यूपी चुनाव से 100 दिन पहले मोदी का ब्रह्मास्त्र! विपक्ष से छीने मुद्दे, 210 सीटों पर साधा जीत का समीकरण

तीनों कृषि कानून पर मोदी सरकार का रोल बैक, 5 राज्यों के चुनावों को देखते हुए लिया फैसला! उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में साधे कई बड़े समीकरण, 200 से ज्यादा सीटों पर मोदी ने चला मास्टर स्ट्रोक, विपक्ष के हाथ से छिना एक बड़ा सियासी चुनावी मुद्दा, लखीमपुर कांड के बाद सरकार पर बढ़ गया था बहुत ज्यादा दबाव

यूपी चुनाव में मोदी का 'ब्रह्मास्त्र'
यूपी चुनाव में मोदी का 'ब्रह्मास्त्र'

Politalks.News/Uttarpradesh. प्रकाश पर्व के पावन दिन मोदी सरकार द्वारा तीन कृषि कानूनों को वापस लेकर किसानों को रिझाने का बड़ा फैसला आज देश की राजनीति में सुबह से चर्चा का विषय बना हुआ है. हालांकि इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आने पांच राज्यों के चुनाव से महज 100 दिन पहले बड़ा चुनावी दांव चला है. अब सवाल ये उठता है कि क्या ये सब अचानक हुआ है और इसका जवाब है नहीं. दरअसल, हाल ही में पीएम मोदी ने अपनी रणस्थली और सबसे बड़े चुनावी राज्य उत्तरप्रदेश के विभिन्न इलाकों में 5 दौरे किए और जनता का मिजाज जाना. सियासी जानकारों की मानें तो पीएम मोदी को जो फीडबैक मिला वो पार्टी की जीत पर सवालिया निशान लगाने वाला था और जिसका सबसे बड़ा कारण निकल कर आया किसान आंदोलन.

बस फिर क्या था, ‘सत्ता के लिए साला कुछ भी करेगा’ वाली थीम पर जिन तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में 12 महीने से किसान पूरे देश में आंदोलित थे, उन्हें तत्काल वापस ले लिया गया. आपको बता दें कि यूपी की 403 विधानसभा सीटों में से करीब 210 सीटों पर किसान ही जीत-हार का फैसला करते हैं. इसलिए भाजपा चुनावों तक किसानों को नाराजगी नहीं झेल पाती. यूपी से जुड़े सियासी जानकारों का मानना है कि ये फैसला यूपी में मास्टरस्ट्रोक साबित हो सकता है. हालांकि, कुछ सियासी धुरंधरों का यह मानना है कि जनता भी यह समझती है की यह चुनाव का असर है. खैर, इस फैसले का आगामी विधानसभा चुनाव पर कितना असर पडेगा यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा. बहराल, योगी और मोदी सरकार का पूरा फोकस यूपी के चुनावों पर है. उधर कृषि कानून वापस लेने के फैसले का विपक्ष ने भी 5 राज्यों के चुनाव को देखते हुए भाजपा बैकफुट पर आना बताया है और कहा कि हार के डर से कानून वापसी का फैसला लिया गया है.

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पश्चिमी यूपी से लखनऊ की ओर बढ़ रहा था आंदोलन
आपको बता दें, किसान आंदोलन का केन्द्र बिंदु किसानों ने दिल्ली को बनाया और इसका भी सबसे बड़ा केंद्र गाजीपुर बॉर्डर रहा, जहां मुजफ्फरनगर के बड़े किसान नेता राकेश टिकैत अपना टेंट लगाकर बैठे थे और मॉनिटरिंग भी कर रहे थे. लेकिन सियासी जानकारों का कहना था कि अब चुनावी मौसम में किसान आंदोलन का असर पश्चिमी यूपी से निकलकर सेंट्रल यूपी तक पहुंच रहा था. वहीं आंदोलन को लेकर विपक्ष भी सरकार को घेर रहा था. जहां-जहां किसान महापंचायत कर रहे थे, नेता भी पहुंच रहे थे. भाजपा के खिलाफ इस कदर गुस्सा बढ़ रहा था कि नेताओं को गांवों में घुसने तक नहीं दिया जा रहा था. यह माहौल विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए बहुत महंगा पड़ने वाला था. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने एक ही दांव में विपक्ष को चित कर दिया है.

