हरियाणा और महाराष्ट्र में सोमवार को हुए विधानसभा चुनाव के संभावित नतीजे कुछ चौंकाने वाले आ रहे हैं. मतदान के दिन तक जहां दोनों राज्यों में भाजपा की एक तरफा जीत के कयास लगाए जा रहे थे, वहीं मतदान के आंकड़ों के बाद ये पूरी तरह साफ हो गया कि टक्कर कांटे की है. विभिन्न मीडिया सूत्रों के अनुसार हरियाणा में एग्जिट पोल भाजपा की 34 से 44 सीटें जबकि कांग्रेस की 32 से 42 सीटें बता रहे हैं. एग्जिट पोल के मुताबिक एक साल पुरानी जेजेपी पार्टी को 6 से 10 सीटें मिलने के कयास हैं. दोनों पार्टियों 40 सीटों के अंदर सिमटती है तो जेजेपी के चीफ दुष्यंत चौटाला एक किंग मेकर की भूमिका अदा करते दिखाई देंगे. वहीं महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना की जीत पक्की लग रही है लेकिन ये भी स्पष्ट है कि 164 सीटों पर उतरी भाजपा को सवा सौ सीटों पर भी जीत नसीब नहीं होगी. शिवसेना भी 60 से 70 सीटों पर निपटती दिख रही है. अगर ऐसा होता है तो साफ है कि अगर शिवसेना नहीं होती तो बीजेपी को सत्ता वापसी तक नसीब नहीं होती. Sharad Pawar
आखिर ऐसा कैसे हुआ. मोदी-शाह के साथ राजनाथ सिंह (Rajnath Singh) की भारी भारी रैलियों का क्या जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा? हरियाणा में तो कांग्रेस ने अकेले भाजपा को टक्कर दी लेकिन महाराष्ट्र में पवार अकेले ही बीजेपी और शिवसेना पर भारी पड़े. जितने भी वोट आए, वे शरद पवार (Sharad Pawar) के नाम पर ही गिरे. आखिर मोदी-शाह की आंधी के बीच पवार या कांग्रेस की लहर कैसे चल पड़ी?
वजह है भाजपा और कांग्रेस के चुनावी मुद्दे. भाजपा के स्टार प्रचारक हो या मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और देवेंद्र फडणवीस या फिर स्थानीय नेता, उन सभी ने प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का अनुसरण करते हुए केवल धारा 370, 35ए और तीन तलाक पर वोट मांगे. इन सभी ने केवल ये बताने की कोशिश की कि केंद्र में मोदी की सरकार है इसलिए किसी अन्य राष्ट्र की आंख उठाने की हिम्मत नहीं हो रही. मोदी सरकार ने देश को यश दिलाया. मोदी सरकार ने ये किया, मोदी सरकार ने वो किया … लेकिन किसी ने राज्य के मुद्दों पर कुछ नहीं कहा. खुद मनोहर लाल खट्टर और फडणवीस ने अपनी सरकारों और प्रदेश के मुद्दों पर कुछ नहीं किया. शिवसेना भी अयोध्या और अन्य हिंदूत्व के मुद्दों को उठाती नजर आयी. भाजपा के नेताओं ने अगर अपनी जुबान खोली या तो बयानबाजी के लिए या फिर मोदी सरकार की तारीफ के लिए. किसी ने अपने प्रदेश में क्या हो रहा है या भविष्य में क्या होगा, किसी का इस तरफ ध्यान ही नहीं गया.
भाजपा की इसी भूल का कांग्रेस ने फायदा उठाया. भाजपा ने पिछले साल भी 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों से कोई सबक नहीं लिया लेकिन कांग्रेस और एनसीपी ने प्रदेश के लोगों की इसी नस को दबाया. हालांकि इस बार कांग्रेस के स्टार प्रचारकों में केवल राहुल गांधी ने हरियाणा और महाराष्ट्र में मिलाकर कुल सात रैलियां और जन सभाएं की. पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी, महासचिव प्रियंका गांधी, कै.अमरिंदर सिंह, पार्टी अध्यक्ष बनने के प्रबल दावेदार ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट सहित कई बड़े नेताओं ने दोनों में से किसी प्रदेश में चुनाव प्रचार में उपस्थिति दर्ज नहीं कराई. इसके बावजूद हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने स्थानीय नेताओं के साथ मिलकर चुनाव प्रचार की कमान संभाली. वहीं महाराष्ट्र में NCP चीफ शरद पवार (Sharad Pawar) ने ढलती उम्र में भी बरसते पानी में अपनी चुनावी सभाओं को बंद नहीं होने दिया.
कांग्रेस और एनसीपी ने राष्ट्रीय मुदृों पर न बोलकर केवल स्थानीय और चुनावी मुद्दों को जमकर उठाया. यहीं वजह रही कि दोनों राज्यों की जनता ने देशभर में मोदी लहर के बावजूद कांग्रेस और शरद पवार (Sharad Pawar) को उतना निराश नहीं किया. भाजपा जहां केवल राष्ट्रीय मुद्दों पर बोलती रही, वहीं कांग्रेस NCP लोकल मुद्दों पर बाजी मार गयी. हरियाणा चुनाव में भूपेंद्र सिंह हुड्डा ‘पका हुआ चावल’ साबित हुए. उन्होंने अपनी दशकों का राजनीतिक अनुभव काम में लेते हुए पहले अशोक तंवर को बाहर किया. उसके बाद अन्य स्थानीय नेताओं के साथ मिलकर सारी चुनावी रणनीति पर काम किया.
बात करें महाराष्ट्र की तो यहां कांग्रेस और एनसीपी में शरद पवार (Sharad Pawar) ही सबसे अधिक एक्टिव रहे. कांग्रेस के पास तो एक समय चुनाव मैदान में उतारने को उम्मीदवार तक नहीं थे लेकिन महाराष्ट्र कॉपरेटिव बैंक घोटाले में शरद पवार जैसे साफ चरित्र नेता का नाम आने से लहर बदल गई और जनता की सहानुभूति विपक्ष की तरफ बहने लगी. हालांकि यहां पवार का भाजपा-शिवसेना पर पार पाना सरल नहीं है लेकिन जिस तरह के संभावित नतीजे आ रहे हैं, उसके हिसाब से पवार के चुनावी भाषण मोदी-शाह-फडणवीस पर पूरी तरह भारी पड़ते दिख रहे हैं.
खैर, हरियाणा, महाराष्ट्र के चुनावी नतीजें जो भी हों, 24 अक्टूबर को पता चल रही जाएंगे लेकिन कहना गलत न होगा कि इस बार भाजपा के रामबाण यानि राष्ट्रीय स्तर के मुद्दे अपने टार्गेट से गच्चा खा गए. वहीं हरियाणा में कांग्रेस तो महाराष्ट्र में एनसीपी के तीर अपने निशानों पर सटीक जाकर लगे. अगर कांग्रेस ने आपसी फूट और मतभेद से उपर उठकर थोड़ी और मेहनत इन चुनावों में की होती तो परिणाम कुछ ओर निकल सकता था.