Politalks.News/Rajasthan. राजस्थान की गहलोत सरकार ने प्रदेश में मंत्रिमंडल विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों से पहले एक बड़ा सियासी फैसला लेते हुए विधानपरिषद के गठन के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है. अब इस प्रस्ताव को केन्द्र सरकार को भेजा जाएगा. माना जा रहा है कि अगर केंद्र ने मंजूरी दे दी तो राज्य सरकार ज्यादा संख्या में मंत्री बनाकर अंदरूनी असंतोष शांत कर सकेगी, अगर विधान परिषद के गठन को मंजूरी मिल जाती है तो गहलोत सरकार विधानसभा और विधान परिषद के कुल सदस्यों के 15 प्रतिशत के बराबर मंत्री बना सकती है. बता दें कि राज्य सरकार पर लगातार कैबिनेट विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों का दबाव बनाया जा रहा है. ऐसे में गहलोत-पायलट गुट को संतुष्ट कर पाना सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है.
इससे पहले 2008 में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा सरकार ने और उसके बाद 2012 में सीएम अशोक गहलोत की सरकार ने विधान परिषद के गठन का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा था. इसके बाद यूपीए की सरकार के केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय द्वारा 18 अप्रैल 2012 को विधानसभा में पारित हुए विधान परिषद के गठन के प्रस्ताव पर संसद की स्टैंडिंग कमेटी द्वारा दिए गए सुझावों के संदर्भ में राज्य सरकार की राय मांगी थी. उस वक्त केंद्र में यूपीए की सरकार थी लेकिन अब वहां मोदी सरकार का शासन है. वहीं करीब 9 साल बाद गहलोत सरकार इस मामले में अपनी राय भेज रही है.
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जानकार सूत्रों का कहना है कि गहलोत सरकार का यह प्रस्ताव महज एक सियासी दांव ही नजर आ रहा है क्योंकि बीते 40 सालों में देश में कहीं पर भी विधान परिषद के गठन को मंजूरी नहीं दी गई है. राजस्थान में 9 साल से केंद्र में लंबित पड़े विधान परिषद के गठन के प्रस्ताव पर हालत जस की तस है. केंद्र सरकार ने विधान परिषद के गठन पर बहुत पहले राज्य की राय पूछी थी जिस पर अब गहलोत सरकार जवाब भेज रही है. संसदीय मामलों के जानकार इस पूरी कवायद को केवल सियासी लॉलीपॉप के अलावा कोई और महत्व देने को तैयार नहीं हैं. मौजूदा राजनीतिक हालात को देखते हुए तो केंद्र सरकार से राजस्थान में विधान परिषद के गठन की मंजूरी मिलने की संभावना न के बराबर है. एक कांग्रेस शासित राज्य के लिए मोदी सरकार इतना बड़ा कदम उठाएगी इसकी संभावना कम ही है.
हालांकि अचानक विधान परिषद के गठन की चर्चा छेड़ मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने विपरीत बह रही सियासी हवा को बदलने की कोशिश की है. पिछले साल से लगातार गहलोत और पायलट खेमों में खींचतान चल रही है, सियासी नरेटिव को नया मोड़ देने के लिए विधान परिषद की चर्चा छेड़ी गई है. जानकारों का मानना है कि गहलोत सरकार मैसेज देना चाहती है कि हम तो कार्यकर्ताओं को फायदा देना चाहते हैं. विधान परिषद की इस कवायद से चर्चा और खबरों के अलावा राजनीतिक तौर पर गहलोत को फायदा होता नहीं दिख रहा. जिन नेताओं को विधान परिषद से फायदा होगा, वे पूरी प्रक्रिया को समझते हैं, इसलिए मैसेज पॉलिटिक्स इस मामले में कामयाब नहीं होगी.
