Opposition Meeting
Opposition Meeting

राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद रह रहकर उठने वाली विपक्षी एकता की मुहिम कर्नाटक विधानसभा चुनावों के परिणाम के बाद एकदम से सुर्खियों में आ गई. अगर देखा जाए तो जो काम राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने नहीं किया था, वो कर्नाटक विस चुनावों के परिणामों ने कर दिखाया. हवा के विपरीत कांग्रेस पार्टी ने बिना किसी मदद के बीजेपी को एकतरफा पटखनी दी, उससे विपक्षी दलों को लगने लगा है कि कांग्रेस के बीते दिन फिर से वापिस आ सकते हैं. यही वजह रही कि कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के के शपथ ग्रहण समारोह में आधा दर्जन से भी अधिक विपक्षी पार्टियों के मुखियाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. अब पटना में 23 जून को होने वाली विपक्षी एकता की बैठक के चलते यह मुहिम एक बार फिर से सुर्खियों में है.

आगामी लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के मोदी रथ को रोकने के लिए तमाम विपक्षी दल नए सिरे से विपक्षी एकता की कवायद में जुटे हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस एकता के सूत्रधार बनने जा रहे हैं. पटना में 23 जून को होने वाली विपक्षी एकता बैठक के लिए 12 विपक्षी राजनीतिक दलों ने शामिल होने की मंजूरी दी है. पटना में होने वाली विपक्षी दलों के नेताओं की ये बैठक किस मुकाम पर पहुंचती है, ये देखना दिलचस्प होगा.

यह भी पढ़ें: जीत का फॉर्मूला 475- कांग्रेस को 250 के आसपास सीटें देना चाहता है संयुक्त विपक्ष!

इस बैठक के बाद नजरें इस बात पर भी रहेंगी कि विपक्ष में एकता हुई तो इसका नेतृत्व कौन करेगा? वैसे ये पहला मौका नहीं है कि जब सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने के प्रयास हुए हों. बीते 75 सालों के आजाद भारत में विपक्षी एकता के प्रयास अनेक बार हुए, परवान भी चढ़े लेकिन लंब समय तक एकता टिक नहीं पाई. 1977 में पहली बार जनता पार्टी ने लोकनायक जय प्रकाश नारायण की छत्रछाया में सरकार बनाई. बाद में जनता दल एवं राष्ट्रीय मोर्चा की गठबंधन सरकारें स्थिरता नहीं दे पाईं. इस बार भी विपक्षी एकता के मध्य कई ऐसे रोडे हैं जो इस दल को मजबूत देने के साथ साथ शिथिलता भी दे रही है.

ऐसे सवाल, जिनके जवाबों का है इंतजार –

  1. संयुक्त विपक्ष का नेतृत्व कौन करेगा? इनमें मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस, नीतीश कुमार, शरद पवार और ममता बनर्जी सबसे आगे हैं. यहां नीतीश और ममता हर संभव प्रयास कर रहे हैं लेकिन उनकी महत्वकांक्षाएं बीच में आ सकती हैं.
  2. क्या देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और कांग्रेस एक बैनर तले उम्मीदवार उतारने पर राजी हो पाएंगी?
  3. क्या दशकों से केरल में एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा संभालने वाले कांग्रेस और वामपंथी दल ​विपक्षी एकता की एक डोर में बंध पाएंगे?
  4. क्या नवीन पटनायक, जगनमोहन रेड्डी, चंद्रबाबू नायडू और एचडी देवेगौड़ा की पार्टियां भी विपक्षी एकता एक्सप्रेस में सवार होंगी? यदि नहीं तो विपक्षी एकता के मायने क्या होंगे? वैसे इनमें से कोई भी किसी भी दल में शामिल होने से इनकार कर रहा है.
  5. दिल्ली सरकार के अधिकारों पर केंद्र के अध्यादेश के खिलाफ अनेक विपक्षी दल आम आदमी पार्टी के साथ हैं लेकिन प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस इस मुद्दे पर अभी भी चुप है. ऐसे में क्या दो राज्यों में कांग्रेस को बेदखल कर सरकार चला रही आप कांग्रेस के साथ गठजोड़ करेगी?

इन सभी सवालों के जवाब विपक्षी एकता का झंडा उंचा कर रहे ​शीर्ष नेता अभी भी ढूंढ रहे हैं.

