Rajasthan Politics: राजस्थान में एक तरफ गहलोत सरकार जहां प्रदेश में इतिहास रचने की फिराक में है, वहीं भारतीय जनता पार्टी सत्ता वापसी की राह तक रही है. दोनों राजनीतिक पार्टियों ने मिशन 2023 के लिए दौड़-भाग तेज कर दी है. वैसे गौर किया जाए तो सत्ता प्राप्ति के लिए प्रदेश के मेवाड़-वागड़ का साथ जरूरी है. राज्य में सरकार बनाने के लिए किसी भी दल के लिए मेवाड़-वागड़ की 28 विधानसभा सीटें बहुत महत्व रखती हैं. राज्य में एसटी की कुल 25 सीटों में से सबसे ज्यादा सीटें इसी संभाग में है. बागड़ क्षेत्र के बांसवाड़ा जिले को नया संभाग बनाया गया है. उसके बाद यह क्षेत्र पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है. यही वजह है कि पीएम मोदी, अमित शाह और राहुल गांधी की चुनावी सभाएं यहां पहले ही हो चुकी है. इसके बावजूद यहां का मतदाता राजनीतिक दलों की सियासी हवा में नहीं बहता है. ट्राइबल पार्टी की जीत इस बात की स्पष्ट गवाह है.
सत्ता जीतकर भी यहां से पिछड़ी थी कांग्रेस
मेवाड़-वागड़ क्षेत्र यानी उदयपुर संभाग में 6 जिलों की कुल 28 सीटें आती हैं. बागड़ क्षेत्र के बांसवाड़ा को हालांकि नया संभाग बनाया गया है लेकिन इस बार के चुनाव पुराने संभाग और जिलों के हिसाब से ही हो रहे हैं. उदयपुर संभाग में उदयपुर की 8, प्रतापगढ़ की 2, चित्तौड़गढ़ की 5, डूंगरपुर की 4 और राजसमंद की 4 विधानसभा सीटें शामिल हैं. 2018 में सरकार बनाने के बावजूद कांग्रेस को 28 में से केवल 10 सीटें हासिल हुईं, जबकि 15 सीटें बीजेपी के खाते में आयी. भारतीय ट्राइबल पार्टी (BTP) को भी यहां दो सीटें मिली. बीजेपी का खाता खुलने से दोनों दलों की चिंता बढ़ी है. यही वजह है कि दोनों दल आदिवासी क्षेत्र को संभालने के लिए पूरी ताकत लगा रहे हैं.
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मेवाड़-वागड़ में कांग्रेस की स्थिति थोड़ी कमजोर है. 2018 के विधानसभा चुनावों में उदयपुर की 8 में से कांग्रेस को केवल दो सीटें मिल पायी थी. प्रतापगढ़ में दोनों दलों को एक-एक, चित्तौड़गढ़ में बीजेपी को तीन जबकि कांग्रेस को दो, बांसवाड़ा में कांग्रेस-बीजेपी को दो-दो जबकि अन्य को एक, डूंगरपुर में दोनों दलों को एक-एक जबकि बीटीपी को दो और राजसमंद में दोनों किदलों को दो दो बराबर सीटें मिली.
इसी तरह 2013 में जब यहां वसुंधरा राजे ने सरकार बनायी थी, तब बीजेपी को 28 में से 25 सीटों पर विजयश्री हासिल हुई थी. कांग्रेस को केवल सीटों से संतोष करना पड़ा, जबकि एक सीट अन्य के कब्जे में आयी. प्रतापगढ़, चित्तौड़गढ़, डूंगरपुर और राजसमंद सहित चार जिलों में तो कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला था. उदयपुर की 8 सीटों में से 6 पर बीजेपी जबकि एक—एक सीट पर कांग्रेस और अन्य का कब्जा रहा.
आदिवासी मतदाता यहां लहर में नहीं बहता
इस क्षेत्र की 28 में से 16 सीटें एसटी वर्ग के लिए आरक्षित है. राज्य में एसटी की कुल 25 में से सबसे ज्यादा सीटें इसी संभाग में है. वागड़ क्षेत्र के बांसवाड़ा जिले को नया संभाग बनाया गया है. इसमें बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और डूंगरपुर जिले शामिल हैं. वहीं उदयपुर संभाग में उदयपुर, राजसमंद और चित्तौडगढ़ के अलावा भीलवाड़ा जिले को जोड़ा गया है. हालांकि इस बार के चुनाव पुराने जिले एवं संभाग स्तर पर होंगे लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस इसे भुनाने का भरसक कर रही है. उदयपुर की 8 में से 5 सीटें एसटी के लिए आरक्षित है. प्रतापगढ़ की दोनों, डूंगरपुर की चारों और बांसवाड़ा की पांचों सीटें एसटी वर्ग के लिए आरक्षित है. यहां 2018 में बीटीपी ने दो सीटों पर जीत हासिल कर बीजेपी और कांग्रेस की दुविधा बढ़ाई है. इसलिए बीजेपी और कांग्रेस दोनों दल आदिवासी क्षेत्र को संभालने के लिए पूरी ताकत लगा रहे हैं.
बीजेपी को खलेगी कटारिया और किरण माहेश्वरी की कमी
एक तरफ पानी की झीले और दूसरी तरफ पहाड़ियां एवं झरने वाले मेवाड़-वागड़ क्षेत्र में पूर्व विधायक गुलाब चंद कटारिया के राज्यपाल बन जाने और किरण माहेश्वरी के नहीं रहने से इसी कमी बीजेपी को निश्चित तौर पर खलेगी. कांग्रेस के लिए चिंता का विषय बीटीपी है. बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही शक्ति प्रदर्शन में ढूबे हुए हैं. मानगढ़ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उदयपुर में अमित शाह और मानगढ़ में राहुल गांधी अपनी अपनी जन रैलियां कर चुके हैं. सत्ता वापसी के लिए बीजेपी ने परिवर्तन यात्रा शुरू की है. सवाई माधोपुर के बाद बेणेश्वर से भी इसका जायजा हो चुका है.
अब देखना रोचक रहेगा कि कटारिया एवं किरण माहेश्वरी की कमी को बीजेपी को खलेगी. वहीं कांग्रेस बीटीपी की नाक में नकेल करने की तैयारी हो रही है.