सियासी संकट का हो सकती है हल!- राजस्थान में यदि विधान परिषद का गठन होता है तो कांग्रेस में जारी पायलट और गहलोत गुट में खींचतान को कुछ हद तक कम किया जा सकता है. कांग्रेस के दोनों ही गुटों के नेता और कई ऐसे नेता जो चुनाव में हार गए थे उन्हें विधान परिषद के रास्ते मुख्य धारा में जोड़ा जा सकता है. कांग्रेस के कई दिग्गज जैसे रामेश्वर डूडी, राजीव अरोड़ा, रतन देवासी सरीखे नेता मुख्य धारा से बाहर है. वहीं ऐसे ही बीजेपी के भी दिग्गजों को विधानपरिषद के रास्ते जयपुर लाया जा सकता है. साथ ही सरकार कुछ समाजसेवियों और साहित्यकारों को जो लॉयल हैं विधानपरिषद का मैंबर बना कर ऑबलाइज कर सकती है. ऐसे में अगर कवायद यदि पूरी हो जाती है तो गहलोत, कांग्रेस और बीजेपी के लिए सुखद साबित हो सकती है.
वैसे कई बार संकटमोचक बना है ‘विधान परिषद‘- राजस्थान, पश्चिम बंगाल, असम, उड़ीसा कि राज्य सरकारें विधान परिषद का गठन करने का प्रस्ताव भेज चुकी है. वहीं देश भर में विधान परिषद के औचित्य और उसकी उपयोगिता को लेकर समय-समय पर विरोध के स्वर उठते रहे हैं. विधान परिषद के गठन के विरोध में यह कहा जाता रहा है कि प्रत्यक्ष चुनाव में जनता द्वारा नकार दिए गये लोगों को विधान परिषद के रास्ते मंत्रिमंडल में शामिल किया जाता रहा है. जिससे देश के लोगों में विधान परिषद को लेकर अच्छी राय नहीं बन पाई है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और डॉ. दिनेश शर्मा भी विधान परिषद के सदस्य हैं. महाराष्ट्र में सीएम उद्रव ठाकरे राज्य विधानसभा के सदस्य नहीं है, ठाकरे भी विधान परिषद के लिए चुने गए थे. सीएम या मंत्री बनने के छह माह के भीतर इन दोनों सदनों में से एक का सदस्य बनना संवैधानिक बाध्यता है. इसीलिए ममता बनर्जी ने भी विधान परिषद के गठन का फैसला किया है. बनर्जी नंदीग्राम विधानसभा सीट से हालही में चुनाव हार गई थी. अब मुख्यमंत्री बने रहने के लिए ममता के सामने विकल्प है कि या तो वे उपचुनाव होने पर चुनाव जीतें या विधान परिषद सदस्य बनें.
अभी छह राज्यों में हैं विधान परिषद- देश में अभी छह राज्यों में आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश में विधानपरिषद है. इनमें भी आंध्र प्रदेश की सरकार ने इसके विघटन का प्रस्ताव पास किया हुआ है. हालांकि इसे केन्द्र सरकार की मंजूरी मिलना बाकी है. वहीं अभी पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी की सरकार ने विधान परिषद के गठन की स्थापना का फैसला लिया है. साल 1969 में पश्चिम बंगाल में विधान परिषद का विघटन कर दिया गया था.
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विधान परिषद के गठन की क्या है प्रक्रिया- विधान परिषद के गठन के लिए विधानसभा से संकल्प पारित करके केंद्र सरकार को भेजा जाता है. राजस्थान से दो बार संकल्प भेजा जा चुका है. इसके बाद केंद्र सरकार बिल लेकर आती है. उसे लोकसभा और राज्यसभा में दो तिहाई बहुमत से पारित करवाना होता है, उसके बाद विधान परिषद के गठन की मंजूरी मिलती है.
विधान परिषद का सियासी गणित- संविधान के अनुसार किसी राज्य की विधान परिषद में राज्य विधानसभा की कुल संख्या के एक तिहाई से अधिक और 40 से कम सदस्य नहीं होंगे. राज्यसभा की तरह विधान परिषद भंग नहीं होती है और इसके सदस्य का कार्यकाल छह वर्ष का होता है, जिसमें एक तिहाई सदस्य हर दो वर्ष में रिटायर हो जाते है. विधान परिषद की सदस्यता के लिए न्यूनतम आयु 30 वर्ष होनी चाहिए. विधान परिषद एक स्थायी सदन है और पूरी विधान परिषद कभी भी भंग नहीं होती और इसे राज्यपाल द्वारा भंग नहीं किया जा सकता है.
