Politalks.News/Bihar. बिहार की राजनीति के भीष्म पितामाह तुल्य शरद यादव (Sharad Yadav) की जदयू में वापसी की बड़ी तेज चर्चा है. हालांकि ढलती उम्र के साथ शरद यादव का वो जनाधार बिहार की राजनीति में नहीं रहा लेकिन जेपी आंदोलन से उपजे नीतीश कुमार (Nitish Kumar) और शरद यादव की केमेस्ट्री कृष्ण और अर्जुन से कम नहीं है. शरद यादव हाल में स्वस्थ होकर अस्पताल से घर लौटे हैं लेकिन महागठबंधन में होने के बावजूद न तो राजद और न ही कांग्रेस का कोई नेता उनके हालचाल जानने पहुंचा. दूसरी ओर, जदयू के नेताओं सहित नीतीश कुमार ने फोन पर उनका हालचाल जाना. जदयू के नेता तो उनसे मिलने अस्पताल भी पहुंचे. वहीं से उनके जदयू से हाथ मिलाने और एनडीए में शामिल होने के दरवाजे खुल गए थे. अब देखना तो ये है कि क्या शरद यादव एक बार फिर नीतीश कुमार के सारथी बन उन्हें सत्ता का महाभारत जिता पाते हैं या नहीं.
नीतीश कुमार और शरद यादव दोनों नेताओं को खाटी समाजवादी माना जाता है. दोनों के बारे में एक राय है कि जो ठान लेते हैं उससे पीछे हटने के बारे में नहीं सोचते. भले ही उनके फैसलों में दूसरों को अवसरवाद की झलक मिले. संसद में दोनों के भाषणों को ध्यान से सुना जाता रहा है. दोनों ने मिलकर ही लालू प्रसाद यादव को बिहार की सत्ता का सिंहासन सौंपा था और दोनों ने मिलकर ही लालू को सत्ता से बेदखल भी किया. जब दोनों एक साथ थे, तब जहां नीतीश ने बिहार को संभाला तो शरद यादव ने दिल्ली में मोर्चेबंदी का किया. इस दौरान दोनों कभी साथ-साथ रहे तो कभी सियासी हालातों ने उन्हें अलग कर दिया.
वैसे इस समय बिहार की सियासत काफी बदल गई है और नीतीश कुमार की जदयू का जनाधार फिसलता जा रहा है. ऐसे में नीतीश को एक ऐसे नेता की जरूरत है जो सदन के साथ चुनावी मंचों पर उनकी पार्टी का पक्ष मजबूती से रख सके, जिसे सुना जाए और जिसे तवज्जो मिले. शरद यादव को भले ही बड़े जनाधार वाला नेता नहीं माना जाता हो, लेकिन संगठनात्मक क्षमता में उनकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती. राजनीति में उनका अनुभव किसी भी लिहाज से नीतीश और लालू से कमतर नहीं है. अगर शरद जदयू में आते हैं तो इससे बड़ा फायदा भले न मिले लेकिन कोई नुकसान भी नहीं होने वाला. वैसे दोनों ही नेताओं की अपनी-अपनी मजबूरियां हैं. नीतीश को एक प्रभावी नेता की जरुरत है तो शरद यादव अपनी पार्टी बनाकर देख चुके हैं और उन्हें पता है कि अगर नीतीश का साथ नहीं मिला तो उन्हें अब राजनीतिक बियावान में ही वक्त गुजरना होगा.
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दरअसल शरद ने जदयू से नाता तोड़कर 2018 में लोकतांत्रिक जनता दल (लोजद) पार्टी का गठन किया. 2019 के लोकसभा चुनाव में वे महागठबंधन का हिस्सा थे और इसी के बैनर तले मधेपुरा से चुनाव भी लड़े लेकिन जदयू के दिनेश्वर यादव से हार गए.
अब बिहार के नए सियासी घटनाक्रम और परिस्थितियां बदली हुई स्थिति में शरद यादव के हवाले एक बड़ी जमात के वोटरों को आकर्षित करने की कवायद जरूर होगी. ऐसा इसलिए भी कि सत्ता पक्ष किसी भी सूरत में महागठबंधन को ध्वस्त कर देना चाहता है. मांझी कमोबेश इसी समझ के तहत साथ आए हैं. वहीं शरद यादव और नीतीश कुमार की मुस्लिम-यादव वोटबैंक पर राजनीति का बिहार में कोई तोड़ नहीं है.
