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बिहार के जातिगत आंकड़ों के सामने आने के बाद अब लगता है कि ‘आरक्षण की सियासत’ की चौसर राजस्थान में भी बिछने को तैयार है. विधानसभा चुनावों के लिए आचार संहिता लगने से ऐन वक्त पहले गहलोत सरकार ने प्रदेश में भी जातिगत सर्वे कराने का फैसला देकर एक बड़ा दांव खेल दिया है. सर्वे में नागरिकों के सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्तर के संबंध में जानकारी एवं आंकड़े एकत्रित किए जाएंगे. इस सभी आंकड़ों के आधार पर समाज के पिछड़ेपन का आकलन किया जाएगा और सुधार की योजनाएं बनाई जाएंगी. सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता विभाग ने इस संबंध में देर रात आदेश जारी कर दिए हैं. आचार संहिता लगने से एकदम पहले सरकार के इस कदम से आगामी विधानसभा चुनावों में एक नयी रंग की सियासत दिखती हुए नजर आ रही है.

चूंकि ये साल प्रदेश में चुनावी साल है इसलिए राजस्थान में साल की शुरूआत में ही अनेक समुदायों का महासम्मेलन का आयोजन लगातार चल रहा है. ब्रह्माण, राजपूत, सैनी, माली, धोबी, जाट एवं मीणा/मीना समाज के कई महासम्मेलन गुलाबी नगरी में हो चुके हैं. सभी समाजों ने इन सम्मेलनों के जरिए अपना शक्ति प्रदर्शन करते हुए राजनीति में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की बात की है. वहीं जाट समाज ने आरक्षण में अपनी उपस्थिति 21 से बढ़ाकर 25 या 27 प्रतिशत करने की मांग उठाई है. सूबे के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी इस बारे में पहले ही अपनी मंशा स्पष्ट कर दी है कि इस पर विचार किया जाएगा. ऐसे में आरक्षण का दायरा प्रदेश में 50 फीसदी से बढ़ने की पूरी संभावना जताई जा सकती है. हालांकि ऐन वक्त पर खेला जा रहा ये खेल केवल और केवल राजनीति से प्रेरित है और विधानसभा चुनाव में माहौल बनाने का प्रयासभर है.

राज्य स्तर पर बिहार ने हाल में जाति सर्वेक्षण डेटा जारी कर इस खेल की शुरूआत कर दी है. इधर, सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीएम नीतीश कुमार को राहत देते हुए जातिगत सर्वे के आंकड़ों पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है. अब इन आंकड़ों के प्रकाशन की तैयारी की जा रही है. इन सब से उपर उठते हुए कर्नाटक की कांग्रेस सरकार स्थानीय निकाय चुनाव में ओबीसी को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला कर दिया है. साथ ही साथ कर्नाटक में 2013 में हुए जातीय सर्वे की रिपोर्ट को जारी करने का फैसले पर भी विचार किया जा रहा है. अब इस खेल में राजस्थान के शामिल होने से ओबीसी का आरक्षण दायरा बढ़ाने और जातीय सर्वे कराने को पुख्ता बल मिला है.

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हालांकि सरकार का मानना है कि इस तरह के सर्वे से पिछड़ी जातियों के जीवन स्तर पर सुधार की संभावनाएं देखी जा सकती है. ये सही हो सकता है लेकिन इसका एक पहलू दूसरी भी है. जातिगत जनगणना से राजनीति से लेकर नौकरियों एवं तमात संसाधनों पर पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी बढ़ना तय है. हालांकि ये योग्यतानुसार न होकर आरक्षण के शॉर्टकट दरवाजे से होकर किया जाएगा. प्रदेश में पहले से ही ओबीसी आरक्षण 21 प्रतिशत से बढ़ाने की मांग उठ रही है. ऐसे में अन्य जातियों से इसका टकराव होने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है. सामान्य जातियां भी अपने आपको दबा हुआ महसूस कर सकती हैं.

देश में अंतिम बार जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी उसके अनुसार, प्रदेश में जाट, ब्रह्मामण, राजपूत, मीणा, गुर्जर, माली, कुम्हार सर्वाधिक जनसंख्याा वाली टॉप 10 जातियों में शामिल थी. जाट 10.72 लाख, बह्माण 8.31 लाख, चर्मकार 7.82 लाख, भील 6.64 लाख, राजपूत 6.60 लाख, मीणा 6.12 लाख, गुर्जर 5.61 लाख, माली 3.83 लाख और कुम्हार 3.73 लाख थे. बीते कुछ सालों में प्रदेश में जाट, मीणा/मीना और मुस्लिम समुदाय की संखा में खासी वृद्धि हुई है. ऐसे में जातिगत सर्वे और आरक्षण सीमा में बदलाव इन सभी जातियों के बीच आपसी खटास को जन्म दे सकता है.

खैर, बिहार की सरजमीं से शुरू हुई जातिगत सर्वे और आरक्षण का दायरा बढ़ाने का ये खेल कर्नाटक से परवान चढ़ रहा है. कर्नाटक के साथ साथ उडीसा सरकार भी साल 2013 में जातिगत सर्वे करा चुकी है. हालांकि रिपोर्ट अभी तक जारी नहीं हो पायी है. राजस्थान के भी इसी दौड़ में शामिल होने के बाद अन्य राज्यों में इसकी मांग उठ सकती है. साथ ही साथ ओबीसी के आरक्षण दायरे को बढ़ाने की दिशा में भी काम किया जा सकता है. अब देखना ये है कि सुप्रीम कोर्ट के नियमों में भी राजस्थान की सरकार कुछ फेर बदल करने की हिमाकत कर भी पाती है या नहीं. फिलहाल के लिए इन सभी कयासों की गर्म हवा अगले दो महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों तक सियासी पटों के बीच दबकर रहने वाली है.

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