पॉलिटॉक्स न्यूज. एक सीधा-सादा लड़का. फोटोग्राफी का शौकीन. राजनीति में तनिक भी दिलचस्पी नहीं. अपने पिता की कट्टर और पॉपुलर छवि से बहुत दूर मराठी समाचार दैनिक हिंदू में बतौर पत्रकार काम करने वाले उद्धव ठाकरे की किस्मत उन्हें राजनीति या यूं कहें उससे भी कहीं आगे ले जाएगी, ये शायद खुद उद्धव ठाकरे ने भी नहीं सोचा होगा. वैसे तो उद्धव राजनीति में पर्दे के पीछे से काफी सक्रिय रहे लेकिन साल 2019 उनके लिए बेहद खास रहा. जैसे ही उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली, इस फैसले ने उनकी 6 दशकों की छवि को केवल 8 महीने में बदलकर रख दिया. हालांकि उनके ऐसा करने के पीछे उनकी पत्नी रश्मि ठाकरे और उनके सुपुत्र आदित्य ठाकरे का खास रोल रहा. आज उद्धव अपना 60वां जन्मदिन मना रहे हैं. ऐसे में आइए जानते हैं उनके जीवन से जुड़ी कुछ खास बातों के बारे में…
उद्धव ठाकरे हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी शिवसेना के प्रमुख और पार्टी के संस्थापक बाल ठाकरे के बेटे हैं. बाबा साहेब के राजनीति से संन्यास लेने के बाद से शिवसेना की बागड़ौर उद्धव ठाकरे के हाथों में आई. हालांकि इससे पहले बाला ठाकरे के उत्तराधिकारी के तौर पर बाला साहेब ठाकरे के भतीजे और उनके भाई श्रीकांत के पुत्र राज ठाकरे को माना जाता था. राज ठाकरे की कट्टर हिंदूत्व वाली छवि और कार्यशैली एकदम बाबा साहेब जैसी ही थी. पार्टी की स्टूडेंट विंग भारतीय विद्यार्थी सेना की कमान उन्हीं के हाथों में थी.
राज बचपन से ही चाचा बाल ठाकरे के चहेते थे. ठाकरे बचपन से ही राज को अपने साथ राजनैतिक रैलियों में ले जाने लगे थे. तो उनके सारे गुण भी राज में आ गए थे. चाल-ढाल हो, भाषण देना हो या गुस्सा. सब डिट्टो. यहां तक की वो बाल ठाकरे की तरह गजब के कार्टूनिस्ट भी बन गए थे. सब राज को ही शिवसेना का भविष्य मान के चल रहे थे.
उसके उलट उद्धव ठाकरे सभी हिल मिलकर रहने वाले सॉफ्ट छवि के नेता रहे. युवा अवस्था में उद्धव ठाकरे एक फोटोग्राफर बनना चाहते थे और यही उन्होंने करियर भी चुनाव. मराठी समाचार दैनिक हिंदू में भी उन्होंने फोटो पत्रकार के तौर पर नौकरी की. उनकी राजनीतिक करियर की शुरुआत हुई 1994 में. इससे पहले उद्धव शिवसेना के अखबार सामना का काम देखते थे. बाल ठाकरे की सेहत खराब हुई तो उद्धव राजनीति में एक्टिव हुए और पार्टी का कामकाज देखने लगे.
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मां के कहने पर रखा राजनीति में कदम
उद्धव की मां मीना ताई की इच्छा थी कि उद्धव कम से कम बाला साहेब का साथ दे. उन्होंने ही उद्धव को पार्टी के कार्यक्रमों में जाने के लिए तैयार किया और वे इसे मना नहीं कर सके. 1995 में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव का माहौल बना हुआ था. राज के नेतृत्व में भारतीय विद्यार्थी सेना ने नागपुर में एक मोर्चा निकाला था जिसमें उद्धव भी पहुंचे लेकिन एकदम शांति से. लोगों को तब नहीं पता होगा कि ये किस तूफान से पहले की शांति थी.
