पॉलिटॉक्स न्यूज/झारखंड. बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा के बीजेपी में विलय को चुनाव आयोग की मंजूरी मिल गई है. आयोग के जारी अधिकृत पत्र में झाविमो के अस्तित्व को समाप्त मानते हुए उसके चिन्ह कंधी को जब्त करने की जानकारी दी गई है. पार्टी अध्यक्ष ने 14 फरवरी को चुनाव आयोग को एक पत्र लिखकर बीजेपी में विलय संबंधी जानकारी दी थी. बाबूलाल मरांडी ने भी हाल में बीजेपी की सदस्यता ग्रहण की थी. जैसे ही बाबूलाल मरांडी की बीजेपी में वापसी हुई, लंबे समय से चल रही पार्टी के लोकल लीडरशिप की तलाश भी खत्म हुई है. मरांडी पहले बीजेपी नेता थे और उसी नीति पर चल रहे हैं लेकिन बाद में उन्होंने झाविमो का गठन किया. उसके बाद भी पिछली सरकार में उन्होंने रघुबर दास सरकार को समर्थन देकर प्रदेश सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. हालांकि बाद में उनके 6 विधायक बीजेपी में शामिल हो गए थे.
बाबूलाल मरांडी का बीजेपी में बाहर से आने के बाद भी कितना बड़ा कद है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी में आते ही मरांडी को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी दी गई है. जैसे ही मरांडी की घर वापसी हुई, बीजेपी ने बांह पसार कर उनका स्वागत किया और वे भी मातृसंगठन के लिए सब कुछ न्यौछावर करने की कसमें खा रहे हैं. दो महीने पहले की बात करें तो मरांडी ने चुनावी प्रचार में बीजेपी को पानी पीकर कोसने वाला बताया था. वहीं अब बदलते सुरों के साथ वे कह रहे हैं कि पार्टी अगर उन्हें झाडू लगाने का काम भी देगी तो वे दिल से स्वीकार करेंगे.
खैर, ये तो राजनीति का उसूल है कि यहां सिर देखकर तिलक किया जाता है. वैसे तो बीजेपी और मरांडी के बीच काफी पहले से खिचड़ी पक रही थी लेकिन रघुबर दास बीच में एक बड़ी दीवार बने हुए थे. दास ने झारखंड की सत्ता में पांच साल पूरा करने का कारनामा पहली बार करके इतिहास रच दिया. ऐसे में रघुबर दास को ही सीएम दावेदार बनाना एक तरह से बीजेपी की मजबूरी बन गई थी. जैसे ही बीजेपी हारी तो मरांडी की घर वापसी पर मुहर लग गई. वहीं रघुबर दास की हार से मरांडी का कद झारखंड बीजेपी में अपने आप ही बढ़ गया.
बात करें विधानसभा चुनावों की तो पिछली सरकार में बीजेपी के पास एक आदिवासी चेहरे की कमी थी. पार्टी ने आनन फानन में रघुबर दास को मुख्यमंत्री बनाकर बैठा दिया लेकिन आदिवादी जनता की नाराजगी पूरे पांच साल बनी रही. लोकसभा में 14 में से 12 सीटें जीतने के बाद हालांकि आदिवासियों की नाराजगी जगजाहिर न हो सकी लेकिन पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी की हार से इसे साबित कर दिया. बीजेपी के लिए भी ये किसी धर्मसंकट से कम न था क्योंकि रघुबर दास के रूप में जो गैर आदिवासी चेहरा देने का प्रयोग बीजेपी ने किया था, पार्टी उससे कदम पीछे नहीं खींचना चाहती थी.
जैसे ही रघुबर दास के साथ पार्टी झारखंड में हारी, न तो बीजेपी के पास कोई विकल्प रहा और न ही झाविमो अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी के पास. बीजेपी की सत्ता जाते ही झाविमो की ताकत भी क्षीण हो गई. झाविमो के मरांडी के अलावा दो अन्य विधायक जीतकर सदन में पहुंचे. कहना गलत न होगा कि क्षीण होती झाविमो की ताकत के बीच दोनों उम्मीदवार अपने अपने क्षेत्रों में केवल अपनी पॉपुलर्टी के जरिए ही जीत ने में सफल हो पाए. यहां अपने उज्जवल भविष्य की तलाश में मरांडी ने बीजेपी का दामन थामा और बीजेपी ने भी बाहें फैलाकर रांची की एक बड़ी रैली में उनकी बीजेपी में दमदार एंट्री कराई. यहां ये बताना भी जरूरी है कि झाविमो के बीजेपी में विलय के साथ ही पार्टी के दो विधायकों ने बागी रूख अपनाते हुए कांग्रेस में शामिल होने की इच्छा जताई है. इस तरह के झाविमो का केवल एक विधायक जीता हुआ माना जाएगा.
केवल तीन विधायकों के साथ सदन में पहुंची झाविमो को बीजेपी में शामिल कराना यूं तो राजनीति के नजरिये से ज्यादा महत्व नहीं दिया जाएगा लेकिन झाविमो के विलय की केवल और केवल खास बात रही बाबूलाल मरांडी जो खुद एक बड़ा आदिवासी चेहरा हैं और बीजेपी की वर्षों की तलाश को पूरा करते हैं. यहां बताना जरूरी है कि बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री थे. उन्होंने बीजेपी के टिकट पर जीत हासिल कर प्रदेश की सत्ता संभाली. अब बीजेपी मरांडी के जरिए अपनी खोई प्रतिष्ठा वापस पाने की फिराक में है.
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बाबूलाल मरांडी राज्य में आदिवासियों के सबसे बड़े धड़े संताल समुदाय से आते हैं. इसी समुदाय से प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी ताल्लुक रखते हैं. ऐसे में मरांडी का मुकाबला सीधे धीरे हेमंत सोरेन से है और बीजेपी को इसके लिए तैयार करने की जिम्मेदारी भी मरांडी की है. बाबूलाल मरांडी को प्रदेश बीजेपी की बागड़ौर सौंपना इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि झारखंड में तीन बड़े दलों की मौजूदगी के बावजूद बाबूलाल ने बीजेपी के बिना भी अभी तक अपना अस्तित्व बरकरार रखा है और उनकी लोकप्रियता संदेह से परे है.
बीजेपी में एंट्री करने के बाद पार्टी ने उन्हें नेता प्रतिपक्ष बनाकर एक तरह से प्रदेश ईकाई की पूरी बागड़ौर संभला दी है लेकिन उनकी राह कतई आसान नहीं होगी. बीजेपी की रणनीति के मुताबिक उन्हें पूरे प्रदेश का दौरा कर न केवल कार्यकर्ताओं में जोश भरने की मुहिम शुरु करनी होगी, वहीं रघुबर दास और अर्जुन मुंडा सरीखे बीजेपी के कद्दावर नेताओं को साधना होगा. सदन में नेता प्रतिपक्ष बनकर उनकी ओर से सरकार पर करारे प्रहार किए जाएंगे, इसमें तो किसी को कोई शक नहीं है.