बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव के बाद एक ही सत्ताकाल में ऐसा तीसरी बार है जब सरकार की ढुलमुल परिस्थतियां बन रही है. एक ही शासनकाल में सरकारें कई बार बदलीं, कभी जदयू-बीजेपी की संयुक्त सरकार तो कभी राजद-जदयू-कांग्रेस गठबंधन वाली सरकार. नहीं बदला कुछ तो वो है दो बातें. पहली – प्रदेश का मुख्यमंत्री जो नीतीश कुमार हैं. दूसरा – प्रदेश की वर्तमान परिस्थितियां, जो वैसे के वैसे हैं. नीतीश कुमार का पार्टी विधायकों को पटना बुलाना, मंत्रणा करना और आज गणतंत्र दिवस समारोह में नीतीश और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव का आपस में नजरें टकराने के बावजूद अभिवादन तक न होना संकेत दे रहा है कि अब बिहार की सियासत में फिर से ज्वार उठने लगा है. इंतजार है तो बस ज्वालामुखी फटने का, जो दोपहर तक होने की आशंका है. नीतीश दोपहर को राज्यपाल से मिलने वाले हैं. माना जा रहा है कि सियासत का एक नया अध्याय बिहार में फिर से जुड़ने जा रहा है.
राजनीतिक हलकों में संभावना जताई जा रही है कि नीतीश कुमार ने एक बार फिर पासा पलटते हुए बीजेपी के साथ जाने का मन बना लिया है. राम मंदिर उद्घाटन के बाद राममयी हुए माहौल के बीच आगामी लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार और जदयू को इसका फायदा मिलना निश्चित है. पिछले एक साल से नीतीश महागठबंधन की बीन बजा रहे थे. सभी विपक्षी दलों को एक झंडे के नीचे लाने का काम कर रहे थे. काफी हद तक सफल भी हुए लेकिन उनका दो तरफा खेल उस वक्त बिगड़ गया जब विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ का राष्ट्रीय संयोजक बनने पर उनके नाम की सहमति नहीं बन पायी.
उस माहौल में उनकी पार्टी जदयू के आला नेताओं ने उन्हें प्रधानमंत्री मेटेरियल दर्शाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. सरकार में रहकर सहयोगी पार्टी पर कटाक्ष कसे, आरोप गढ़े और हर तरह से अपने लीडर के सिर पर ‘सुशासन बाबू’ की गरिमामयी पाग बांधने की हर संभव कोशिश की. यहां तक की दक्षिण के सबसे बड़े राजनेता स्टालीन के जरिए गठबंधन का संयोजक बनाने के लिए नाम भी आगे रखवाया लेकिन यहां उनकी चली नहीं. बंगाल की दीदी ममता बनर्जी ने उनका प्लान फेल कर दिया और मल्लिकार्जुन का नाम सामने रख उनकी चाल को बेकार कर दिया.
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अपना खेल फेल होते देख नीतीश ने भी ‘इंडिया’ के पंच के नीचे बिझाई अपनी जाज़म खींच ली जिसमें कांग्रेस के सभी नेता उलझ कर रह गए. बंगाल सीएम ममता बनर्जी ने गठबंधन को बाय बाय कहा, उसके बाद अरविंद केजरीवाल ने. इन दोनों के बिना दिल्ली, पंजाब और बंगाल फतह कर पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. मायावती और अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में पहले ही कांग्रेस को बॉयकॉट किया हुआ है. गठबंधन को कमजोर देख दक्षिण के नेता भी अब अपने पांव पीछे खींचने लगे हैं. कुल मिलाकर ‘सुशासन बाबू’ का सुशासन से खड़ा किया गठबंधन किला अब ढहने के कगार पर है.
अब नीतीश बिहार में अपना गढ़ बचाने की कवायत में जुट गए हैं. यहां उन्होंने अपने सपनों को उजड़ता देख सत्ताधारी सहयोगी पार्टियों को घुटने पर लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. असल में यह गुस्सा राजद पर न होकर कांग्रेस पर ज्यादा है लेकिन गेहूं के साथ घुन तो पिसता ही है. ऐसे में राजद का सत्ता में शामिल होना भी भारी हो रहा है. नीतीश ने फिर से पलटी मार अपने पुराने सहयोगी बीजेपी से हाथ मिला लिया है ताकि राजद और कांग्रेस को पटका जा सके. इसकी शुरुआत तब हुई, जब जननायक कर्पूरी ठाकुर की 100वीं जयंती पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने परिवारवाद पर हमला बोला था. इसके बाद राजद सुप्रीमो लालू यादव की बेटी रोहिणी आचार्य ने एक के बाद एक सोशल प्लेटफार्म पर तीन पोस्ट किए. उन्होंने नीतीश का नाम लिए बिना तंज कसा. हालांकि, हंगामा मचने पर उन्होंने पोस्ट डिलीट कर दिए. लेकिन अब काफी देर हो चुकी है.
बिहार में सत्ता परिवर्तन के संकेत तभी से मिलने शुरु हो गए थे, जब नीतीश ने हाल में राज्यपाल से मुलाकात की थी. हालांकि उस मुलाकात को स्वभाविक बताया गया लेकिन शायद वहां परिवर्तन की गाथा ही लिखी गयी थी. बात बनने से पहले बिगड़ने के डर से राज्य के वित्त मंत्री और जदयू नेता विजय चौधरी और केसी त्यागी बिहार के राजनीतिक हालातों पर अभी भी चुप्पी साधे बैठे हैं लेकिन कुछ घंटों के इंतजार के बाद स्थिति स्पष्ट हो जाएंगी. एक ही साल में तीन बार सत्ता परिवर्तन और ‘पलटू सरकार’ का टैग लिए नीतीश कुमार क्या सच में एक पीएम मेटेरियल हो सकते हैं. इस बात का पता बिहार तो क्या, देश की जनता को भी भली भांति समझ आ गया होगा. ऐसा व्यक्तित्व अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए देश को बेच देगा, इसमें तो संशय ही क्या रह जाता है.