ये भी बता दें कि 1990 के दशक में शिवसेना आक्रामक, भड़कीले और कट्टर हिंदुत्व की छवि वाले राजनीतिक संगठन के तौर पर जानी जाती थी. राम मंदिर आंदोलन के दौरान कारसेवा से लेकर बाबरी विध्वंस में शिवसेना प्रमुख भूमिका में रही. 1991 में पाकिस्तान और भारत के मैच को रोकने के लिए मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम की पिच खोद देने वाली शिवसेना पिछले कुछ सालों में अपनी हिंसक छवि से अलग रुख अख्तियार कर चुकी है. इसका बड़ा श्रेय उद्धव ठाकरे को ही जाता है.
1995 में सरकार बन ही चुकी थी. उद्धव को भी समझ आ गया कि पार्टी में जमने का यही सही वक्त है. फिर धीरे-धीरे वह पार्टी के अंदरूनी कामों में अपनी पकड़ बनाने लगे. शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे भी तमाम कार्यकर्ताओं को उनके कामों के लिए उद्धव के पास भेजने लगे. फिर कार्यकर्ताओं ने भी उद्धव को अपने कार्यकर्मों में बुलाना शुरू कर दिया. मगर उद्धव की तरफ से पहला दांव चला गया 1997 के बीएमसी चुनाव में. तमाम टिकटें उद्धव के मन के बांटे गए और यहीं से बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी का सपना देख रहे राज ठाकरे की जमीन खिसकनी शुरू हो गई. उनके कई लोगों के टिकट काट दिए गए. इस पर राज इतना नाराज हुए कि मीडिया को दिए एक इंटरव्यू में ही बोल दिया कि हां, मैं नाराज हूं.
ये खबर बाल ठाकरे के पास पहुंची तो वो नाराज हुए. उन्होंने राज को फटकार लगाई. शिवसेना बीएमसी चुनाव जीत गई. उद्धव का झामा हो गया. वो अब और तेजी से पार्टी से जुड़े निर्णय लेने लगे. ये देख राज ठाकरे समेत सभी शिवसैनिकों को समझ आने लगा था कि उद्धव ही अगले नेता हैं. 2002 के बीएमसी चुनाव ने इस पर फिर मुहर लगा दी. इस बार टिकट बंटवारे पर पूरी तरह से उद्धव की चली थी और राज ठाकरे के लोगों के फिर एक बार टिकट कटे. शिवसेना एक बार फिर चुनाव जीती जिससे राज और नाराज हुए. अब उद्धव का किरदार वो नहीं रहा जो पहले हुआ करता था. जो नेता या करीबी पहले कभी भी मुंह उठाके बाल ठाकरे से मिल लेते थे, अब उद्धव के चाहने पर ही कोई बाल ठाकरे से मिल पाता था. इस बात से पूर्व सीएम नारायन राणे समेत कई वो नेता नाराज थे. इसका परिणाम ये निकला कि पार्टी के अंदर और भी कई खेमे बन गए.
राज ठाकरे ने अध्यक्ष पद के लिए आगे किया उद्धव का नाम
2003 में महाबलेश्वर में पार्टी का अधिवेशन हुआ. यहां ये तय होना था कि पार्टी का अगला अध्यक्ष कौन. बैठक शुरू हुई एक प्रस्ताव आगे बढ़ाया गया. उद्धव ठाकरे के नाम का प्रस्ताव. ये प्रस्ताव लाए थे राज ठाकरे. जी हां, वही राज ठाकरे जो खुद इस पद के सबसे बड़े दावेदार माने जाते थे. जनता चौंक गई कि ये कैसे हो गया, पर हुआ तो हुआ. उद्धव ठाकरे के नाम पर सर्वसम्मति से मुहर लग गई और उद्धव शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष बन गए. शिवसेना कार्यकर्ताओं के मन में सबसे बड़ा सवाल ये था कि राज ने कैसे उद्धव का नाम आगे बढ़ा दिया तो इसका जवाब ये है कि उन्हें पता था कि बाल ठाकरे के मन में उद्धव का ही नाम है. सो उन्हें लगा कि इस कदम से शायद उनके और उद्धव के बीच झगड़ा कुछ कम हो, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ. हालांकि बाद में एक इंटरव्यू में राज ने बोला भी था कि ये मेरी जिंदगी का सबसे खराब फैसला था.
