मोदी के विजयी रथ को रोकने में सफल हो पाएगी विपक्ष की एकता! सियासत में अब तक टिका नहीं ऐसा प्रयोग

ऐसा पहली बार नहीं है जब राष्ट्रीय स्तर पर किसी दल या यूं कहें कि सत्ताधारी सरकार के खिलाफ एक गठबंधन बनाने के प्रयास हो रहे हैं, ऐसे में माना जा रहा है कि अपनी पकड़ मजबूत होने के बावजूद बीजेपी को कहीं न कहीं विपक्षी एकता से सत्ता के खिसकने का डर तो सता ही रहा है...

Opposition Unity
Opposition Unity

Opposition Unity: बिहार की राजधानी पटना में बीते सप्ताह लोकसभा चुनाव 2024 में नरेन्द्र मोदी के विजयी रथ को रोकने के लिए विपक्षी दलों के दिग्गज जुटने की घटना ने सियासी गलियारों में हलचल मचा दी है. हालांकि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव प्रचंड बहुमत से जीत चुकी है. पिछले एक दशक में बीजेपी का ग्राफ कई राज्यों में जबरदस्त तरीके से बढ़ा है. ऐसे में विपक्ष की यह बैठक बहुत महत्वपूर्ण मानी जा रही है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अब पीएम मोदी सहित बीजेपी के अन्य नेता भी इस संबंध में भूले बिसरे जिक्र तो कर ही रहे हैं. ऐसे में माना जा रहा है कि अपनी पकड़ मजबूत होने के बावजूद बीजेपी को कहीं न कहीं विपक्षी एकता से सत्ता के खिसकने का डर तो सता ही रहा है.

वैसा देखा जाए तो ऐसा पहली बार नहीं है जब राष्ट्रीय स्तर पर किसी दल या यूं कहें कि सत्ताधारी सरकार के खिलाफ एक गठबंधन बनाने के प्रयास हो रहे हैं. 1980 के दशक के अंत से कई बार विभिन्न राज्यों के दलों ने नेशनल लेवल पर मजबूत पार्टी का मुकाबला करने के लिए हाथ मिलाया है. कई बार केंद्र की सियासत में हिस्सा पाने के लिए फ्रंट्स बनाए गए हैं, लेकिन इस बार का गठबंधन पिछले अन्य गठबंधनों से अलग इसलिए है क्योंकि इसमें कांग्रेस की भागीदार महत्वपूर्ण है. कांग्रेस भारतीय राजनीति के मुख्य स्तंभों में से एक रही है. इस बार गठबंधन में कांग्रेस के अलावा विभिन्न राज्यों के महत्वपूर्ण क्षेत्रीय दल एक साथ आने का प्रयास कर रहे हैं. इससे पहले 1970 के दशक में कांग्रेस के विरोध में इस तरह सियासी संगठन साथ आए थे. उन संगठनों में कांग्रेस से विद्रोह करने वाले क्षत्रप, जनसंघ के नेता और वामपंथी शामिल थे.

साल 1989 में हुए आम चुनावों को छोड़ दें तो ऐसे फ्रंट लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद सरकार गठन के लिए बने. जो फ्रंट चुनाव से पहले बने, वो ज्यादा समय तक सियासी धरातल पर ज्यादा वक्त तक टिक नहीं सके. साल 1989 में राजीव गांधी को सत्ता से बाहर करने के लिए बने नेशनल फ्रंट की शुरुआत सात पार्टियों के साथ आने के साथ शुरू हुई. कमोबेश यहीं से देश में राष्ट्रीय गठबंधन की शुरूआत कही जा सकती है. इनमें कांग्रेस से विद्रोह करने वाले वीपी सिंह का जन मोर्चा, जनता पार्टी, टीडीपी, लोकदल, डीएमके, कांग्रेस (एस) और असम गण परिषद् शामिल थे. यह एक अलग बात है कि वीपी सिंह के नेतृत्व वाली नेशनल फ्रंट सरकार को बीजेपी और लेफ्ट का समर्थन हासिल था. वीपी सिंह की सरकार बीजेपी द्वारा समर्थन वापस लेने से गिर गई और चंद्रशेखर के साथ ज्यादातर सांसदों के जाने की वजह से जनता दल को टूट का सामना करना पड़ा. इसके बाद चंद्रशेखर ने कांग्रेस के समर्थन से अगली सरकार बनाई लेकिन कांग्रेस के समर्थन वापसी के बाद उनकी अल्पमत की सरकार गिर गई.

