राजनीति के ‘मौसम विज्ञानी’ इस बार दो मोर्चों पर गच्चा खाते हुए क्यों दिख रहे हैं?

भारत की राजनीति में रामविलास पासवान ऐसे नेता हैं, जो हमेशा सत्ता के साथ रहते हैं. सरकार चाहे किसी की भी आए, पासवान कभी चुनाव से पहले तो कभी चुनाव के बाद सत्ता के सिरमौर बनने वाले दल के साथ हो लेते हैं. इसी वजह से कई नेता उन्हें राजनीति का ‘मौसम विज्ञानी’ कहते हैं. पासवान फिलहाल एनडीए का हिस्सा हैं और दावा कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी फिर से प्रधानमंत्री बनेंगे.

रामविलास पासवान का यह दावा कितना सही होगा यह तो यह चुनाव परिणाम आने के बाद पता चलेगा, लेकिन उनकी सियासत पर सबकी नजर है. आपको बता दें कि रामविलास पासवान बिहार की हाजीपुर लोकसभा क्षेत्र से आठ बार सांसद चुने गए. जीत का यह आंकड़ा इस बात की तस्दीक करता है कि राजनीति में उनका कद कितना बड़ा है.

पासवान पहली बार भारतीय लोकदल के टिकट पर साल 1977 में चुनाव जीतकर संसद पहुंचे. साल 1980 में वे जनता पार्टी के टिकट पर सांसद बने, लेकिन 1984 में इंदिरा गांधी के निधन के बाद हुए चुनाव में उन्हें कांग्रेस के रामरात्न राम के सामने हार का सामना करना पड़ा. हालांकि 1989 के चुनाव में उन्होंने फिर से जीत हासिल की. इस चुनाव के साथ जीत का जो सिलसिला शुरू हुआ वो 2004 तक जारी रहा.

इस दौरान रामविलास पासवान की दलीय निष्ठा बार—बार बदलती रही. वे एनडीए और यूपीए, दोनों सरकारों में रहे. पासवान अकेले तो बिहार में इतने ताकतवर नहीं हैं कि वे कुछ बड़ा कर सकें, लेकिन प्रदेश के दलित वर्ग पर उनकी अच्छी पकड़ मानी जाती है. पहले यूपीए और बाद में एनडीए में उनकी एंट्री की वजह भी यही थी.

2014 के चुनाव में पासवान की पार्टी लोजपा ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. पार्टी ने सात सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे, जिनमें से छह ने फतह हासिल की. इनमें हाजीपुर से रामविलास पासवान खुद और जमुई से उनके पुत्र चिराग पासवान सांसद चुने गए. पासवान इस बार के चुनाव में एनडीए में शामिल हैं. इस बार उनकी पार्टी को छह सीटें मिली हैं.

इस बार रामविलास पासवान चुनावी मैदान में नहीं हैं. 1977 के बाद यह पहला मौका है जब वे लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. उनकी परंपरागत हाजीपुर सीट से इस बार रामविलास पासवान के भाई और बिहार सरकार के मंत्री पशुपति कुमार पारस चुनाव लड़ रहे हैं. वहीं, जमुई से रामविलास के पुत्र चिराग एक बार फिर चुनावी मैदान में हैं.

राजनीति के जानकारों की मानें तो इस चुनाव में रामविलास पासवान की प्रतिष्ठा दांव पर है. बताया जा रहा है कि दलितों के बीच अब उनकी पहले जैसी पकड़ नहीं बची है. उनकी पार्टी के उम्मीदवार अपनी सीटों पर तो दलित वोट हासिल कर रहे हैं, लेकिन बीजेपी और जेडीयू के उम्मीदवारों के खाते में इसे ट्रांसफर नहीं करवा पा रहे. जानकारों की मुताबिक प्रदेश की कुछ सीटों को छोड़कर ज्यादातर पर दलित समाज पूरी तरह से महागठबंधन के पक्ष में लामबंद दिखाई दे रहा है.

यदि ऐसा होता है तो यह रामविलास पासवान के लिए किसी झटके से कम नहीं होगा, क्योंकि जिस दलित वोट बैंक की वजह से वे राष्ट्रीय दलों से गठबंधन और सरकार में मोलभाव कर पाते हैं यदि वो ही उनसे छिटक गया तो उनका राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव कम होना तय मानकर चलिए. लोजपा के कई नेता भी यह स्वीकार करते हैं कि मोदी सरकार के दौरान हुई दलित विरोधी घटनाओं का नुकसान उनकी पार्टी को भी हुआ है.

