Politalks.News/JammuKashmir. क्या इतिहास खुद को दोहराएगा? यह सवाल एक बार फिर कश्मीर के मौजूदा हालात के बीच अच्छे दिनों की उम्मीद लगाए बैठे गैर मुस्लिम समुदाय के सामने खड़ा हो गया है. सवाल जायज है, क्योंकि मात्र तीन दिन में आतंकियों ने पांच लोगों की हत्या की है. इनमें से चार कड़ी सुरक्षा व्यवस्था वाले श्रीनगर में ही मारे गए हैं. मृतकों में तीन अल्पसंख्यक हैं. यही कारण है कि कुछ दिन पहले तक रात को भी गुलजार नजर आने वाले बाजारों में आज शाम को ही सन्नाटा पसरा नजर आ रहा है. जो कि कश्मीर के हालात की पूरी कहानी सुना रहा है.
इधर दिल्ली से श्रीनगर के सियासी गलियारों में इस बात की चर्चा शुरू हो गई है कि, क्या अनुच्छेद 370 हटने के बाद के दो सालों का निचोड़ यह है कि अमित शाह फेल हो रहे हैं? क्योंकि हालात बदलते दिख नहीं रहे हैं. घाटी में खौफ घटता जा रहा है और जमीनी हकीकत जस की तस है. इन सवालों का मोदी सरकार के पास जवाब नहीं है कि घाटी में भारत के लोग जमीन खरीदते हुए, होटल-रिसोर्ट बनाते हुए, पर्यटन काम धंधे शुरू करते हुए क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं? क्या कश्मीरी पंडित वापस घर लौटे? क्या घाटी में हिंदुओं की प्रॉपर्टी, मंदिरों के खंडहर और जमीन मुस्लिम कब्जे से मुक्त हुए? क्या आम हिंदू, आम भारतीय के लिए घाटी भयमुक्त बनी है? क्या घाटी अलगाव खत्म हुआ है. या ये खास इलाका कश्मीरियत में लौट रहा है? वहा हिंदुस्तानियत की संभावना है या तालिबानियत की? ये सभी सवाल घाटी की सच्चाई को बयान करते हैं. अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद कई दावे किए गए थे लेकिन उन दावों की हवा निकलती दिख रही है.
कश्मीर घाटी में मुस्लिम-हिंदू साझा रिहायश बनवाने (या उसकी शुरुआत नहीं होना, एजेंडा तक नहीं बनना) के पहलू में काम जीरो है. बताया जा रहा है कि पिछले दो साल में भारत के दो लोगों ने ही (हिंदुओं ने) घाटी में जमीन खरीदी है. लेकिन संसद में हुए सवाल पर दो लोगों के जमीन खरीदने का जब जवाब मिला तो बीबीसी वेबसाइट ने पड़ताल करके बताया कि ये दो लोग भी जम्मू क्षेत्र के ही हैं. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मोदी सरकार और अमित शाह को जो करना था वह कर दिया और क्या करें! आखिर अनुच्छेद 370 खत्म कर दी. 35ए खत्म कर दिया. राज्य की सीमाएं बदल दी. दर्जा बदल गया. अगले साल तक विधानसभा चुनाव भी हो ही जाएंगे. फिलहाल विधानसभा क्षेत्रों का नए सिरे से परिसीमन हो रहा है. बहुत संभव है सियासी चतुराई से अमित शाह चुनाव के बाद जम्मू कश्मीर में हिंदू मुख्यमंत्री की शपथ करवा दें. इससे भाजपा की देश में वाहवाही बनेगी.
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केन्द्र सरकार ने प्रोपेगेंडा कर जन्माष्टमी के दिन लाल चौक पर झांकी निकलवा कर प्रचारित किया की सब सही है. क्यों कि घाटी के बाहर के हिंदू को इस झूठ में बहलाना जरूरी है कि श्रीनगर, अनंतनाग आदि में हिंदू का जीना संभव और पहले जैसा! तभी आज का जाहिराना यह सत्य है जो असलियत को दबा कर, प्रतीकात्मक फोटो, प्रचार से घाटी की सच्चाई से मुंह मोड़ना जस का तस जारी है।
निश्चित ही अनुच्छेद 370 की समाप्ति ब्रह्मास्त्र था. इसका घाटी में भारी मनोवैज्ञानिक असर हुआ. अलगाववादी और जिद्दी लोगों की गलतफहमी दूर हुई कि दिल्ली की सरकार में दम नहीं है. उसमें अनुच्छेद 370 हटाने जैसे फैसलों की हिम्मत नहीं है. उस दिन एक और बात साबित हुई. दहशत में लोग सड़कों पर निकलने का साहस नहीं जुटा पाए. निश्चित ही उस दिन सुरक्षा बल बड़ी तादाद में तैनात था लेकिन वह तो घाटी में हमेशा तैनात रहा है, जबकि श्रीनगर में पत्थरबाजी, प्रदर्शन, हिंसा रूटिन की बात है. माना जाता है कि पांच अगस्त 2019 के दिन दिल्ली में गृह मंत्रालय से ले कर सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल सभी आंशका में थे कि श्रीनगर में लोग जब सड़कों पर निकलेंगे तो कैसे संभालेंगे.
