Politalks.News/Rajasthan. राजस्थान की राजनीति में अगले दो दिन का सम्पूर्ण सियासी लाॅकडाउन लग गया है. मंगलवार को हाईकोर्ट ने सभी पक्षों की सुनवाई पूरी कर ली और तय किया कि फैसला शुक्रवार यानि 24 जुलाई को सुनाया जाएगा. आज सुबह से ही डिविजन बैंच ने लगातार चौथे दिन पायलट खेमे की याचिका पर सभी पक्षों की सुनवाई की. पहले लंच से पहले 2 बजे तक सुनवाई पूरी होने की बात कही गई, लेकिन लंच टाइम के बाद कोर्ट एक बार फिर बैठी. राजनीति से जुड़े लोगों की धड़कनें ठहर सी गईं. ऐसे मौके भी कभी कभार ही आते हैं, जब सबकी निगाहें और दिल कोर्ट के फैसले पर लग जाते हैं.
यूं तो मंगलवार बालाजी का वार है लेकिल मंगल को कोर्ट भी न्याय के मंदिर तरह महत्वपूर्ण हो गया. देखा जाए तो सचिन पायलट के पूरे राजनीतिक करियर का सवाल खड़ा हो चुका है. परिस्थितियां ऐसी बन चुकी हैं कि अगर पायलट की याचिका खारिज हो गई तो फिलहाल पायलट कहीं के नहीं रहेंगे और सीएम अशोक गहलोत की रोड़े भरी राह एक दम आसान हो जाएगी. वहीं अगर फैसला पायलट के पक्ष में आ गया तो भी परेशानी खत्म नहीं होगी हां इसके बाद गहलोत के लिए राह जरूर चुनौती भरी हो जाएगी.
हाईकोर्ट द्वारा फैसला 24 तारीख तक सुरक्षित रखने के बाद मीडिया में कुछ खबरें चली कि सचिन पायलट को कोर्ट से फौरी तौर पर राहत मिल गई है, ऐसा नहीं है. हाईकोर्ट ने किसी को कोई राहत नहीं दी है. कोर्ट की जो भी राहत होगी वो 24 को ही सामने आएगी. मामला पेचीदा है, हाईकोर्ट में विधानसभा स्पीकर की ओर से जारी नोटिस को चैलेंज किया गया है. स्पीकर की मंशा और उनकी भूमिका पर सवाल खड़े किए गए हैं. यह कानून है, सुनी सुनाई बातों पर नहीं रिकार्ड पर चलता है. मामले को जीतने के लिए दोनों पक्षों के वकीलों ने संविधान को खंगाला गया, सुप्रीम कोर्ट के कई पुराने फैसले अदालत के सामने रखे हैं.
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जनाब, मामला महत्वपूर्ण नहीं होता तो हाईकोर्ट चार दिन तक लगातार सुनवाई नहीं करता. मामला गंभीर है, संविधान में लोकतंत्र की रक्षा के लिए बनाए गए दल-बदल और विधायकों की खरीद-फरोख्त जैसे गंभीर विषयों से जुड़ा मामला है. मामला बहुत बारीक है, यह किसी गहलोत या पायलट, कांग्रेस और बीजेपी के लिए तो तुंरत निर्णय कर फयादा दिलाने वाला हो सकता है, लेकिन जल्दीबाजी का निर्णय लोकतंत्र के लिए कभी अच्छ नहीं हो सकता.
पिछले डेढ़ साल में सबसे ज्यादा चिंता का विषय जो बनकर उभरा है, वो खरीद फरोख्त से दल बदली कर सरकार गिराने का विषय उभरा है. इसको लेकर जितना चिंतिंत भारत का बुद्धिजीवी वर्ग है, उतना ही हमारे संवदेनशील देश के सभी कोर्ट भी हैं. इस तरह के मामले जब-जब शीर्ष अदालतों के सामने आए हैं, कोर्ट ने बारीक से बारीक तथ्यों पर भी ध्यान दिया है.
हमें थोड़ा समझना चाहिए कि संविधान ने विधानसभा स्पीकर को बहुत बड़ी ताकत दी है. ताकत यह है कि वो अपने विवेक से जनता के द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि का जनप्रतिनिधि होेने का अधिकार समाप्त कर सकता है. अब आप समझ सकते हैं, हाईकोर्ट की नजर में यह मामला बहुत ही महत्वपूर्ण क्यों है.
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हरीश साल्वे हों, मुकेश रोहतगी या फिर अभिषेक मनु सिंघवी हों, यह सारे कानून के जाने माने दिग्गज हैं. सुप्रीम कोर्ट के बड़े नामी वकील हैं यह सभी. यह लोग कभी-कभार ही हाई कोर्ट की सुनवाई में भाग लेते हैं. इसी बात से समझिए कि हाईकोर्ट का निर्णय कितना संवदेनशील है.
