लोकसभा चुनावों को लेकर राजस्थान में बीजेपी के सबसे बड़े अंसतोष की बात की जाए तो वो बीकानेर में देखने को मिला, जहां पार्टी ने अर्जुन मेघवाल को तीसरी बार टिकट दिया तो इसके विरोध में कद्दावर नेता देवी सिंह भाटी ने एक बार फिर पार्टी को अलविदा कह दिया. इन दिनों बीकानेर सहित पूरे राजस्थान में मौसम का पारा तो गर्म है ही साथ ही राजनीति का पारा भी कुछ ज्यादा ही गर्मी दे रहा है. भाटी के बीजेपी छोड़ने के बाद अब भाटी के गढ़ कोलायत में पार्टी की स्थिति लचर नजर रही है, आलम ये है कि कहीं भी पार्टी का झंडा-बैनर तक नजर नहीं आ रहा है.
भारत-पाक सीमा के करीब स्थित गांव बरसलपुर के सरपंच बनकर अपने राजनीतिक सफर जीवन की शुरुआत करने वाले देवी सिंह भाटी कई बार सुर्खियों में रहे. कुश्ती के अखाड़े में सूमो पहलवान की तरह राजनीति के पिच पर भी इसने अपने ढंग से पारी खेली. भैरो सिंह शेखावत की सरकार में मंत्री रहने के दौरान अपने ही विभाग के आईएएस केपी सिंह देव पर हाथ उठाने की घटना पर मंत्री पद छोड़ने वाले शख़्स देवी सिंह भाटी का इससे पहले और बाद में अंदाज बदल गया हो ऐसा नहीं दिखा.
राजस्थान की राजनीति के मशहूर बिरले नामों में से भाटी को एक कहा जाए तो गलत नहीं होगा. अपने कानून-कायदों और अपनी ही ठसक में रहने वाले कद्दावर नेता देवी सिंह भाटी इसी वजह से शायद यहां विशेष पहचान रखते हैं और यही कारण भी रहा कि पार्टी का ओरा कभी उन पर हावी नहीं हुआ. साल 1980 से 2008 तक लगातार सात विधानसभा चुनाव में पार्टी की बजाय हमेशा देवी सिंह भाटी जीते, यह कहना गलत नही होगा.
पहला चुनाव जनता पार्टी (जेपी), दूसरा जनता पार्टी और तीसरा जनता दल से जीतने के बाद देवी सिंह भाटी बीजेपी में शामिल हुए और साल 1993 में पहली बार कोलायत में कमल खिलाया. इसके बाद हुए 1998 के चुनाव में फिर भाटी बीजेपी से चुनाव लड़े और जीत हासिल की. लेकिन एक बार फिर सामाजिक आरक्षण व्यवस्था को लेकर भाटी ने सामाजिक न्याय मंच का गठन कर उसके बैनर तले चुनाव लड़े और जीते. करीब सात-आठ साल पार्टी से बाहर रहे भाटी की 2008 के विधानसभा चुनाव से पहले घर वापसी हुई और फिर से भाटी के बूते बीजेपी कोलायत में जीती.
साल 2013 में आठवीं बार भाटी का विजयीरथ युवा भंवर सिंह भाटी ने रोका. कोलायत की आबोहवा कुछ बदल चुकी थी और इस बार महज 1100 वोटों के अंतर से देवी सिंह भाटी चुनाव हार गए. लेकिन इसके बाद भी भाटी का जोश खत्म नहीं हुआ. साल 2018 के विधानसभा चुनाव में खुद नहीं लड़कर अपनी पुत्रवधु पूनम कंवर को भाटी ने अपनी जगह मैदान में उतारा लेकिन वो भी 11000 के करीब वोटों से चुनाव हार गई.
साल 2013 में खुद और 2018 में पुत्रवधु के विधानसभा चुनाव हारने के बाद से यहां राजनीतिक रूप से भाटी का चुनावी ग्राफ जरूर नीचे आया, लेकिन लगातार सात चुनावों की एकछत्र जीत के चलते आज भी भाटी का कोलायत ही नहीं, जिले की अन्य सीटों पर थोड़ा ही सही लेकिन प्रभाव जरूर है. रही बात पांच सालों में 2 चुनाव हारने की तो इसके पीछे कई राजनीतिक पहेलियां भी हैं, जिनको सुलझाने के लिए भाटी अभी बीकानेर लोकसभा की गलियों में घूमते नजर आ रहे हैं.
वर्तमान हालात की बात करें तो भले ही 10 साल तक बीकानेर से सांसद अर्जुन मेघवाल, देवी सिंह भाटी के विरोध पर प्रतिक्रियात्मक प्रहार करने की बजाय अपने चुनाव प्रचार में लगे हुए हैं. लेकिन मजे की बात यह है कि भाटी के गढ़ कोलायत में वो किसके सहारे घुसेंगे इसका जवाब उन्हें अभी तक नहीं मिल पाया है. दरअसल 1980 के बाद कोलायत में बीजेपी का कोई नेता नहीं बना जो भाटी के कद का मुकाबला कर सके और जो खड़ा हुआ वो भाटी के वरदहस्त से उनका समर्थक बनकर.
ऐसे में मेघवाल को साथ लेकर चुनाव प्रचार में कोलायत कौन घूमेगा यह एक बड़ा सवाल है. यह भी एक संयोग है कि जब भाटी बीजेपी से बाहर थे और उस वक्त प्रदेश में बीजेपी के गुलाबचंद कटारिया नेता प्रतिपक्ष थे और कोलायत दौरे में उनके साथ मारपीट की घटना हुई. ऐसे में उस घटना को आंखों से देखने और सुनने वालों को लगता है कि कोलायत जाना ठीक नहीं है. अब इस बीच विश्व की सबसे पार्टी का चुनाव में कोलायत बूथ पर कौन सदस्य बैठेगा यह तो अलग बात है लेकिन उससे पहले मतदाताओं से वोट कौन मांगेगा यह सवाल बीजेपी को अंदरखाने में सताया जा रहा है.
कोलायत को छोड़ अर्जुन मेघवाल अपने प्रचार में लगे हैं. क्या यही कारण है कि केवल एक बार कोलायत में औपचारिकता निभाते हुए अर्जुन मेघवाल घूमे हैं लेकिन प्रचार जैसी बात अभी नज़र नही आई है. हालांकि अंदरखाने में मेघवाल का खुद का एक विशेष वोटबैंक भी कोलायत में है जिसको लेकर ही भाटी की मेघवाल से नाराजगी है. क्योंकि उनको लगता है कि मेघवाल की वजह से ही पिछले विधानसभा चुनाव में यह वोट उनको नहीं मिले. लेकिन इन सबके बीच देखने वाली बात है कि अब मेघवाल और बीजेपी कब कोलायत का रूख करते हैं.