बात करें शरद यादव के राजनीति अनुभव की तो नीतीश और शरद की जोड़ी लालू यादव को लेकर ही बनती-बिगड़ती रही. 1990 का जब लालू को नेता प्रतिपक्ष बनाना था, क्योंकि यह माना जाता था कि जिसे यह जिम्मेदारी मिलेगी, वही प्रदेश का सीएम बनेगा. पार्टी के अधिकांश विधायक लालू पर सहमत होने के मूड में नहीं थे, लेकिन शरद-नीतीश-जगदानंद सिंह ने विधायकों को एकजुट किया और लालू प्रसाद नेता प्रतिपक्ष चुने गए. 1990 में जब बिहार विधानसभा चुनाव हुए और जनता दल को सरकार बनाने का मौका मिला. केंद्र में उस समय विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी. बताया जाता है कि चंद्रशेखर मुख्यमंत्री रामसुंदर दास को बनाना चाहते थे तो वीपी सिंह को कोई और पसंद था. इधर शरद यादव के मन में लालू बसे थे. उन्होंने नीतीश के साथ मिलकर गोलबंदी की और लालू को विधायक दल का नेता चुन लिया गया और लालू सत्ता की गद्दी पर सवार हो गए.
लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू की महात्वाकांक्षाएं उफान मारने लगीं. वह नीतीश जैसे नेता को भी दरकिनार करने लगे. लालू ने बिहार में सांप्रदायिक सौहार्द की तो एक लकीर खींच दी थी, लेकिन कानून व्यवस्था बिगड़ती जा रही थी. विकास के मुद्दे पर भी अनदेखी के आरोप लगने लगे थे. ऐसे में जॉर्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार ने जनता दल का साथ छोड़ दिया और 1994 में समता पार्टी बना ली. शरद यादव तब जनता दल में ही रहे.
मंदिर निर्माण के लिए रथ लेकर निकले आडवाणी को गिरफ्तार कराकर और मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद लालू ने अपनी स्थिति और मजबूत कर ली. लालू और शरद यादव का मुस्लिम-यादव समीकरण हिट रहा. 1995 के विधानसभा चुनाव में जनता दल को निर्णायक जीत मिली और लालू दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने. नीतीश की समता पार्टी को केवल सात सीटें मिली. उन्हें अहसास हो गया था कि अगर लालू से लड़ना है तो बड़े साथ की जरूरत होगी.
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इधर लालू के दूसरे कार्यकाल में चारा घोटाले का जिन्न बाहर आ चुका था और लालू पर पद छोड़ने का दबाव पड़ने लगा. शरद यादव उस समय जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे. आम तौर पर कहा जाता है कि शरद यादव जिसके साथ होते हैं, उसका खुलकर साथ देते हैं और जिसके साथ नहीं होते, उसका मुखर विरोध करते हैं. उन्होंने लालू का मुखर विरोध किया. इसके पीछे वजह ये थी कि शरद चाहते थे कि लालू प्रदेश अध्यक्ष और सीएम का पद छोड़ दें लेकिन लालू ने 1997 में पार्टी तोड़ दी और राष्ट्रीय जनता दल का गठन कर लिया.
उधर जनता दल में टूट का सिलसिला जारी था. 1999 में पार्टी फिर टूटी. देवगौड़ा जनता दल सेक्युलर के नेता हो गए और शरद यादव जनता दल यूनाइटेड के. 2003 में समता पार्टी का जद(यू) में विलय हो गया. तब समता पार्टी के अध्यक्ष जॉर्ज फर्नांडीस थे. इस विलय के साथ ही नीतीश और शरद यादव फिर एक बार साथ आ गए. राम विलास पासवान भी साथ थे लेकिन बाद में उन्होंने अपनी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) बना ली.