2004 के विधानसभा चुनाव में राज की इस गलती के नतीजे दिखने भी लगे. इस बार विधायकी के टिकट भी उद्धव बांट रहे थे. शिवसेना चुनाव भी हार गई. यही कारण बना शिवसेना में पहली फूट का. उद्धव के सामने पहली चुनौती भी तभी आई. 2005 में पार्टी के कद्दावर नेता नारायण राणे ने पार्टी छोड़ दी. ऐसे-वैसे नहीं, वे 12 विधायक लेकर चले गए कांग्रेस में. इन सीटों में फिर चुनाव हुए और इन 12 में से 9 जीतकर फिर से विधानसभा पहुंच गए.
ये सब चल ही रहा था कि एक और बवंडर आ गया. 2006 में राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़ दी. राज के पार्टी छोड़ते ही बाल ठाकरे के मन में राज के लिए खटास आ गई थी. इसके बाद ही उन्होंने उद्धव को आगे बढ़ाना शुरू किया. राज ठाकरे के जाने और तमाम तमाम चुनौतियों के बावजूद शिवसेना ने चुनाव जीत लिए. 2007 में हुए बीएमसी के चुनाव और उद्धव की फिर जय-जय हो गई. सबको ऐसा लगने लगा कि राज ठाकरे खत्म हो जाएंगे. मगर 2008 में राज ने यूपी वर्सेज मराठी का आंदोलन छेड़कर अपनी दुकान चला ली.
2009 में आया शिवसेना और उद्धव का सबसे बुरा दौर
2009 के विधानसभा चुनाव में राज की पार्टी मनसे ने 13 सीटें जीत लीं. शिवसेना के हाथ केवल 45 सीटें आई जो इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन किया. यहां तक की शिवसेना ने नेता विपक्ष का पद भी खो दिया. ये पद मिला बीजेपी को, जिसके हाथ शिवसेना से एक सीट ज्यादा आई थी. ये उद्धव का सबसे खराब पीरियड चल रहा था. उनके हार्ट का ऑपरेशन हुआ. 2012 में जब बाल ठाकरे का निधन हुआ तो लगा कि उद्धव के लिए अब आगे की राह आसान नहीं है. इस दुखभरे माहौल में ये भी लगा कि राज ठाकरे एक बार फिर पार्टी में लौटेंगे और परिवार एवं ढूबती पार्टी का सहारा बनेंगे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
2013 का अंत आते-आते देश मोदीमय हो गया. उद्धव ने भी हवा का रुख भांप लिया. उन्होंने भी स्टैंड एंड सी की पॉलिसी अपनाई और बीजेपी के साथ दोस्ती के राग अलापे. 2014 के लोकसभा चुनाव में इसका फायदा भी मिला. शिवसेना अपने इतिहास में सबसे ज्यादा सीटें 19 जीतकर लोकभा में आई. अब बीजेपी महाराष्ट्र में अब बड़े भाई की भूमिका में आ गई. इसका परिणाम ये हुआ कि शिवसेना के हाथ केंद्र में केवल एक मंत्री आया. ये खटास 2014 में तब और बढ़ गई जब बीजेपी और शिवसेना ने विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़े. परिणाम आया तो चुनाव रिजल्ट आया तो बीजेपी के हाथ 122 तो शिवसेना के हाथ 63 सीटें आईं. बहुमत नाम की मिठाई ने दोनों दलों की फिर दोस्ती करवा दी. सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन 2019 में हुए विधानसभा चुनावों ने सब कुछ तहस नहस कर दिया.
2019 के महाराष्ट्र चुनाव बीजेपी और शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी के खिलाफ एकजुट होकर लड़ा. दोनों पार्टियों को बहुमत भी मिल गया. बीजेपी को 105, एनसीपी को 54, शिवसेना को 56 और कांग्रेस को 44 सीटें मिली. राज ठाकरे की मनसे को एक सीट से संतोष करना पड़ा. यहां एक इतिहास और भी रचा गया जब आदित्य ठाकरे ‘ठाकरे परिवार’ के पहले मेंबर बने जिन्होंने किसी भी चुनाव का पहला चुनाव लड़ा. अब तक ठाकरे परिवार की राजनीति पर्दे के पीछे से चल रही थी. माना जा रहा था कि उन्हें डिप्टी सीएम बनाया जाएगा.