आपको बता दें कि बीते पांच साल में देश में दलित उत्पीड़न की कई घटनाएं हुईं. वह चाहे गुजरात के ऊना में दलित की पिटाई का मामला हो या रोहित वेमुला की आत्महत्या का मुद्दा. एससी-एसटी एक्ट में संशोधन का मामला भी खूब उछला. ये सभी मामले मोदी सरकार के साथ—साथ रामविलास पासवान के लिए भी मुसीबत का सबब बने. कहा गया कि पासवान सरकार में शामिल थे, लेकिन उन्होंने बड़े मामलों पर चुप्पी साधे रखी.

आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव इन्हीं मुद्दों पर रामविलास पासवान को घेर रहे हैं. तेजस्वी हर जनसभा में कह रहे हैं कि बीजेपी के साथ रहकर रामविलास की सोच भी आरएसएस जैसी हो गई है. वे आरएसएस की तरह दलितों की बजाय सवर्णों के लिए काम करते है. आपको बता दें कि रामविलास पासवान ने सवर्ण वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण देने की मांग की थी. इस पर तेजस्वी ने उन्हें सवर्ण समाज का नेता कहा था.

दरअसल, तेजस्वी ये भली-भांति जानते हैं कि अगर दलित वोट उनके पक्ष में एकमुश्त लामबंद होते हैं तो महागठबंधन के लिए बिहार में संभावना बढ़ेगी. तेजस्वी लोकसभा चुनाव को महागठबंधन की एक प्रयोगशाला के रूप में देख रहे हैं. वे इस चुनाव में सभी प्रकार के विकल्पों को अपनाकर देख रहे हैं. चाहे मुकेश साहनी की नई-नवेली विकासशील इंसान पार्टी को तीन लोकसभा की सीट गठबंधन में देने की बात हो या उपेंद्र कुशवाह की रालोसपा को गठबंधन में लेने की.

कांग्रेस को सिर्फ नौ लोकसभा सीटों पर ही लड़ने पर सहमत करना भी तेजस्वी की रणनीति का ही हिस्सा है. वहीं, रामविलास पासवान पर वंशवाद के भी जमकर आरोप लग रहे हैं. विपक्षी दलों का आरोप है कि प्रदेश में उनके परिवार के अलावा उन्हें कोई दलित नेता नहीं मिलता, जो चुनाव लड़ सके. गौरतलब है कि लोजपा के हिस्से में आई छह में से तीन सीटों पर तो उनके परिवार के सदस्य ही चुनाव लड़ रहे हैं.

जमुई से रामविलास के पुत्र चिराग पासवान, हाजीपुर से उनके भाई पशुपति कुमार पारस और समस्तीपुर से उनके दूसरे भाई रामचंद्र पासवान चुनाव लड़ रहे हैं. विपक्ष आरोप लगा रहा है कि पशुपति कुमार पारस तो वैसे ही बिहार सरकार में मंत्री हैं, तो उनके स्थान पर किसी दलित कार्यकर्ता को क्यों नहीं चुनाव लड़ाया गया. इन तीन सीटों के अलावा लोजपा ने नवादा से चंदन कुमार, खगड़िया से महमूद अली कैसर, वैशाली से मुगेंर की वर्तमान सांसद वीना देवी को प्रत्याशी बनाया है.

बताया जा रहा है कि इन वजहों से रामविलास पासवान के उपर से दलितों का भरोसा उठ रहा है और लोग खुद को ठगा हुआ महसूस करके अपना रुख महागठबंधन की ओर कर रहे हैं. यह भी कहा जा रहा है कि खुद उनके समाज के (पासवान) लोगों को भी यह लगने लगा है कि दलितों और पासवानों के नाम पर राजनीति करके रामविलास सिर्फ अपने परिवार के लोगों और कुछ अमीर लोगों को मजबूत बनाने में लगे हुए हैं. इनका दलित समाज से कोई सरोकार नहीं है. हालांकि रामविलास पासवान का जनाधार उनसे कितना खिसका है, इसका पता तो 23 मई को ही चल पाएगा.

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