Politalks.News/Rajasthan. प्रदेश के पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट खेमे की ओर से हाल ही में कोटखावदा में आयोजित हुई किसान महापंचायत को लेकर सोशल मीडिया पर कई तरह की बयानबाजी देखने को मिल रही हैं. देश के जाने-माने पत्रकार और हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति ओम थानवी ने भी इस बारे में एक ट्वीट किया. प्रदेश के कई मीडिया संस्थानों ने इसे अप्रत्याशित बताया. थानवी ने मीडिया के इस व्यवहार पर फेसबुक पर तीखी टिप्पणी लिखी है –
टीवी की तरह डिज़िटल पत्रकारिता का भी कोई मयार नहीं. बिना जांच-पड़ताल कुछ भी लिखा जा सकता है. पत्रकार बिरादरी में मेरे एक विचार (ट्विटर टिप्पणी) को भी सुरसुरी बना दिया गया है. मानो कोई गुनाह घटित हो गया हो! किसी पत्रकार ने एक दैनिक के डिज़िटल संस्करण में लिखा है कि प्रदेश में पहली बार किसी कुलपति ने “विवादित सियासी बयान” दे दिया है. पत्रकार के मुताबिक़, इसे “असामान्य” घटना माना जा रहा है. “भाजपा नेता (भी) इस पर मुद्दे पर आपत्ति जताएंगे, (;) इस पर सियासी विवाद तय माना जा रहा है.”
पत्रकारों के बीच ऐसी ख़बरों को Kite Flying (पतंगबाज़ी) कहा जाता है. इसीलिए पत्रकारिता में मैं पेशेवर शिक्षा को ज़रूरी मानता हूं. कम-से-कम पत्रकारों को (क्योंकि वे अभिव्यक्ति के पहरुए हैं) ज़रूर मालूम होना चाहिए कि भले विश्वविद्यालय (शासन के मार्फ़त) जनता के पैसे से चलें, वे स्वायत्त होते हैं. उनके अपने नियम और क़ायदे होते हैं तथा उनके कुलपति और शिक्षकों पर अपनी निजी सामाजिक या राजनीतिक राय सार्वजनिक स्तर पर व्यक्त करने पर कोई प्रतिबंध नहीं होता. राजस्थान में भी नहीं है. पत्रकारों को सदा अभिव्यक्ति के हक़ में खड़े होना चाहिए.
बहरहाल, मैंने कहा क्या था? एनडीटीवी पर एक ख़बर आई कि प्रदेश में किसानों के समर्थन में राहुल गांधी की सभाओं के बाद असंतुष्ट नेता सचिन पायलट और उनके सोलह विधायकों ने एक विशाल सभा और आयोजित की जिसमें मुख्यमंत्री समर्थक शामिल नहीं हुए. एक रोज़ बाद कांग्रेस पार्टी ने जयपुर में विशाल सभा की, जिसमें पायलट के वफ़ादार विधायक नहीं गए. इससे संदेश गया कि प्रदेश की राजनीति में गतिरोध क़ायम है.
इस ख़बर पर मैंने अपनी निजी राय ट्वीट की (पहले सैकड़ों बार कर चुका हूं, कुलपति होने के बाद भी) कि ऐसे मुद्दों पर विशाल सभाएं पार्टी ही आयोजित किया करती है, अलग-अलग नेता नहीं. किसानों की आड़ में (नाम नहीं लिखा पर आशय यही था कि पायलट और उनके समर्थकों ने) उसी बेचैन और बेसब्र महत्त्वाकांक्षा का प्रदर्शन किया है.
इसमें ग़लत और ‘पहली बार’ क्या है? सचिन गुट के मानेसर में गोलबंद होने पर भी मैंने अपनी राय व्यक्त की थी कि एक पार्टी अध्यक्ष का इस तरह पार्टी के विरोध में उठ खड़े होना और इसके समांतर भाजपा के नेताओं और वकीलों आदि का सक्रिय हो जाना लोकतंत्र में अशोभन घटना है. मैं प्रदेश, देश और विदेश की घटनाओं पर जब-तब समय मिलने पर सदा ट्वीट करता आया हूं. एडिटर्स गिल्ड का आजीवन सदस्य हूं और संविधान-प्रदत्त अभिव्यक्ति को अपना परम हक़ और दायित्व मानता हूं.