2019 में पत्नी की जिद ने बनाया मुख्यमंत्री
बीजेपी की ओर से देवेंद्र फडणवीस लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने की तैयारी कर रहे थे लेकिन ऐन वक्त पर उद्धव ठाकरे की पत्नी रश्मि ठाकरे ने आदित्य को मुख्यमंत्री बनने की अपनी इच्छा जाहिर करते हुए प्रदेश की राजनीति में भूचाल ला दिया. शिवसेना आखिर तक इसी बात पर अड़ी रही और बीजेपी से ढाई ढाई साल के मुख्यमंत्री पद का बंटवारा करने की मांग की लेकिन बीजेपी ने साफ तौर पर मना कर दिया. ऐसे में एनसीपी प्रमुख शरद पवार का अहम रोल सामने आया और उन्होंने शिवसेना की कट्टर हिंदूवादी सोच को बदलते हुए कांग्रेस-शिवसेना-एनसीपी का गठबंधन करा दिया, लेकिन यहां भी एक पेंच फंस गया.
शिवसेना आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने की मांग करने लगी लेकिन एनसीपी और कांग्रेस दोनों ही इस बात के लिए राजी नहीं हुए. इसी बीच बीजेपी ने एक खेल कर दिया और रातों रात शरद पवार के भतीजे अजीत पवार ने बीजेपी को समर्थन दे दिया. सुबह 8 बजे से पहले देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री और अजीत पवार ने डिप्टी सीएम की शपथ ले ली. यहां शरद पवार ने फिर अपने लंबे राजनीतिक अनुभव की झलक दिखाते हुए अजीत पवार सहित सभी गए विधायकों को वापिस बुला लिया. अब उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव आया जिसे शिवसेना सहित एनसीपी और कांग्रेस ने भी स्वीकार किया. बस यहां से महाराष्ट्र में फिर इतिहास रचा गया.
यहां ये बताना जरूरी है कि उद्धव ठाकरे के एक फैसले ने न सिर्फ सबको चौंका दिया बल्कि गठबंधन के समीकरणों को बदल दिया. शिवसेना सिर्फ बीजेपी से ही अलग नहीं बल्कि कट्टर हिंदुत्व की सोच से भी बाहर निकली और कांग्रेस-एनसीपी के साथ हाथ मिलाया. उद्धव ठाकरे ने बतौर महाविकास अघाड़ी महाराष्ट्र के 19वें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ग्रहण की. आदित्य ठाकरे सरकार में मंत्री बने. शपथ के साथ ही उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होने वाले ठाकरे खानदान के पहले सदस्य हो गए.
कट्टर हिंदूत्ववादी छवि से बाहर निकल रही शिवसेना
जिस तरह उन्होंने उद्धव ठाकरे ने भगवा रंग के कपड़ों में मुंबई के शिवाजी पार्क में मुख्यमंत्री की शपथ लेते हुए मराठी में कहा ‘मी उद्धव बाला साहेब ठाकरे…’ वैसे ही पूरे शिवाजी पार्क में शिवसेना की तरफ से जोर से उद्घोष होने लगा. उद्धव के साथ बाला साहेब की जयकारे लगने लगे. शपथ के बाद जिस तरह उद्धव ठाकरे ने जनता के साथ घुटनों के बल झुककर सिर झुकाया, वहीं से उनका सॉफ्ट हार्ट का पता चल गया.
महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाविकास अघाड़ी सरकार के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में मुस्लिम समुदाय को 5 फीसदी आरक्षण देने का वादा भी शामिल है, जिस पर शिवसेना ने कोई आपत्ति नहीं दर्ज कराई. इससे पहले तक शिवसेना एक दौर में मुस्लिम विरोधी के तौर पर जानी जाती थी, लेकिन मौजूदा दौर में उसकी सोच बदली हुई दिखी है.
महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा कोरोना मामले सामने आने के बाद भी मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने तबलीगी जमात को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की बल्कि उन्होंने सांप्रदायिक वायरस को कोरोना वायरस की ही तरह खतरनाक बताकर सबको हैरान कर दिया था. उन्होंने यहां तक कहा था कि कोविड-19 वायरस कोई धर्म नहीं देखता है. आने वाले सालों में उद्धव के नेतृत्व में पार्टी में और भी कई बदलाव देखने को मिलना तय है.