आम चुनाव 2024 में मध्यप्रदेश में कांग्रेस का पूरी तरह से सूपड़ा साफ हो गया. यहां की सभी 29 सीटों पर बीजेपी ने क्लीन स्वीप किया है. इसी कड़ी में एमपी की छिंदवाड़ा संसदीय सीट, जिसे अब तक कमलनाथ का गढ़ कहा जाता था, उसे भी बीजेपी ने इस बार ढहा दिया. 1980 से लेकर अब तक इस सीट पर केवल और केवल एमपी के पूर्व सीएम कमलनाथ और कांग्रेस का कब्जा रहा है. इस बार कमलनाथ के इस गढ़ को बीजेपी के उम्मीदवार बंटी साहू ने ढहा दिया. बंटी ने नकुलनाथ को एक लाख 13 हजार 18 से मात दी. पिछले चुनाव में कमलनाथ के गढ़ छिंदवाड़ा से नकुलनाथ सांसद बने थे.
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इससे पहले बीजेपी छिंदवाड़ा में केवल एक साल के लिए कमल खिला पायी थी. उस समय कमलनाथ की पत्नी अल्का नाथ (1996) यहां से नई नवेली सांसद बनी थी. साल 1997 के उप चुनाव में बीजेपी के सुंदरलाल पटवा ने यहां पहली बार कमल खिलाया. उसके अगले ही साल हुए आम चुनाव (1998) में कमलनाथ ने फिर से मैदान में उतरते हुए यहां जीत दर्ज की और तब से 2019 तक इस संसदीय क्षेत्र में कमलनाथ के ‘हाथ’ में रहा. 2019 में नकुलनाथ यहां से सांसद बने थे. फिलहाल कमलनाथ के इस किले में ‘कमल’ खिल रहा है.
छिंदवाड़ा का राजनीतिक इतिहास
इससे पहले की बात करें तो आजादी के बाद 1952 से लेकर अब तक बीजेपी छिंदवाड़ा में केवल दो बार कमल खिला पायी है. 1952 में यहां पहले आम चुनाव में कांग्रेस के रायचंद्रभाई शाह जीतकर संसद पहुंचे. 1957 से 1962 तक यहां भीखूलाल चाड़क और उसके बाद 1980 तक पार्टी के ही गार्गी शंकर मिश्रा का कब्जा रहा. 1980 में कमलनाथ यहां से पहली बार मैदान में उतरे और 1995 तक लगातार 4 बार सांसद बने. उनके बाद उनकी धर्मपत्नी अल्का नाथ ने यहां चुनाव जीता लेकिन एक साल बाद ही उप चुनाव में बीजेपी ने पहली बार इस सीट पर खाता खोला. अगले ही साल 1998 में कमलनाथ ने फिर से जीत की वापसी की और 2019 तक यहां से सांसद रहे. वर्तमान में कमलनाथ छिंदवाड़ा विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं.
कमलनाथ क्यों बचा नहीं सके अपना किला
छिंदवाड़ा संसदीय क्षेत्र की 6 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस और इकलौती अमरावाड़ा सीट पर बीजेपी विधायक का कब्जा है. इसके बावजूद ये किला कमलनाथ और कांग्रेस के हाथों से फिसल गया. इसका सबसे बड़ा कारण है स्थानीय नेताओं से कमलनाथ और नकुलनाथ की दूरियां. दोनों पिता पुत्र केवल चुनाव की तैयारियों में लगे रहे, लेकिन वे अपने स्थानीय नेताओं को एकजुट नहीं रख पाए. कमलनाथ के दशकों तक साथ रहे पूर्व मंत्री दीपक सक्सेना सहित जिला पंचायत और जनपद पंचायत के कई नेता बीजेपी में शामिल हो गए. सक्सेना छिंदवाड़ा विस से कई बार विधायक रहे हैं. उन्होंने कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाने के लिए इस्तीफा तक दे दिया था. इसके बाद भी उन्हें लगातार उपेक्षा मिली. इसके चलते उन्होंने बीजेपी में जाना उचित समझा. चुनाव के ठीक पहले विधायक कमलेश प्रताप शाह भी बीजेपी में शामिल हो गए. एक साथ 400 नेताओं, विधायकों, पार्षदों सहित अन्य स्थानीय कार्यकर्ताओं का हाथ छोड़ कमल को थामना भी टर्निंग पॉइंट रहा.
नकुलनाथ का व्यक्तित्व खुद पर पड़ा भारी
नकुलनाथ अपने पिता की छाया से कभी बाहर नहीं निकल पाए. कमलनाथ के बेटे और सबसे अमीर उम्मीदवार होने के साथ वे लोगों से जल्दी घुलमिल नहीं पाएं. उनकी वीआईपी की तरह विजिट, अपनों से घिरे रहने के कारण न जनता से सीधे संवाद कर पाए और न ही कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से कनेक्शन बिठा पाए. वहीं बीजेपी की जिला इकाई के अध्यक्ष रहे विवेक बंटी साहू ने बिठाया. उन्होंने सभी कार्यकर्ताओं को एकजुट रखा, जिसका उन्हें फायदा मिला.
कमलनाथ पर नहीं नकुलनाथ पर अटैक
चूंकि कमलनाथ छिंदवाड़ा से 9 बार के सांसद रह चुके हैं. उम्र के इस पड़ाव में भी कमलनाथ यदि छिंदवाड़ा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ते तो शायद यहां मुकाबला कुछ अलग होता. बीजेपी जानती थी कि छिंदवाड़ा के लोगों का कमलनाथ से पुराना नाता है, वे उन पर सीधा हमला बर्दाश्त नहीं करेंगे. ऐसे में बीजेपी ने जो भी निशाने साधे, जो भी आरोप लगाए, वे सब नकुलनाथ पर लगाएं. इसके बाद परिणाम वहीं हुआ, जो आना था. बंटी साहू ने मौजूदा सांसद नकुल नाथ को 1,13,618 मतों के अंतर से हरा दिया. इस बार कमलनाथ ने पीछे रहते हुए अपने बेटे को चुनाव लड़ाया था.
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इससे पहले नकुलनाथ को कथित तौर पर बीजेपी में शामिल होने का ऑफर भी दिया गया था. उस समय मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सियासी जमीन जोरों से हिलती दिखाई दीं थी. कमलनाथ कांग्रेस के वरिष्ठ एवं एक कट्टर कांग्रेसी विचारधारा के समर्थक रहे हैं. उनका बीजेपी में जाने का कोई उद्देश्य नहीं है. एमपी में कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा भी कमलनाथ ही हैं. वे जानते हैं कि बीजेपी में उन्हें कुछ नहीं मिलने वाला है. पंजाब के पूर्व सीएम एवं कांग्रेसी नेता रह चुके कैंप्टन अमरेंद्र सिंह का बीजेपी में हाल वे देख चुके हैं.
हालांकि नकुलनाथ को बीजेपी में अपना भविष्य दिख सकता है. यह बात स्थानीय जनता को भी समझ आ रही थी. ऐसे में उन्होंने नकुलनाथ का साथ छोड़ना बेहतर समझा. पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी इकलौती छिंदवाड़ा संसदीय सीट नहीं जीत सकी थी, जो इस बार नकुलनाथ को मोहरा बनाकर ‘कमल’ खिलाने में कामयाब हो गयी है. खुद कमलनाथ ने इसे अपनी स्वयं की हार बताया है. ऐसे में बीजेपी के पास छिंदवाड़ा सीट को जीतने के पर्याप्त कारण थे, जिन्हें कांग्रेस कभी समझ ही नहीं पायी. परिणाम, उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है.