कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस की गठबंधन सरकार बिखरती नजर आ रही है. कर्नाटक में सियासी रंग जिस तरह से बदल रहा है, उससे लगता तो यही है कि संकट के बादल कभी भी सरकार को घेर सकते हैं. यहां गठबंधन सरकार को एक साल भी पूरा नहीं हुआ है और इसके गिरने की नौबत आ खड़ी हुई है. हालांकि 2018 में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणामों के बाद से ही यहां सियासी ड्रामा शुरू हो गया था.
कर्नाटक में कुल 224 विधानसभा सीटें हैं. बहुमत के लिए चाहिए 113 विधायक. विधानसभा चुनावों में बीजेपी को 104 सीटों पर जीत मिली थी और समर्थन के लिए केवल 9 विधायकों की दरकार थी. वहीं कांग्रेस के पास 80 और जेडीएस के पास 38 विधायक थे, 2 सीटें अन्य पार्टियों के हिस्से आई थी. कर्नाटक के राज्यपाल ने विरोध के बावजूद बीजेपी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था. विरोध और बढ़ते हाई प्रेशर सियासी ड्रामे के बीच राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत खुद कांग्रेसी नेताओं के साथ धरने पर बैठ गए थे. हालांकि बीजेपी समर्थन के अभाव में सरकार बनाने से चूक गई और कुमार स्वामी के नेतृत्व में जेडीएस-कांग्रेस की मिली जुली सरकार बनी.
इस गठबंधन सरकार के पिछले एक साल में जेडीएस के नेताओं और पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के बीच सियासी ड्रामा चलता रहा है. महीना खत्म न होता और कुछ न कुछ ऐसा हो जाता कि जेडीएस और कांग्रेसी नेताओं में रार पड़ जाती. इस पर न तो कुमार स्वामी कुछ बोल पाये न ही सिद्धारमैया और न ही कांग्रेस आलाकमान ने इसको गम्भीरता से लिया, ऐसा चलता रहा रार बढ़ती गई और अब आने वाला परिणाम सबके सामने है.
वर्तमान में जेडीएस और कांग्रेस के सामने वही स्थिति आ खड़ी हुई है जैसी दोनों पार्टियों ने मिलकर बीजेपी के सामने खड़ी की थी. विधानसभा चुनावों के परिणाम के बाद बीजेपी ने 9 विधायकों को अपनी ओर मिलाने की अथाह कोशिश की लेकिन दोनों पार्टियों ने अपने विधायकों की ऐसी घेराबंदी की कि बीजेपी लाख हाथ-पैर मारने के बाद भी इस गठबंधन के 9 विधायक नहीं निकाल पाई. तब बीजेपी ने यह मान लिया कि अभी समय उपयुक्त नहीं है.
समय बीतता गया और जेडीएस-कांग्रेस के बीच रार बढ़ती गई. कांग्रेस नेता सिद्धारमैया खुद इस तपती आग में घी डालने का काम कर रहे थे. अंदरूनी सूत्रों से खबर लगातार जोर पकड़ी रही कि सिद्धारमैया कई कांग्रेसी नेताओं को पद का लालच देकर इस बात के लिए उकसा रहे हैं कि वह आलाकमान से उन्हें सीएम पद नियुक्त कराने पर जोर डालें. हाल ही में इस्तीफा दिए कुछ विधायकों के फिर यही मांग करने पर यह बात पूरी तरह से साबित भी हो जाती है लेकिन आलाकमान के दखल न देने से यह बात बिगड़ती गई और विचारों के बीच खाई और गहरी होती गई. ताज्जुब की बात तो यह रही कि गठबंधन सरकार में पड़ रही इस गहरी खाई को पाटने की कोशिश न तो सीएम और जेडीएस प्रमुख कुमार स्वामी ने की और न ही कांग्रेस आलाकमान ने.
गठबंधन सरकार में बढ़ती इस रार का भरपूर फायदा बीजेपी के चाणक्य अमित शाह के शातिर दिमाग ने उठाया. उन्होंने कांग्रेसी विधायकों को यह भरोसा दिला ही दिया कि इस गठबंधन सरकार में उनका कोई भला नहीं हो सकता. यही वजह रही कि पहले दो और बाद में 14 विधायकों ने एक साथ इस्तीफा देकर सरकार का साथ छोड़ दिया. इनमें 13 विधायक कांग्रेस और 3 जेडीएस के हैं. एक विधायक को पार्टी ने निष्कासित कर दिया था.
अब यह गठबंधन सरकार पूरी तरह डूबती हुई नजर आ रही है. अगर मौजूदा इस्तीफाधारक विधायकों ने अपना त्यागपत्र वापिस नहीं लिया तो सरकार गिरेगी, यह पक्का है. उसके बाद शुरू होगा बीजेपी का ऑपरेशन लोटस जो प्रदेश में पहले भी एक बार चल चुका है.
ऑपरेशन लोटस के जरिए बीजेपी 2008 में भी कर्नाटक में सरकार बनाने में सफल रही थी. उस समय बीजेपी 224 में से 110 सीटें जीतकर आई थी. बहुमत के आंकड़े को छूने के लिए बीजेपी ने ऑपरेशन लोटस का इस्तेमाल किया था. इसके तहत कांग्रेस और जेडीएस के 8 विधायकों ने व्यक्तिगत कारणों का हवाला देते हुए विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था. इन सभी नेताओं को बीजेपी ने अपने चुनाव चिन्ह पर विधानसभा उपचुनाव लड़ाया, जिसमें से 5 बीजेपी से जीतकर आए. बीजेपी का बहुमत साबित हो गया था और राज्य में बीजेपी की 5 साल की सरकार आसानी से बन गई. वैसा ही कुछ होता हुआ इस बार भी नजर आ रहा है.
बहुमत के लिए बीजेपी को केवल 9 विधायकों की दरकार है. उनके पास 16 ऐसे विधायक हैं जो जेडीएस या कांग्रेस से इस्तीफा दे चुके हैं. बीजेपी इन सभी पर दांव खेलेगी और इनमें से आधे भी जीतकर आते हैं तो बीजेपी सरकार बनाने के साथ ही सदन की मुख्य पार्टी बनकर बैठेगी.