ख़बर है कि लोकसभा चुनाव को लेकर आम आदमी पार्टी (आप) और कांग्रेस के बीच समझौता हो गया है. समझौते के तहत फिलहाल दिल्ली और हरियाणा में दोनों पार्टियां गठबंधन के साथ चुनाव मैदान में उतरने पर तैयार हो गयी हैं. वहीं, पंजाब को लेकर सहमति बनी है कि फैसला बाद में किया जाएगा. गठबंधन का जो फॉर्मूला तय हुआ है, उसके अनुसार दिल्ली में ‘आप’ 4 सीटों पर चुनाव लड़ेगी जबकि कांग्रेस 3 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी. बदले में हरियाणा में कांग्रेस ‘आप’ को गुड़गांव या करनाल में से कोई एक सीट देगी.
गौरतलब है कि दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन को लेकर लंबे समय से कयास लगाये जा रहे थे, लेकिन बात नहीं बन पा रही थी. हालांकि गठबंधन को लेकर ‘आप’ पूरा मन बना चुकी थी और गंभीरता से इसका प्रयास भी कर रही थी, मगर इस मुद्दे पर कांग्रेस के नेता दो गुटों में बंटे थे. पूर्व मुख्यमंत्री और दिल्ली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष शीला दीक्षित का खेमा ‘आप’ से किसी भी कीमत पर गठबंधन का विरोध कर रहा था जबकि पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन का गुट गठबंधन की वकालत कर रहा था.
प्रदेश कांग्रेस प्रभारी पीसी चाको भी गठबंधन के पक्ष में थे. उन्होंने तो बाकायदा पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं के बीच एक सर्वे कराकर इसकी आधारभूमि तैयार की थी. गठबंधन की वकालत करने वाले नेताओं का कहना था कि अगर ऐसा नहीं हुआ, तो इसका फायदा भाजपा को होगा और वह दिल्ली की सभी सातों लोकसभा सीटें जीत लेगी. वहीं, गठबंधन का विरोध कर रहे नेताओं की राय थी कि यह कांग्रेस के लिए आत्मघाती कदम साबित हो सकता है, क्योंकि एक ऐसे वक्त में जब पार्टी नए सिरे से दोबारा खड़ी होती दिख रही है और उसका खोया मतदाता दोबारा उसकी ओर आ रहा है, तब गठबंधन से न केवल उसका मनोबल गिरेगा बल्कि उसका बढ़ता आधार भी खिसक सकता है.
इस गुट का साफ मानना था कि लोकसभा में तो कांग्रेस को गठबंधन का विशेष फायदा नहीं ही होगा, उल्टे विधानसभा चुनावों में भी उसे इसका खामियाजा उठाना पड़ेगा. इनका स्पष्ट मानना था कि ‘आप’ के उभार के पीछे कांग्रेस के वोटों का उसकी ओर पलायन कारण रहा, जो अब बदले हालात में दोबारा पार्टी के पास लौट रहा है. ऊपर से जिस प्रकार दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दिल्ली के साथ-साथ हरियाणा, पंजाब, गोवा व दूसरे राज्यों में भी गठबंधन की शर्त रख रहे थे, उससे भी गठबंधन की संभावना में रुकावटें आ रही थीं. लेकिन जैसे-जैसे इसके तय होने में समय बीतता गया, उससे ‘आप’ को अपने लिए खतरा भी बढ़ता नज़र आने लगा. कारण, पार्टी के आंतरिक सर्वे में भी यही बात खुलकर आयी कि अगर उसने कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं किया तो आगे भी उसकी राह कांटों भरी हो सकती है.
दूसरे सूबों में अपना दायरा बढ़ाने की उसकी हसरत तो चकनाचूर होगी ही, विधानसभा चुनाव के बाद दिल्ली की सत्ता से भी वह विदा हो जाएगी. पंजाब विधानसभा चुनाव में अनपेक्षित नतीजों से भी ‘आप’ सशंकित थी. उन्हीं नतीजों का परिणाम है कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी ‘आप’ के साथ गठबंधन के विरोध में दिख रहे थे. यही वजह है कि केजरीवाल ने भी मौके की नज़ाकत को भांपते हुए अपना रुख नरम किया और सीधे राहुल गांधी पर ही गठबंधन के लिए दबाव बनाने की रणनीति पर उतर आए. इसका असर भी हुआ और अंतत: नए सिरे से दोनों पार्टियों में गठबंधन को लेकर चर्चा शुरू हुई. राहुल की गंभीरता के आगे शीला दीक्षित खेमा भी नरम हुआ और यह कहने लगा कि आलाकमान जो फैसला करेगा, हम मानेंगे.
