Politalks.News/Rajasthan. साल 2016 में केंद्र सरकार ने उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया. मामला हाईकोर्ट पहुंचा, चीफ जस्टिस के. एम. जोसफ की बेंच ने पूरे मामले की सुनवाई की. फैसला दिया कि केंद्र सरकार की ओर से लगाया गया राष्ट्रपति शासन संविधान के नियमों के अनुरूप नहीं है. अपने फैसले में कड़ी टिप्पणी करते हुए जस्टिस जोसफ ने कहा कि राष्ट्रपति भी राजा नहीं होता और राज्यपाल केंद्र का एजेंट नहीं होता. इसके साथ ही जस्टिस जोसफ ने राष्ट्रपति के फैसले को पलटते हुए राष्ट्रपति शासन हटाने और हरीश रावत को बहुमत साबित करने के लिए कहा. यह भारत की आजादी के बाद कोर्ट द्वारा दिया गया ऐतिहासिक फैसला माना गया.
40 दिन तक संघर्ष किया था हरीश रावत ने
बात है, 27 मार्च 2016 की जब केंद्र सरकार ने उत्तराखंड में कांग्रेस की हरीश रावत सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया था. जबकि हरीश रावत के पास पूरा बहुमत था. अदालत में मामला चला. पहले हाईकोर्ट ने दो टूक शब्दों में कहा कि राष्ट्रपति शासन संविधान के नियमों के अनुरूप नहीं है. फिर हरीश रावत को बहुमत साबित करने के निर्देश दिए. केंद्र सरकार ने हाई कोर्ट के इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. 27 मार्च से शुरू हुआ मामला सुप्रीम कोर्ट के 10 मई को दिए फैसले के बाद जाकर समाप्त हुआ. यानि बहुमत होते हुए भी हरीश रावत को न्याय पाने में 40 दिन से अधिक लग गए.
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सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद हरीश रावत ने विधानसभा में विश्वास मत पेश किया. इस दौरान हुए मतदान को एक बंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट के पर्यवेक्षक को सौंपा गया. सुप्रीम कोर्ट ने इस बंद लिफाफे को खोला और परिणाम की घोषणा करते हुए हरीश रावत को 28 के मुकाबले 33 वोट से विजयी घोषित किया. पीठ ने रिकार्ड देखने के बाद कहा कि पूरी प्रक्रिया नियमित ढंग से हुई है. कोई अनियमितता नही हुई. हरीश रावत को 61 में से 33 मत मिले हैं. 9 विधायक अयोग्यता के चलते मतदान नहीं कर सके. यानि उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार बहाल हो गई और रावत अगले ही दिन 11 मई से एक बार फिर मुख्यमंत्री बन गए.
यह जस्टिस जोसेफ ही थे, जिन्होंने उत्तराखंड में केंद्र के राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले को खारिज कर हरीश रावत को फिर से मुख्यमंत्री बनने का रास्ता सुनिश्चित कर संविधान व्यवस्था को परिभाषित किया. न्यायाधीश जोसेफ और वीके बिष्ट की खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा था कि केंद्र की ओर से राज्य में धारा 356 का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट की ओर से निर्धारित नियम के खिलाफ किया गया है.
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अनुच्छेद 356 के तहत 27 मार्च को की गई घोषणा के लिए केंद्र से नाराजगी जताते हुए मुख्य न्यायाधीश के. एम. जोसेफ की अध्यक्षता वाली उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा कि राष्ट्रपति शासन लगाना उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून के विपरीत है. पीठ ने खुली अदालत में विस्तृत फैसले में इस मामले में संविधान के अनुच्छेद 356 को लागू करने पर कड़ी टिप्पणी की. पीठ ने कहा, ‘मामले का सार यह है कि क्या केंद्र सरकार को राज्य सरकारों से छुटकारा पाने की, लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी सरकार को हटाने या उखाड़ने की, अव्यवस्था फैलाने की और उस अदने से आदमी के विश्वास को नजरअंदाज करने की आजादी है जो बर्फ, गर्मी और बारिश को झेलते हुए मतदान के लिए एक सफेद पर्ची के साथ खड़ा होता है.’
यही नहीं अपने फैसले में न्यायाधीश जोसेफ ने केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाई थी. जोसेफ ने साफ कहा था कि राष्ट्रपति भी कोई राजा नहीं है. राष्ट्रपति ही नहीं जज भी गलती कर सकते हैं और इनके फैसलों को अदालत में चुनौती दी जा सकती है. मुख्य न्यायाधीश के एम जोसफ और न्यायमूर्ति वी के बिष्ट की पीठ ने कहा, ‘लोगों से गलती हो सकती है, चाहे वह राष्ट्रपति हों या न्यायाधीश.’ अदालत ने कहा कि ‘‘राष्ट्रपति के समक्ष रखे गए तथ्यों के आधार पर किए गए उनके निर्णय की न्यायिक समीक्षा हो सकती है.
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हमें हर बात भुलने की आदत है
केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार, राष्ट्रपति हो या राज्यपाल, संसद का स्पीकर हो या विधानसभा का, प्रधानमंत्री हो या मुख्यमंत्री, यह बात हम क्यूं भूल जाते हैं कि इनमें से कोई भी, ये ही नहीं बाकी सब भी, संविधान से बड़ा कोई नहीं है. तभी तो जस्टिस जोसफ ने कहा था, यह प्रजातंत्र है, यहां कोई राजा नहीं होता है. सबके कार्यों को चुनौती भी दी जा सकती है और समीक्षा भी की जा सकती है. प्रजातंत्र में सबको संवैधानिक कर्तव्यों और मूल्यों को बनाए रखने के लिए ही काम करना होता है. अगर कोई गलती से अपने आपको राजा समझ बैठता है तो फिर पांच साल में ही वो जनता के आगे बाकि तो आप समझदार हैं.