यहीं से नीतीश और शरद की जोड़ी ने लालू यादव के खिलाफ आवाज बुलंद की. 24 नवंबर, 2005 को नीतीश ने पहली बार बिहार के सीएम पद की शपथ ली. इस दौरान शरद यादव नीतीश कुमार की राह का हर कांटा निकालने की जुगत में रहे. उस दौर में शरद यादव ने जॉर्ज फर्नांडीस के सामने पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया. शरद के पीछे नीतीश खुद खड़े थे. जॉर्ज बुरी तरह से हार गए और एक तरह से पार्टी से बाहर हो गए. जदयू का अध्यक्ष बनने के बाद शरद ने दिल्ली में मोर्चा संभाला और नीतीश कुमार ने बिहार में खुद को केंद्रित कर लिया. अगले चुनाव में मुस्लिम यादव समीकरण में शरद यादव फिट बैठे जिससे नीतीश मुस्लिमों को भी साधने में सफल रहे. इसी से लालू को परास्त करने में मदद मिली.
2013 में बीजेपी ने घोषणा कर दी कि अगर बहुमत मिला तो नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री होंगे. ये बात नीतीश को खटक गई और उन्होंने ऐलान कर दिया कि जदयू एनडीए से अलग हो रही है. ऐसे में शरद ने एक बार फिर दिल्ली में मोर्चा संभाला और अपनी बात रखी कि हम सेक्युलरिजम से कोई समझौता नहीं कर सकते. एक तरह से देखा जाए तो उन्होंने नीतीश की कही हर बात का न केवल उनका समर्थन किया, साथ ही बचाव भी किया.
2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू को केवल दो सीटें मिलीं. ऐसे में नीतीश के सामने अपना वजूद बचाने की चिंता होने लगी. उन्होंने राजद से गठबंधन कर लिया और फिर मुख्यमंत्री बन गए. शरद यहां भी सूत्रधार के रूप में रहे. 2015 के चुनाव के बाद नीतीश और राजद ने मिलकर सरकार बनाई. लेकिन 2017 में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उन्होंने राजद का साथ छोड़ दिया और बीजेपी के सहयोग से सरकार बचा ली.
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शरद यादव को यह बात पसंद नहीं आई और उन्होंने नीतीश को छोड़ अपनी अलग राह बना ली. यहां तक की शरद यादव ने कोर्ट में भी जदयू का नेता होने का दावा करते हुए चुनाव चिन्ह की मांग की, लेकिन वहां से भी उन्हें मात मिली. इसके बाद शरद यादव ने लोकतांत्रिक जनता दल नाम से नई पार्टी बना ली. आज भी यह पार्टी महागठबंधन का हिस्सा है. राजद के टिकट पर 2019 में शरद ने मधेपुरा से चुनाव भी लड़ा लेकिन जीत से दूर रह गए.
शरद यादव बीते कुछ महीनों से दिल्ली के एक अस्पताल में अपना इलाज करा रहे हैं. बताया जा रहा है कि राजद की ओर से कोई भी नेता उनका हालचाल लेने तक नहीं आया, लेकिन जदयू के कई नेता उनसे मिलने पहुंचे. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी फोन पर उनका हालचाल पूछा. इसके बाद से ही बिहार राजनीति के ‘भीष्म पितामाह’ ने नीतीश से सारे गिला शिकवा भूला दिए. यहीं से शरद यादव के जदयू में जाने की अटकलें तेज हो गई.
माना यही जा रहा है कि शरद यादव एनडीए में नहीं बल्कि जदयू में अपनी पार्टी का विलय करेंगे. यानि जब नीतीश और शरद यादव मिलकर एक बार फिर मुस्लिम-यादव समीकरण का चक्रव्यूह चुनावी महाभारत में रचेंगे तो शरद यादव जदयू के नेता के तौर पर अपनी नई पारी की शुरुआत करेंगे. माना तो ये भी जाता है कि इतना होने के बाद भी नीतीश कुमार को जितिनराम मांझी से ज्यादा शरद यादव पर भरोसा है. अब ये तो वक्त ही बताएगा कि वह नीतीश के साथ आकर कहां तक उनके सारथी बन पाते हैं और उन्हें महाभारत के कृष्ण की तरह मार्गदर्शन के साथ जीत दिला पाते हैं या नहीं.