बहरहाल, दोनों पार्टियों के बीच समझौता हो गया है और जल्द ही इसकी औपचारिक घोषणा की जा सकती है. वैसे दिल्ली में गठबंधन का मामला सीटों को लेकर भी अटक रहा था, क्योंकि ‘आप’ ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए थे. इनमें तीन उम्मीदवारों- पूर्वी दिल्ली से आतिशी, उत्तर-पूर्वी दिल्ली से दिलीप पांडेय और नई दिल्ली से राघव चड्डा की सीटों को वह किसी भी हालत में छोड़ने को तैयार नहीं थी. कारण, ये केजरीवाल के बेहद करीबी लोगों में शामिल हैं.
वहीं, कांग्रेस की भी नज़र इन सीटों पर थी. खासकर अजय माकन चुनाव लड़ने की स्थिति में नई दिल्ली सीट को ही अपने लिए मुफीद मान रहे थे. ऐसे में उनका इरादा भी यह सीट लिये बगैर गठबंधन पर आखिरी मुहर लगवाने का नहीं था. बहरहाल, ‘आप’ ने कांग्रेस की नई दिल्ली सीट को लेकर अपनी बात मान ली है, लेकिन बाकी दो सीटों कांग्रेस को मना लिया है. अब ‘आप’ पश्चिमी दिल्ली, उत्तर-पूर्वी दिल्ली, पूर्वी दिल्ली और उत्तरी दिल्ली से मैदान में उतरेगी. कांग्रेस के हिस्से में चांदनी चौक, उत्तर-पश्चिमी दिल्ली और नई दिल्ली सीटें आयी हैं.
वैसे कांग्रेस और ‘आप’ के नेता अभी भी सार्वजनिक रूप से गठबंधन की पुष्टि नहीं कर रहे हैं, लेकिन तय है कि एकाध दिनों में इसका ऐलान हो जाएगा. ‘आप’ ने अपनी पसंदीदा सीटें कांग्रेस को देने का फैसला कैसे कर लिया और अब केजरीवाल के तीनों करीबी नेताओं का क्या होगा? वे चुनाव लड़ेंगे, तो कहां से या उन्हें अब चुनाव नहीं लड़ाया जाएगा? ऐसे सवाल ज़रूर अचानक सियासी गलियारों में तैरने लगे हैं. राजनीति की समझ रखने वालों का कहना है कि केजरीवाल ने अपना नफा-नुकसान देख कर ही यह कदम उठाया है.
दरअसल, दिल्ली के अलावा देश का ऐसा कोई राज्य नहीं है जहां आम आदमी पार्टी अपने ठोस जनाधार का दावा कर सकती है. हालांकि उसने कई राज्यों में पूरी कोशिश की, मगर आज की तारीख में उसकी सारी कोशिशें बेनतीजा नज़र आती हैं. गोवा से वह बैरंग वापस लौट चुकी है. पंजाब में भी वह विधानसभा चुनावों के बाद पिछड़ चुकी है. इसके बावजूद कि इससे पहले हुए लोकसभा चुनाव में उसने सूबे की कुल 13 सीटों में 4 सीटें हासिल की थीं. इस पिछड़ने को वह गठबंधन से भरपाई करना चाहती है ताकि मिलकर बीजेपी को हराया जा सके.
गठबंधन के जरिये आम आदमी पार्टी हरियाणा में भी घुसने की कोशिश कर रही है. बीते दिनों जींद विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में इसी के मद्देनज़र उसने जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के उम्मीदवार दिग्विजय सिंह चौटाला का समर्थन किया था. अब हरियाणा में कांग्रेस और जेजेपी से गठबंधन के साथ वह अपनी संभावनाएं जगाना चाह रही है. वहीं पंजाब को लेकर भी कांग्रेस ने उसे भरोसा दिलाया है कि बाद में इस पर बात होगी. देखना शेष है कि पंजाब में अमरिंदर इसके लिए तैयार होते हैं या नहीं? और यह भी कि गठबंधन के बाद ‘आप’ और कांग्रेस का चुनावों में कैसा प्रदर्शन रहता है?