट मिले लेकिन जीत मिली महज़ 54 सीटों पर. जदयू को 20.46 फीसदी वोटों के साथ 88 सीटों पर जीत मिली.

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साल 2010 यानि नीतीश कुमार के पांच साल के कार्यकाल के बाद यह पहला चुनाव था. जिस तरह से उन्होंने पांच साल के दौरान रोड मैप दिया था, उससे साफ था कि इस बार चुनाव में कोई बड़ा उलटफेर नहीं होने वाला है. नीतीश कुमार लगातार दूसरी बार पूर्ण बहुमत से सीएम बन गए. भाजपा-जदयू गठबंधन ने 206 सीटें हासिल की थीं यानी 84 फीसदी सीटें इस गठबंधन के खाते में गई थीं. इस दौरान 52.71 फीसद वोटिंग हुई यानि यानी पिछले चुनाव के मुकाबले करीब 7 फीसदी ज्यादा. यहां राजद तीसरे नंबर की पार्टी बनकर रह गई और उसे केवल 22 सीटें मिली. बीजेपी 91 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी. कांग्रेस ने सभी सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन इतिहास का सबसे बुरा प्रदर्शन करते हुए केवल चार सीटों पर जीत दर्ज कर पाई.

इसके बाद आया साल 2015 का चुनाव. 2015 का विधानसभा चुनाव कई मायनों में थोड़ा अलग और दिलचस्प था. इस चुनाव में वर्षों के यार जुदा हो गए थे और पुराने धुर विरोधी एक हो गए थे. 20 साल बाद लालू और नीतीश एक साथ मिलकर महागठबंधन (जिसमें कांग्रेस भी शामिल थी) के रूप में चुनाव लड़ रहे थे, जबकि दूसरी ओर भाजपा, लोजपा और रालोसपा मिलकर उनका मुकाबला कर रही थी.

2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को भरपूर समर्थन मिला था. भाजपा गठबंधन ने 40 में से 31 सीटें जीती थीं और मोदी लहर भी अपने उफान पर थी. माना जा रहा था कि मुकाबला जोरदार होगा, लेकिन परिणाम बेहद चौंकाने वाले रहे. अकेले राजद को जितनी सीटें मिली थीं उतनी सीटें तो भाजपा अपने सहयोगियों को मिलाकर भी नहीं हासिल कर पाई. राजद एक बार फिर बिहार की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. राजद को 80, जदयू को 71, कांग्रेस को 27 तो मोदी लहर के बावजूद बीजेपी को 53 सीटें मिली. नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बने और तेजस्वी यादव डिप्टी सीएम. हालांकि, लालू और नीतीश का गठबंधन ज्यादा दिन नहीं रह सका. जुलाई, 2017 में नीतीश ने इस्तीफा दे दिया और बाद में भाजपा के समर्थन से फिर से मुख्यमंत्री बन गए.

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इन 20 सालों में हुए बिहार के विधानसभा चुनावों को देखें तो एक चीज साफ होती है कि बिहार में जब-जब वोटिंग बढ़ी है, तब-तब मौजूदा सरकार को ही फायदा हुआ है और उसी सरकार की वापसी हुई है. 1995 के चुनाव में 61.8 फीसदी तो 2000 में 62.6 फीसदी वोट पड़े. दोनों समय राजद गठबंधन की सरकार बनी. जैसे ही वोटिंग परसेंट नीचे गया, सरकार पलट गई और नीतीश कुमार सरकार सत्ता में आ गई. 2005 से 2015 तक हर वोटिंग परसेंट बढ़ा और सरकार लगातार तीसरी बार सत्ता में वापसी कर गई. हालांकि इस बार के चुनाव में कोरोना संक्रमण के चलते वोटिंग घटने की आशंका है. अगर ऐसा होता है तो किंवदंती ही सही लेकिन वर्तमान मुख्यमंत्री और जदयू प्रमुख नीतीश कुमार को इस बात का डर सबसे अधिक लग रहा है.

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