पॉलिटॉक्स ब्यूरो. महाराष्ट्र की सत्ता की सुई वैसे तो शिवसेना और ठाकरे परिवार के ही इर्द गिर्द घुमती रही है. शिवसेना संस्थापक बाला साहेब ठाकरे कभी राजनीति में तो नहीं उतरे लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ कि राजनीति और सत्ता के रास्ते उनके घर से होकर न गुजरे हों. उनके निधन के बाद न तो उद्धव और न ही राज ठाकरे ने कभी चुनाव लड़ा. लेकिन उद्धव के पुत्र आदित्य ठाकरे ने महाराष्ट्र विधानसभा में वर्ली सीट से चुनाव लड़ते हुए वर्षों पुरानी बनी हुई भ्रांति को तोड़ते हुए राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाई और अब अपने पिता की सरकार में कैबिनेट मिनिस्टर की भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं. अब ठाकरे परिवार की नई पीढ़ी के सामने एक और नई पीढ़ी राजनीति में एंट्री कर चुकी है. ये हैं अमित ठाकरे जो मनसे प्रमुख राज ठाकरे के सुपुत्र हैं.
बुधवार को बाला साहेब की जयंती पर अमित ठाकरे अपने पिता की पार्टी ‘मनसे’ में अधिकारिक तौर पर शामिल हुए. या यूं कहे कि मनसे ने अमित ठाकरे को राजनीति में लॉन्च किया. इस मौके पर राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का नया झंडा भी जारी किया. मनसे का पांच रंग का झंडा अब भगवा हो गया है. इस पर शिवाजी की मुहर भी लगी है. अमित ठाकरे को राजनीति में लाने का फैसला राज ठाकरे ने ऐसे वक्त में किया है जब उनके चचेरे भाई उद्धव ठाकरे खुद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं. वहीं भतीजे आदित्य ठाकरे कैबिनेट मंत्री की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं. अगर सब कुछ ठीक रहा तो शिवसेना के अगले उत्तराधिकारी भी आदित्य ही होंगे. ऐसे समय पर अमित को राजनीति में उतार राज ठाकरे ने नई पीढ़ी बनाम नई पीढ़ी की जंग शुरु कर दी है.
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फिलहाल इस सियासी जंग में एक बहुत बड़ा अंतर है. एक तरफ उद्धव और आदित्य ठाकरे का कद सत्ता और सियासत दोनों में आसमान जितना उंचा है. वहीं राज ठाकरे और उनकी पार्टी का कद सियासी लिहाज से सड़क पर हैं. तीन महीने पहले हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मनसे केवल एक सीट पर ही सिमट कर रह गई. हालांकि मनसे का रूख हमेशा से शिवसेना के विपरित ही रहा लेकिन जब सदन में सरकार के समर्थन देने की बारी आई तो मनसे विधायक ने अपने आपको स्थिर रखा, विरोध नहीं किया, हां लेकिन समर्थन भी नहीं दिया.
महाराष्ट्र के सियासी पटल पर एक दौर वो भी रहा जब राज ठाकरे को बाला साहेब के असली राजनीतिक वारिस के तौर पर देखा जाता था. बाला साहेब ने कभी चुनाव नहीं लड़ा लेकिन सत्ता की डोर परदे के पीछे से हमेशा उनके हाथ में रही. बाला साहेब ने अपने आक्रामक रवैये से एक अलग राजनीतिज्ञ की छवि बनाई, जिसकी आलोचना हमेशा हुई. उनके भतीजे राज ठाकरे हमेशा बाला साहेब के नक्शेकदम पर चले और मराठा अस्मिता को आगे रखकर उत्तर भारतीयों को निशाना बनाते रहे. उनका रूख भी हमेशा बाला साहेब जैसा ही आक्रामक रहा.
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लेकिन बाला साहेब के अंतिम दिनों में उद्दव ठाकरे उनके करीब आ गए और शिवसेना की कमान उद्धव के हाथों में आना तय हो गया. यही वजह रही कि राज ठाकरे की मनसे बाल ठाकरे के निधन से पहले ही वजूद में आ गई थी लेकिन उसका सियासी कद कभी उभार नहीं ले पाया. वहीं 2012 में बाला साहेब के निधन के बाद शिवसेना के साथ हिंदुत्व की विरासत भी उद्धव के हाथों में आ गई और राज ठाकरे ने अपने आपको पूरी तरह शिवसेना और उद्धव परिवार से अलग कर लिया.
बाला साहेब के निधन के पहले से ही राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के बीच सियासी खींचतान चली आ रही है. हालांकि इस लड़ाई में शिवसेना प्रमुख उद्धव का पलड़ा हमेशा ही भारी रहा. यही वजह रही कि लोकसभा चुनावों के समय राज ठाकरे ने शिवसेना की सहयोगी बीजेपी के विरोध में प्रचार किया, हालांकि अपने उम्मीदवार जंगी मैदान में नहीं उतारे. अब शिवसेना और बीजेपी सहयोगी नहीं रहे, ऐसे में राज ठाकरे की नजदीकियां बीजेपी से बढ़ती जा रही हैं. राज ठाकरे ने अपनी कट्टर हिंदूत्ववाद और मराठी मानुष विचारधारा को अभी भी जिंदा रखा हुआ है, वहीं शिवसेना धीरे धीरे ही सही लेकिन परिवर्तन की ओर अग्रसर है. कैबिनेट में एक मुस्लिम विधायक को शामिल कर इसकी शुरुआत भी हो चुकी है.
अब राजनीति की इस जंग को ठाकरे परिवार की दो नई पीढ़ियां संभालने जा रही हैं. उद्धव ठाकरे के सुपुत्र आदित्य ठाकरे और राज ठाकरे के पुत्र अमित ठाकरे इसके सूत्रधार हैं. एक ओर आदित्य पिता की कैबिनेट में मंत्रालय संभाल रहे हैं तो वहीं अमित ठाकरे ने पिता की पार्टी में शामिल होकर अभी-अभी राजनीति में एंट्री की है. मतलब सीधा है, भविष्य में इन दोनों युवा नेताओं की जंग और टकराव होना तय है. अब देखना ये दिलचस्प होगा कि उद्धव-राज की राजनीतिक लड़ाई के बीच ठाकरे परिवार के ये दो युवा और नए नवेले राजनीतिज्ञ आदित्य-अमित ठाकरे के बीच मुकाबला कैसा रहेगा.