यूं समझे वोटों का गणित –

लोकसभा चुनाव 2019 के चुनावी परिणामों पर गौर करें तो देश में एनडीए का वोट बैंक 45 फीसदी है जिसमें बीजेपी का शेयर 37.30 और सहयोगी दलों का 8 फीसद है. इधर2, यूपीए का वोट बैंक घटकर 26 फीसदी रह गया है जिसमें कांग्रेस का शेयर 19.46 और सहयोगी दलों का 6 फीसदी है. कांग्रेस को पिछले आम चुनावों में केवल 51 सीटें मिली थीं. शेष 29 फीसदी वोट बैंक पर बीजद, बसपा, टीडीपी, वायएसआर, टीएमसी एवं द्रमुक पार्टियों का अधिकार है.

अब सबसे बड़ी समस्या तो ये है कि दिल्ली में बीजेपी के खिलाफ एकजुट विपक्ष अन्य राज्यों में एक दूसरे के खिलाफ चुनावी अखाड़े में आमने सामने खड़ा है. राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और हरियाणा में कांग्रेस सत्ताधारी या प्रमुख विपक्षी पार्टी है. यहां उसका वोट बैंक 40 फीसद से भी ज्यादा है. कांग्रेस का राजस्थान में वोट शेयर 34.24 फीसद, मध्य प्रदेश में 24.50 फीसद, छत्तीसगढ़ में 40.91 फीसद, कर्नाटक में 34.24 फीसद, हिमाचल प्रदेश में 23.30 फीसद और उत्तराखंड में 31.40 फीसद है. ऐसे में वह किसी अन्य दल के साथ सीटें नहीं बांटना चाहती.

यह भी पढ़ें: पहले किया पराया, फिर नीतीश ने अपनाया, अब क्या केजरीवाल को मिलेगी राहुल-खरगे की छत्र-छाया?

वहीं दक्षिण के कुछ राज्यों सहित बिहार, यूपी आदि में क्षेत्रीय दल कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा मजबूत हैं. ऐसे में क्षेत्रप पार्टियां अपने मजबूत राज्यों में कांग्रेस सहित अन्य दलों के लिए सीट नही छोड़ना चाहते. बात करें आंकड़ों की तो तमिलनाडू में कांग्रेस के 13.61 फीसदी वोट शेयर के मुकाबले द्रमुक 53.15 फीसद, बिहार में कांग्रेस के 7.70 फीसद के मुकाबले जदयू 21.81 एवं राजद 15.36 फीसद, आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के 1.29 फीसदी के मुकाबले वाईएसआर 49.15 एवं टीडीपी 32.59 फीसद, तेलंगाना में कांग्रेस के 29.48 के मुकाबले बीआरएस 41.22 फीसद, महाराष्ट्र में कांग्रेस के 16.41 फीसद वोट शेयर के मुकाबले एनसीपी 15.66 एवं शिवसेना 23.50 फीसद और दिल्ली में कांग्रेस के 18.11 फीसद के मुकाबले आम आदमी पार्टी का 22.51 फीसदी वोट शेयर है.

केवल 8 फीसदी सीटें आयी थीं कांग्रेस के खाते में –

2019 के आम चुनावों मे कांग्रेस को बीजेपी के मुकाबले केवल 8 फीसदी सीटों पर जीत मिली थी. लोकसभा की 190 सीटों पर कांग्रेस का सीधा मुकाबला बीजेपी से हुआ था. इनमें से बीजेपी को 175 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. कांग्रेस केवल 15 सीटों पर जीत सकी थी. वहीं बीजेपी की 185 सीटों पर सीधी टक्कर अन्य पार्टियों या क्षेत्रप पार्टियों के साथ हुई थी जिनमें से 128 सीटों पर बीजेपी और 57 सीटों पर अन्य ने जीत हासिल की थी. ये आंकड़ा कांग्रेस की जीती गई सीटों से अधिक है.

इसी प्रकार 75 लोकसभा सीटों पर कांग्रेस की सीधी टक्कर अन्य पार्टियों से हुई थी जिसमें मामला करीब करीब बराबर का रहा. कांग्रेस ने 52 फीसदी वोट शेयर के साथ 37 तो 34 सीटें अन्य के हिस्से में गई. यहां बराबरी का मुकाबला भी कांग्रेस और यूपीए के नेतृत्व को कमजोर बना रहा है.

Leave a Reply