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अनुच्छेद 370 हटाना ऐसा मैसेज था जिसमें ये बताने की कोशिश हुई कि श्रीनगर, घाटी में भी वैसे ही राज होगा जैसे चंडीगढ़, जयपुर, शिमला में है. मतलब जम्मू से जवाहर टनल के रास्ते शेष भारत के लोग घाटी में जा कर बसेंगे. घाटी में बाहर के लोगों को जमीन आवंटन, कश्मीरी पंडितों, हिंदुओं को बसाने, निवेश करवाने, उन्हें टेंडर देने, काम-धंधे, कारखाने खुलवाने का काम होगा? यह एप्रोच अनुच्छेद 370 हटने के तुंरत बाद अपना लेनी चाहिए थी.घाटी बाहर के उद्यमियों, डवलपरों, होटल-पर्यटन के नामी ब्रांडों, व्यापारियों और बिहार-झारखंड-यूपी-बंगाल-ओड़िशा से कामगारों का श्रीनगर में सैलाब बनवा देना था. यदि दो साल में दो हजार प्रोजेक्ट, धंधे, हिंदू व्यापारी या मजदूर घाटी में काम करने के लिए पहुंचते तो आंतकी-अलगाववादी अपने आप यह सोचते हुए लाचार बनते कि वे इतने लोगों को कैसे टारगेट बनाएं? तब वे डर और मजबूरी में हालातों से समझौता करते हुए होते. लेकिन आज क्या स्थिति है? वे श्रीनगर में चंद पुराने हिंदुओं पर भी आतंकी हमले का बार-बार भय बनवाते हुए हैं और बाहर से लोगों के आने देने का माहौल नहीं बनने दे रहे हैं.
इसलिए अनुच्छेद 370 हटने के बाद के दो सालों का निचोड़ है कि अमित शाह फेल हो रहे हैं. घाटी में खौफ घटा नहीं है और जमीनी हकीकत जस की तस है. इन सवालों का रत्ती भर जवाब नहीं है कि घाटी में भारत के लोग जमीन खरीदते हुए, होटल-रिसोर्ट बनाते हुए, पर्यटन काम धंधे शुरू करते हुए क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं? क्या कश्मीरी पंडित वापिस घर लौटे? क्या घाटी में हिंदुओं की प्रॉपर्टी, मंदिरों के खंडहर और जमीन मुस्लिम कब्जे से मुक्त हुए? घाटी की ब्यूरोक्रेसी से उन पटवारियों, तहसीलदारों, थानेदारों आदि को चिन्हित करके क्या हटाया जा सका जो गुल शाह सरकार से लेकर अब्दुल्ला-मुफ्ती सरकारों में जमायत के इस्लामीकरण एजेंडे में भरे गए थे? क्या आम हिंदू, आम भारतीय के लिए घाटी भयमुक्त बनी है? क्या घाटी का मुसलमान नियति, मजबूरी, डर कर व रियलिटी को समझ कर याकि किसी भी भाव में भारत परस्त होता हुआ दिखता है? घाटी अलगाव और इस्लामियत का घर है या कश्मीरियत में लौट रहा इलाका? वहां हिंदुस्तानियत की संभावना है या तालिबानियत की?
इनमें से एक भी काम आसान नहीं है. सबसे बड़ी मुश्किल घाटी की इस्लामियत में भाजपा, संघ परिवार, मोदी-शाह की स्वीकार्यता की गुंजाइश जीरो होना है. इसलिए जो एक्शन होने हैं वे एकतरफा और जोर जबरदस्ती की एप्रोच में होंगे. इस कटु हकीकत में जोर जबरदस्ती से अकेला संभव नंबर एक काम घाटी को व्यावहारिक तौर पर शेष भारत के मिजाज अनुसार हिंदू-मुस्लिम साझे में परिवर्तित करने का है. क्यों नहीं आबादी की बसावट में श्रीनगर को वैसा ही बनाने का महाप्रोजेक्ट बने जैसे जम्मू है या देश के बाकी शहर हैं? क्यों हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तानी बसावट और बुनावट लिए हुए श्रीनगर या अनंतनाग नहीं बन सकते हैं? और यदि ऐसा नहीं होता है तो घाटी का शेष भारत से घुलना-मिलना कैसे होगा?