सपा और बसपा का साथ आना यूपी की सियासत में ‘दो ध्रुवों का एक साथ’ हो जाने जैसा रहा. इसकी चर्चा पूरे देश में है. जाहिर है कि जब चर्चा इतना असर दिखाए तो वोटर्स का प्रभावित होना लाज़मी है. अब तक हुए छह चरणों के चुनाव में कुछ ऐसा ही देखने को मिला. कुछ एक सीटों को छोड़ दें तो गठबंधन के ज्यादातर प्रत्याशी खुद-ब-खुद यह संदेश देने में सफल रहे कि बीजेपी से मुकाबले में वही हैं. कांग्रेस के बड़े नाम तो पूरी लड़ाई में यही साबित करने में रह गए कि वे भी चुनाव लड़ रहे हैं.

शुरुआत अमरोहा के चुनाव से करते हैं. यहां से कांग्रेस ने राशिद अल्वी को टिकट दिया था. टिकट मिलने के कुछ दिन के भीतर ही उन्होंने निजी कारणों से के चलते अपना टिकट वापस कर दिया. कांग्रेस को बाद में यहां से सचिन चौधरी को मैदान में उतारना पड़ा. ऊपरी तौर पर भले ही यह कहा गया हो कि उन्होंने निजी कारणों से टिकट वापस किया, लेकिन भितरखाने के लोग हकीकत बयां करते हैं कि गठबंधन के प्रत्याशी के सामने लोग उन्हें ‘वोट कटवा’ मान रहे थे. ऐसे में उन्होंने चुनाव न लड़ना ही मुनासिब समझा.

इसी तरह, सहारनपुर में कांग्रेस उम्मीदवार रहे इमरान मसूद की भी सारी ताकत यही साबित करने में लगी रही कि वह बीजेपी के उम्मीदवार राघव लखनपाल से सीधे मुकाबले में हैं. दूसरी तरफ गठबंधन के उम्मीदवार हाजी फजलुर्रहमान को वोटर्स में यह संदेश देना आसान था कि उनके पास वोटर्स का अंकगणित कहीं अधिक मजबूत है.

सपा-बसपा और आरएलडी के अपने बेस वोट बैंक हैं जबकि कांग्रेस के पास इस तरह के वोट बैंक की कमी है. ऐसे में साफ है कि बेस वोट बैंक का अंकगणित महागठबंधन के उम्मीदवार के पक्ष में गया है. इस संगठन से जो भी मैदान में उतरा, उसके पास सपा, बसपा और आरएलडी के वोट एकमुश्त थे. ऐसे में उसे केवल मजबूती से चुनाव लड़ना है. बाकी की राह उसके लिए कांग्रेस प्रत्याशी के मुकाबले आसान रही.

वहीं, कांग्रेस का सिंबल पाने वाले नेताओं को भी यह साबित करना कठिन रहा कि वह गठबंधन के बेस वोट के बावजूद ज्यादा मजबूत हैं. कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर जगहों पर यही स्थिति बनी रही. उन्नाव सीट पर कांग्रेस की अन्नू टंडन, कानपुर सीट पर श्रीप्रकाश जायसवाल आदि नेताओं की ऊर्जा का बड़ा हिस्सा केवल गठबंधन उम्मीदवार के वोटों के अंकगणित से भारी दिखाने में लगा.

वैसे भी सपा, बसपा और बीजेपी के इतर कांग्रेस को मूवमेंट बेस्ड पार्टी माना जाता है. अगर चुनाव के समय कांग्रेस अपने मूवमेंट से लोगों को जोड़ पाती है तो परिणाम बेहतर दिखाई देते हैं. अन्यथा उसके पास करने के लिए कुछ खास नहीं होता है. 2009 में किसानों की कर्जमाफी की बात को जिस तरह से कांग्रेस ने ऊपर तक पहुंचाया था, उसका असर परिणाम के रूप में भी मिला. पार्टी यूपी में 21 सीटें जीतने में कामयाब रही.

इस बार कांग्रेस ने चुनाव मैदान में जाते हुए जनता के लिए न्यूनतम आय योजना का बड़ा वादा किया. लेकिन स्थिति यह रही कि वह इस वादे के बारे में जनता को पूरी तरह बता पाने में ही असफल रह गई. अधिकतर लोग इस योजना के बारे में अनभिज्ञ हैं जिससे वोटर्स के साथ कांग्रेस का जुड़ाव उस हद तक नहीं हो सका जितना उसे अपना असर छोड़ने के लिए जरूरी था.

वहीं, दूसरी तरफ गठबंधन का उम्मीदवार अपने जातीय अंकगणित से अपने लिए वोटर्स में अपनी छाप छोड़ने में सफल रहा. उसका मजबूत कैडर बैकअप भी उसके लिए जनता के बीच पहुंचा. इस तरह से गठबंधन का उम्मीदवार बीजेपी से मुकाबले में दिखा जबकि कांग्रेस ऐसा नहीं कर सकी और लड़ाई बीजेपी बनाम गठबंधन के तौर पर वोटर्स के बीच पहुंच गई.

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