अशोकजी से मेरा संबंध लोगों को पता है; पर शायद कम लोगों को पता हो कि सचिन के पिता राजेश पायलट से भी मेरे अच्छे रिश्ते थे. राजस्थान पत्रिका के लिए 1984 में दौसा का उनका और नाथूसिंह का मुक़ाबला मैंने बाइक पर कवर किया था. फिर दिल्ली में पत्रकारों के लिए रमाजी और आगे सचिन द्वारा नियमित रूप से आयोजित किए जाने वाले देसी भोज पर भी बुलाया और जाता रहा. मगर सचिन का बर्ताव तब उदासीन पाया जब राजस्थान सरकार के बुलावे पर विश्वविद्यालय संभाला. 32 साल बाद अपने प्रदेश लौटा था, उन्हें ख़ुश होना चाहिए था. जो हो.
सचिन को मैंने तभी नहीं, बग़ावत के वक़्त भी अधीर और बेचैन पाया. राजस्थानी में कहावत है कि ठार-ठार कर यानी ठंडा कर-कर खाना चाहिए. दूसरे शब्दों में, धैर्य बड़ी चीज़ है. उनके सामने लम्बा प्रशस्त भविष्य था. उन्होंने पार्टी के नहीं, अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारी. निजी महत्त्वाकांक्षा की बेचैनी में उन्होंने राजनीति में ही नहीं, पत्रकारिता में भी गुटबाज़ी खड़ी कर दी है. कुछ पत्रकार मित्रों का जयपुर आने के बाद पनपा विराग मैं अब तक समझने की कोशिश कर रहा हूं. वह सिर्फ़ राग-द्वेष का मामला नहीं हो सकता.
उक्त डिज़िटल ‘ख़बर’ में यह भी लिखा गया है कि “थानवी की नियुक्ति को लेकर नेता-प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया सहित कई भाजपा नेता पहले भी सवाल उठाते रहे हैं …”. भाजपा नेता मेरे विरुद्ध हों, इसमें किसे आपत्ति होगी. पर संयोग से प्रदेश में ऐसा कोई मौक़ा अब तक पड़ा नहीं है. कटारियाजी को अस्सी से जानता हूं, अन्य नेताओं को भी. पत्रकार के नाते हर पार्टी के नेताओं से मिलना-जुलना रहा है.
कटारियाजी ने विधानसभा में जो बोला, उसकी ख़बर एक अन्य स्थानीय अख़बार में यों छपी मानो पत्रकारिता विश्वविद्यालय के ख़िलाफ़ कुछ चर्चा सदन में हुई हो. जबकि विधानसभा में अन्य विश्वविद्यालयों के साथ एचजेयू के बारे में भी केवल तथ्यात्मक जानकारी माँगी और दी गई थी. बाक़ी कटारियाजी ने अम्बेडकर विधि विश्वविद्यालय के मामले में टीका की थी, जिसका ज़ाहिर आशय यह था कि सरकार ने ओम थानवी की नियुक्ति के वक़्त तो कह दिया था कि बड़े पत्रकार हैं (‘बड़े’ शब्द अख़बार में छपा है; मैं बड़ा नहीं), पर अम्बेडकर विधि विश्वविद्यालय में नियुक्त कुलपति तो वकील नहीं हैं. हालांकि मैं इस राय से सहमत नहीं; अम्बेडकर विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ देव स्वरूप राजस्थान विश्वविद्यालय को भी नेतृत्व दे चुके हैं और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के वरिष्ठ प्रशासक रहे हैं.
अब लौटें अभिव्यक्ति की स्वाधीनता पर. एक बार प्रगतिशील लेखक संघ के मंच पर मैंने कहा था कि सोशल या अन्य मीडिया में मेरे द्वारा राजनीतिक राय व्यक्त करने पर, टिप्पणी करने पर हैरान हुआ जा सकता है. पर ख़याल रखें, विश्वविद्यालय स्वायत्त होते हैं और मैं (तो) पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कुलपति हूं: मैं बोलना सिखाता हूं, चुप रहना नहीं.
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, ज़ुबां अब तक तेरी है.
अर्थात् दे और दिल उनको जो न दें मुझको ज़ुबां और!
(हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति ओम थानवी की फेसबुक वॉल से साभार)