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1990 और 2000 के दशक में कई फ्रंट्स और गठबंधनों को आकार लेते और बाद में खत्म होते देखा गया. तब चर्चा का विषय मुख्यतः थर्ड फ्रंट या तीसरा विकल्प था. इसके बाद चाहे 1996 में यूनाइटेड फ्रंट हो या साल 1998 से 2004 में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाला एनडीए हो या फिर 2004 से 2014 में कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए गठबंधन, ये सभी गठबंधन चुनाव परिणाम के बाद बने और इनमें लगातार दल शामिल होते रहे और हटते रहे. यूनाइटेड फ्रंट का गठन 13 पार्टियों द्वारा भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए किया गया था. इसे कांग्रेस और लेफ्ट ने बाहर से समर्थन दिया था लेकिन यह प्रयोग ज्यादा दिन तक नही चल सका. एचडी देवगौड़ा ने यूनाइटेड फ्रंट के मुखिया के तौर पर सरकार चलाई लेकिन उन कांग्रेस के समर्थन वापस लेने के बाद इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद इंद्र कुमार गुजराल पीएम बने लेकिन फिर कांग्रेस ने उनकी सरकार गिरा दी.

भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाला एनडीए सबसे बड़ा गठबंधन था, जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी ने कई क्षेत्रीय दलों को कुशलतापूर्वक मैनेज किया और राम मंदिर, अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता जैसे भाजपा के मुख्य एजेंडे को किनारे रखने पर सहमति व्यक्त की. इस गठबंधन में सपा, बसपा, राजद और लेफ्ट को छोड़कर ज्यादातर क्षेत्रीय दल 1988 से लेकर 2004 तक कभी न कभी हिस्सा बने. यूपीए का गठन भी 2004 चुनाव परिणाम के बाद भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए किया गया. लेफ्ट ने 2004 में अपना सबसे अच्छा प्रदर्शन किया और भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन दिया.

यूपीए की पहली सरकार के दौरान सपा के मुलायम सिंह यादव, टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू, एआईएडीएमके की जयललिता, आईएनएलडी के ओमप्रकाश चौटाला और जेवीएम के बाबू लाल मरांडी द्वारा थर्ड फ्रंट बनाने की कोशिश की गई लेकिन मुलायम सिंह के हटने और जयललिता एवं सपा के कुछ मुद्दों पर अन्य पार्टियों को समर्थन देने के बाद यह प्रयोग दम तोड़ने लगा। इसके बाद लेफ्ट इस फ्रंट में मायावती को लेकर आया लेकिन यह प्रयोग आगे न बढ़ सका और साल 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए ने शानदार वापसी की.

मोदी लहर के विपरीत साल 2014 के आम चुनाव से पहले भी 11 दलों ने थर्ड फ्रंट बनाने की कोशिश की. इसमें 7 क्षेत्रीय दल और 4 वामपंथी दल शामिल थे. इस फ्रंट का कोई औपचारिक नाम नहीं था. हालांकि 2014 में मोदी लहर में एनडीए के विपक्ष में ज्यादातर दलों को भारी निराशा का सामना करना पड़ा. साल 2018 में भी ऐसे प्रयास हुए लेकिन फ्रंट शेप नहीं ले सका. अब बिहार के पटना में कांग्रेस सहित देशभर के क्षेत्रीय दलों का बीजेपी और पीएम मोदी के विरोध में जुटना महत्वपूर्ण माना जा रहा है. खास बात यह है कि विपक्षी एकता की इस बैठक में जो भी दल पटना पहुंचे, उनकी अपने राज्यों में मजबूत पकड़ है. इन स्थानीय पार्टियों में बंगाल की टीएमसी, बिहार की राजद और जदयू, दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी, महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना यूबीटी, तमिलनाडू में डीएमके, झारखंड में जेएमएम और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी शामिल हैं.

अब भारतीय राजनीति के इतिहास पर एक नजर डालें तो ये प्रयोग सफल होते नहीं दिख रहा है लेकिन इन सभी पार्टियों का लक्ष्य मोदी या भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बेदखल करना है. बाहरी स्तर पर तो ये विपक्ष काफी कमजोर दिख रहा है लेकिन अगर अंदरूनी तौर पर देखा जाए तो यहां कहानी कुछ अलग है. अगर ये सभी 13 से अधिक दल एक होकर आम चुनाव लड़ते हैं तो निश्चित तौर पर एक बार तो सत्ताधारी पार्टी को सत्ता से बेदखल करने का माद्दा रखते हैं. अभी करीब 5 दलों ने किसी भी पक्ष को अपना समर्थन नहीं दिया है जिनकी सदन में संख्या करीब 72 है. अगर ये भी इस दल में शामिल होते हैं तो सत्ताधारी मोदी सरकार को कुछ समय के लिए ही सही लेकिन हार का स्वाद तो चखा ही देंगे.

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