लखीमपुर बना टर्निंग पॉइंट, विपक्ष से छीना मुद्दा

यूपी में लखीमपुर कांड इस पूरे मसले का टर्निंग पॉइंट माना जा रहा है. इसके बाद से किसान आंदोलन को लेकर यूपी में भाजपा सरकार पर सबसे ज्यादा हमलावर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी रहीं. प्रियंका के अलावा सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, आप पार्टी सांसद संजय सिंह ने लखीमपुर हिंसा में मृतक किसानों के परिजनों से मुलाकात भी की थी. हिंसा के आरोपी आशीष की गिरफ्तारी और मंत्री अजय मिश्रा टेनी की बर्खास्तगी का मुद्दा छेड़ दिया था. इससे सरकार चौतरफा घिर रही थी. अब पीएम मोदी ने विपक्ष के हाथ से बड़ा मुद्दा छीन लिया है.

सपा-रालोद के गठबंधन पर दिखेगा असर

पश्चिमी यूपी में किसान आंदोलन का असर देखने को मिलने लगा था. वहीं राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी का कद किसान आंदोलनों के चलते बढ़ रहा था. यूपी विधानसभा चुनाव में जयंत चौधरी का सपा से गठबंधन की बातें सियासी गलियारों में तैरने लगी है. लेकिन अभी इसका ऐलान नहीं हुआ है. यदि किसान आंदोलन ऐसे ही चलते रहते तो चुनाव में सीधा लाभ सपा-रालोद को मिलता. अब मोदी सरकार के इस फैसले के बाद क्या असर दिखेगा, यह भविष्य के गर्भ में छिपा है.

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जाटों की नाराजगी को किया दूर!

देश की सत्ता की चाबी जाट समुदाय के हाथ में रहती है. उत्तरप्रदेश और केंद्र में भाजपा को सत्ता दिलाने में जाट समुदाय का बड़ा योगदान रहा है. पहले 2014 लोकसभा, फिर 2017 विधानसभा और 2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा को पश्चिमी यूपी के जाट समुदाय का दिल खोलकर समर्थन मिला. पश्चिमी यूपी में 12% जाट, 32% मुस्लिम, 18% दलित, अन्य ओबीसी 30% हैं. किसान आंदोलनों के कारण भाजपा के हाथ से जाट वोट बैंक निकल रहा था. खासकर बागपत और मुजफ्फरनगर जाटों का गढ़ है. मुजफ्फरनगर की सिसौली, एक तरह से भारतीय किसान यूनियन की राजधानी है और बागपत का छपरौली रालोद का गढ़ है. ऐसे में ऐनवक्त मोदी सरकार का यह दांव अपने वोट बैंक को बचाए रखने में कामयाब रहेगा. किसान खासकर जाट लैंड 2022 के चुनाव में भाजपा को सबक सिखाने के लिए तैयार बैठा था. अब कृषि कानूनों की वापसी से भाजपा डैमेज कंट्रोल में कामयाब हो सकती है. अगर 12% नाराज जाट भाजपा के साथ वापस आते हैं तो तस्वीर बदल सकती है.

मुजफ्फनगर में जाट-मुस्लिम एकता में पड़ेगी फूट

मुजफ्फरनगर दंगे के बाद भाजपा के लिए यह इलाका प्रयोगशाला बन गया था. ध्रुवीकरण का असर 2014 के लोकसभा चुनाव में दिखा था. लेकिन मुजफ्फरनगर के जीआईसी मैदान में 5 सितंबर 2021 को हुई किसान संयुक्त मोर्चा की महापंचायत में हर-हर महादेव और अल्लाहू अकबर की गूंज एक ही मंच से दोबारा सुनाई दी. इस सभा के बाद दावा किया गया कि जाट-मुस्लिम एक बार फिर एक साथ आए हैं. लेकिन मोदी के मास्टर स्ट्रोक से एक बार फिर जाट-मुस्लिम एकता में दरार पड़ने की अटकलें लगाई जा रही हैं।

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