1947 में हमसे हुई एक बड़ी गलती- जानें नेहरू सरकार के कौनसे फैसले को लेकर ये बोले गुलाम नबी आजाद

हमें हिंदुस्तान की आज़ादी के इतिहास को बनाना चाहिए था अनिवार्य विषय और हर ज़बान में बनाना चाहिए था, अगर उस वक़्त ऐसा होता तो आज कोई भी एक शख्स दूसरे से यह नहीं पूछता कि तुम कौन हो? तुम यहां के हो या बाहर के हो? तुम्हारा इस मुल्क में क्या हिस्सा रहा है?- गुलाम नबी आजाद

'स्वतंत्रता संग्राम को बनाया जाना चाहिए था अनिवार्य विषय'
'स्वतंत्रता संग्राम को बनाया जाना चाहिए था अनिवार्य विषय'

Politalks.News/UrduLanguage. उर्दू को भाषा को अनिवार्य भाषा का ओहदा देने की मांग देश में अब और भी तेज हो गई है. रविवार को उर्दू पत्रकारिता के 200 साल पुरे होने पर आयोजित कार्यक्रम में भाग लेते हुए गुलाम नबी आजाद और देश के पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहीं न कहीं उर्दू भाषा को अनिवार्य ना बनाये जाने को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को जिम्मेदार माना. गुलाम नबी आज़ाद ने बुधवार को कहा कि 1947 में स्वतंत्रता संग्राम को सभी भाषाओं में अनिवार्य विषय नहीं बनाना ‘बड़ी गलती’ थी. सरकारें उर्दू अखबारों को इश्तिहार देना सरकारें मुनासिब नहीं समझती हैं.’ वहीं पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा कि, ‘जवाहरलाल नेहरू ने कई बार कहा कि उर्दू हमारी ज़बान है, बावजूद इसके वह बात नहीं हुई जो वह चाहते थे.’

बुधवार को 200 साल पुरे होने पर आयोजित कार्यक्रम में भाग लेते हुए कांग्रेस के दिग्गज नेता एवं जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आज़ाद ने कहा कि, ‘हमें हिंदुस्तान की आज़ादी के इतिहास को अनिवार्य विषय बनाना चाहिए था और इसे हर ज़बान में बनाना चाहिए था. अगर उस वक़्त ऐसा होता तो आज कोई भी एक शख्स दूसरे से यह नहीं पूछता कि तुम कौन हो? तुम यहां के हो या बाहर के हो? तुम्हारा इस मुल्क में क्या हिस्सा रहा है?’ आज़ाद ने कहा कि, ‘1947 में स्वतंत्रता संग्राम को सभी भाषाओं में अनिवार्य विषय नहीं बनाना ‘बड़ी गलती’ थी. इससे लोगों को एक दूसरे की देशभक्ति और देश के प्रति उनके योगदान पर सवाल उठाने का मौका मिला.’

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गुलाम नबी आजाद ने यह दावा किया कि देश में चाहे किसी भी सरकार रही लेकिन उन सरकारों ने कभी भी उर्दू अखबारों को इश्तिहार देना मुनासिब नहीं समझा. गुलाम नबी आजाद ने कहा कि, ‘मैं किसी एक सरकार को इसके लिए दोष नहीं दोता हूं. उर्दू को बढ़ावा देने और उर्दू अखबारों को इश्तिहार देने की बात आती है तो कोई सरकार, कोई पार्टी उसको आगे नहीं बढ़ाती है.’ आजाद ने कहा कि,’दूसरी भाषाओं की तुलना में उर्दू आहिस्ता-आहिस्ता अब देश में सिकुड़ती जा रही है. अंग्रेजी अपने शीर्ष पर है और वो अब घर-घर पहुंच गई है. अंग्रेज़ी में तालीम देना एक तरीके से जरूरी है, लेकिन इसकी वजह से उर्दू खत्म हो गई.’

जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि, ‘स्वतंत्रता संग्राम में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू बोलने वालों ने कुर्बानियां दी हैं, लेकिन लोगों को इसकी जानकारी नहीं है. 1947 में हमसे एक बड़ी गलती हुई. स्वतंत्रता संग्राम को अनिवार्य विषय बनाया जाना चाहिए था, लेकिन हमने अंग्रेजी और गणित को अनिवार्य विषय बनाया.’ वहीं कार्यक्रम में मौजूद पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा, ‘उर्दू पत्रकारिता के 200 साल के इतिहास में पिछले 75 साल के अलावा 125 साल गुलामी के दौर के थे. उस ज़माने में अखबार या कुछ कहना बहुत मुश्किल होता था.’

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अंसारी ने आगे कहा कि, ‘उर्दू अब सिर्फ हिंदुस्तान या उपमहाद्वीप की ज़बान नहीं है, बल्कि यह वैश्विक भाषा बन गई है. ऑस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक जितने मुल्क हैं, वहां उर्दू पढ़ी और पढ़ाई जा रही है. लेकिन आज हमारे अपने देश में एक अजीब सी सूरत पैदा हो गई है कि उर्दू पढ़ने वालों की तादाद कम होती जा रही है.’ वहीं ऑल इंडिया उर्दू एडिटर्स कॉन्फ्रेंस के प्रमुख और कांग्रेस नेता मीम अफज़ल ने कहा कि ‘आज़ादी के बाद कुछ लोगों ने जानबूझकर उर्दू को मुसलमानों की भाषा बना दिया. आज़ादी से पहले उर्दू के 415 अखबार थे और बंटवारे के बाद 70 अखबार पाकिस्तान चले गए. अगर देखा जाए तो उर्दू पत्रकारिता का 80 फीसदी वोट भारत के साथ और 20 फीसदी वोट पाकिस्तान के साथ था.’

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