अब आती है राजनीति की बात, राजनीति चलती रहेगी. देश में खरीद फरोख्त और दल बदल रोकने के लिए कानून बना, लेकिन हुआ क्या? उसके दूसरे रास्ते निकाल दिए गए. खरीद फरोख्त के तरीके बदल गए. पहले दो चार विधायकों की उनके पक्ष से नाराजगी और कुछ प्रलोभन से काम चल जाया करता था. दल बदल कानून के बाद दो तिहाई विधायकों की जरूरत पड़ने लगी, सो वो काम भी होने लगा. हमारे सामने पहले कर्नाटक और अभी हाल ही में मध्यप्रदेश का ताजा उदाहरण है.
हाईकोर्ट के सामने सवाल सिर्फ यह ही नहीं है कि सचिन पायलट और उनके समर्थक विधायक सही हैं या गलत. हाईकोर्ट के सामने सवाल और भी हैं. जो कानून बना हुआ है, क्या वो दल-बदल को रोक पा रहा है, क्या वो कानून पर्याप्त है, लोकतांत्रिक सरकारों को उनका पांच साल का कार्यकाल पूरा करने के लिए या फिर कुछ और विचार करने की जरूरत है. कोई नियम बनाने, कुछ संशोधन करने या फिर कुछ और किए जाने की जरूरत है.
हाईकोर्ट के सामने आज यह भी आया है कि जो भी व्यक्ति जिस भी पार्टी से चुनाव लड़कर जीतता है, उसको पांच साल उसी पार्टी के लिए कार्य करना होगा. अगर वो ऐसा नहीं करता है, पार्टी के खिलाफ जाता है, तो उसकी सदस्यता खत्म करने के साथ-साथ उसके छह साल तक चुनाव लड़ने पर रोक और सरकार में किसी भी प्रकार को कोई भी पद नहीं मिलने के प्रावधान को भी जोड़ा जाना जरूरी है.
जिससे जनता जो अपने प्रतिनिधि को पांच साल के लिए सदन में भेजती है, उसका विश्वास और भरोसा चुनाव की प्रक्रिया पर बना रहे.
विचार तो और भी सामने आ रहे हैं कि दल-बदल के कारण होने वाले चुनाव का खर्चा भी इस्तीफा देकर पार्टी बदलने वाले विधायकों से लिया जाना चाहिए. एक अनुमान के मुताबिक एक विधानसभा के चुनाव पर लगभग 25 करोड़ का खर्चा होता है. वहीं सुनने में आया है कि एक-एक विधायक की रेट भी 20 से 35 करोड़ तक हो चुकी है. ऐसे में अगर अपनी पार्टी को छोड़कर दल बदल करने वाले विधायक से चुनाव का खर्च वसूला जाएगा तो शायद फिर जल्दी से कोई विधायक किसी पार्टी से बगावत करने की हिमाकत जल्दी से नहीं करेगा.
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अपने एक मित्र कह रहे थे, इससे अच्छा तो कोई व्यवासय हो ही नहीं सकता. एक विधायक बनने का मोटा मोटा खर्चा 1 से 3 करोड़ और जीतने के साल दो साल बाद ही 20 से 35 करोड़ के बीच मिल जाएं तो इससे अच्छा क्या होगा. जनप्रतिनिधि बिक रहे हैं, तभी तो काॅरपोरेट जगत के लोग हावी हे रहे हैं. लोग बिक रहे हैं, तभी तो उन्हें बाजार में खरीदने वाला वर्ग तैयार हो रहा है. यह वर्ग सब पर हावी हो चुका है. लोकतंत्र के चारों स्तंभों पर इस वर्ग का वजूद नजर आ रहा है. यह वर्ग जिसके साथ होता है, उसकी सरकारें बनती और चलती हैं. यह वर्ग जिसके साथ होता है, उसे न्याय समय पर मिल जाता है. यह वर्ग जिसके साथ होता है, उसकी ही मीडिया में चलती है. यह वर्ग जिस प्रशासनिक अधिकारी के साथ होता है, वह उसी जिले का मुखिया होता है, जिसको यह वर्ग तय करता है.
लोकतंत्र के चारो स्तंभो को यह वर्ग धीरे-धीरे अपने जाल में वश में करने में लगा है. एक तरह सेे लील रहा है. इसके लिए आवाजे उठती रही हैं, उठ भी रही हैं, उठती भी रहेंगी. हम इसे कांग्रेस और बीजेपी के बीच का झगड़ा बताकर विषय को हल्का नहीं कर सकते.
जरा समझ लिजिए लोकतंत्र के चारो स्तंभ का मतलब: –
1 विधायिका – मतलब कानून बनाना, रक्षा करना.
2 न्यायपालिका- कानून की पालना कराना, बहुत बारीक न्याय करना.
3 प्रशासन- सरकार के कार्यक्रमों को लागू करवाना अंतिम व्यक्ति तक के लाभ को सुनिश्चित करना.
4 मीडिया मतलब सच्चाई को जनता तक पहुंचाना और नियमों के विरूद्ध चलने वाले सारे विचारों के खिलाफ जनता को अवगत कराना.