ऐसे होता हैं विधान परिषद का चुनाव- विधानपरिषद के एक तिहाई सदस्य राज्य के विधायकों की ओर से चुने जाते हैं. इसके साथ ही एक तिहाई स्थानीय निकायों नगर निकायों के जरिए चुने जाते हैं. इसके साथ ही 1/12 सदस्यों को तीन साल से अध्यापन कर रहे लोग और 1/12 सदस्यों को राज्य में रह रहे 3 वर्ष से स्नातक निर्वाचित करते हैं. शेष सदस्यों का नामांकन राज्यपाल की ओर से किया जाता है इनमें साहित्य, कला, सहकारिता आंदोलन और समाज सेवा का विशेष ज्ञान तथा व्यावहारिक अनुभव होना जरूरी है.
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विधान परिषद की उपयोगिता पर उठते रहे हैं सवाल– विधान परिषद के एक सदस्य पर सालाना करीब 50 लाख रूपये से अधिक का खर्चा आता है. इस तरह देश में कुल 426 विधान परिषद सदस्यों पर सालाना 200 करोड़ रुपए से अधिक की राशि खर्च होती है. इसके अलावा कार्यकाल पूरा करने के बाद उनको आजीवन पेंशन, मुफ्त चिकित्सा सुविधा, मुफ्त रेल- बस यात्रा सहित अन्य कई तरह की सुविधाएं मिलती है. विधान परिषद के सदस्य की मृत्यु होने पर उसकी पत्नी को भी पेंशन मिलती है.
डोटासरा का केंद्र सरकार पर टालम-टोल का आरोप- राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष और शिक्षा राज्य मंत्री गोविंद सिंह डोटासरा ने कहा कि विधान परिषद का प्रस्ताव सर्वसम्मति से लिया गया है. केंद्र सरकार लगातार विधान परिषद गठन के मामले को टाल रही थी. डोटासरा ने कहा कि- ‘हम चाहते हैं कि लोगों को मौका मिले. कार्यकर्ताओं को मौका मिले इसके लिए विधान परिषद बने. कांग्रेस की सरकार ने इसको लेकर सात साल पहले फैसला किया था. लेकिन केंद्र सरकार इसको लगातार टालती आ रही है. उन्होंने कहा कि हम बीजेपी के नेताओं से भी आग्रह करेंगे जिससे राजस्थान को विधान परिषद का जल्द से जल्द लाभ मिल सके. मोदी सरकार फैसला नहीं कर रही है, सात वर्षों से कुंडली घुमा रही है. कोई फैसला नहीं कर रही है, हम बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया के साथ प्रदेश के सभी 25 लोकसभा सांसदों और केंद्र में कैबिनेट मंत्री बने भूपेंद्र यादव से आग्रह करेंगे कि वो जनता के हित के लिए और उसकी आवश्यकताओं के लिए विधान परिषद के गठन में सहयोग दिलाएं.
बीजेपी ने बताया सियासी शिगूफा- बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व विधि मंत्री घनश्याम तिवाड़ी का कहना है कि- ‘पहले दो बार विधान परिषद का प्रस्ताव केंद्र में भेजा हुआ है. इसकी एक लंबी प्रक्रिया है मंत्रिपरिषद का प्रस्ताव केवल सियासी शिगूफा है, इससे कुछ नहीं होगा. पहले से 9 राज्यों से विधान परिषद के गठन के प्रस्ताव केंद्र सरकार में लंबित चल रहे हैं. हाल ही में बंगाल ने भेज दिया है. मौजूदा हालत में विधान परिषद के गठन पर कुछ होना नहीं है.
भाजपा के उप नेता राजेंद्र राठौड़ ने इस मामले में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि विधान परिषद के गठन का प्रस्ताव सरकार ने अपनी खीज मिटाने के लिए पारित किया है. 2012 में जिस प्रस्ताव पर राज्य सरकार से राय मांगी गई थी उसे अब भेजने का क्या तुक है. संभावित असंतोष को दबाने के लिए गहलोत सरकार का कुत्सित प्रयास सफल नहीं होगा.