Thursday, February 6, 2025
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प्रियंका गांधी के ट्विटर हैंडल पर सन्नाटा, फिर भी फॉलोअर्स सवा दो लाख पार

नए दौर की राजनीति की लड़ाई का सबसे बड़ा मंच सोशल मीडिया है. नेता और उनकी पार्टी, सोशल मीडिया पर जो जानकारी शेयर करते हैं, वह तुरंत मुख्यधारा की मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज और हे​डलाइन बन जाती है. ट्विटर इसमें टॉप पर है और भाजपा इस पर ज्यादा सक्रिय है. दूसरे दल भी सोशल मीडिया के इस प्लेटफॉर्म का उपयोग कर रहे हैं. पिछले दिनों राजनीति में एंट्री करने वाली प्रियंका गांधी वाड्रा ट्विटर पर आ चुकी हैं, लेकिन इस पर सिवाय इसके और कुछ दिखाई नहीं देता कि वे किसे फोलो करती हैं और उनके कितने फॉलोअर्स हैं.

कोई प्रियंका गांधी वाड्रा का ट्वीट नहीं पढ़ सकता, क्योंकि उन्होंने किया ही नहीं है. शायद ट्विटर की चिड़िया भी इस इंतजार में होगी कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को खड़ा करने की कोशिश में जुटीं प्रियंका आखिर उसकी सुध कब लेगी. इंतजार उनके सवा दो लाख पार हो चुके फॉलोअर्स को भी है, जिन्होंने बिना ट्वीट के दर्शन किए उन्हें फोलो कर लिया. इंतजार कांग्रेस के नेताओं को भी है कि उनकी नेता कब ट्वीट करे और वे इसे लाइक और रीट्वीट करें.

कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपने—अपने ट्विटर हैंडल पर ‘प्रियंका गांधी फॉलोस यू’ संदेश की बाट जोह रहे हैं. बता दें कि प्रियंका गांधी ट्विटर पर जिन लोगों को फोलो करती हैं, उनकी संख्या सिर्फ सात है. इनमें एक कांग्रेस पार्टी का आधिकारिक ट्विटर हैंडल है और छह कांग्रेस के नेता हैं. एक तो स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष और उनके बड़े भाई राहुल गांधी ही हैं. उनके अलावा प्रियंका गांधी सिर्फ पांच और कांग्रेसी नेताओं को फाॅलो कर रही हैं. इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि कम से कम उनकी नजर में पार्टी के अंदर ये पांच नेता सबसे ताकतवर हैं.

इन पांच नेताओं के नाम हैं— अहमद पटेल, अशोक गहलोत, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और रणदीप सुरजेवाला. कांग्रेस में बड़े नेता तो कई हैं, लेकिन प्रियंका की नजर में शायद ये पांचों की अहमियत कुछ ज्यादा ही है. बाकी बड़े नेता इस क्लब में शामिल होने के लिए कसमसा रहे हैं. इनमें से कितने नेताओं को प्रियंका गांधी फॉलो करेंगी, यह तो वे ही जानें मगर उन्हें फॉलो करने वाले लोगों का नंबर लगातार बढ़ रहा है.

गौरतलब है कि बीती 23 जनवरी को प्रियंका गांधी को कांग्रेस महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश का पार्टी प्रभारी बनाया गया था. कयास लगाए जा रहे हैं वे यहां ​की किसी सीट से चुनाव लडेंगी. प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में आने से और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनने से देश के सबसे बड़े सूबे में कांग्रेस में जान आ गई है. यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने सपा—बसपा गठबंधन का हिस्सा नहीं बनकर अच्छा किया. पार्टी को अपने बूते पर ही खड़ा होना चाहिए.

खर्चे के खौफ से बीजेपी ने की राजस्थान में पीएम मोदी की सभाओं में कटौती!

आगामी लोकसभा चुनाव में राजस्थान बीजेपी नेतृत्व पिछली बार की तरह इस बार भी 25 सीटें जीतने का दावा कर रहा है, लेकिन इसके लिए तैयारी में कई झोल दिखाई दे रहे हैं. यह जानते हुए कि चुनाव में मोदी ही पार्टी का प्रमुख चेहरा हैं, स्थानीय नेता उनकी सभाओं से कतरा रहे हैं. गौरतलब है कि मोदी ने पिछले दिनों टोंक और चुरू में सभाएं की थीं. उनका तीन और सभाएं करने का कार्यक्रम तय था, लेकिन ये हो नहीं पाईं. पार्टी सूत्रों के अनुसार इसके पीछे सभाओं में होने वाले खर्च था.

आमतौर पर इस प्रकार की सभाओं के खर्च की रकम का इंतजाम पार्टी फंड से होता है और स्थानीय नेता इसमें सहयोग करते हैं मगर मदन लाल सैनी के अध्यक्ष बनने के बाद से प्रदेश में बीजेपी की तिजोरी कंगाली के दिन देख रही है. चर्चा के मुताबिक सत्ता में नहीं होने की वजह से भी पार्टी को उतना चंदा नहीं मिल रहा है, जितना मिलना चाहिए. ‘पॉलिटॉक्स’ के सूत्रों के अनुसार टोंक में हुई सभा के लिए पार्टी के प्रदेश कार्यालय से नाम मात्र का फंड जारी हुआ. सभा का ज्यादातर खर्च स्थानीय सांसद ने उठाया.

प्रदेश बीजेपी को चुरू में भी यही उम्मीद थी, लेकिन यहां के सांसद ने यह कहते हुए हाथ खड़े कर दिए कि कार्यक्रम पार्टी का है. जबकि विधायकों ने यह कहते हुए पल्ला झाड़ ​लिया कि कार्यक्रम प्रधानमंत्री का है इसलिए इसे सफल बनाने का जिम्मा सांसद का है. पार्टी के नेताओं के बीच पीएम की सभाओं में होने वाला खर्चा भी चर्चा का केंद्र रहा. गौरतलब है कि बीजेपी की कमान मोदी और शाह के हाथों में आने के बाद सभाओं की अलग ही रंगत नजर आती है. भव्य मंच और श्रोताओं के बैठने की बढ़िया व्यवस्था से खर्च पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ गया है.

सूत्रों के अनुसार किसी के खर्च उठाने के लिए तैयार नहीं होने की वजह से राजस्थान में पीएम मोदी की तीन और सभाओं का कार्यक्रम नहीं बन पाया. हालांकि बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व को इसकी भनक नहीं है. उन्हें स्थानीय नेतृत्व ने यह तर्क दिया कि चुनाव की तारीखें घोषित होने के बाद पीएम की सभाएं ज्यादा कारगर होंगी. पीएम के कई कार्यक्रमों में व्यस्त होने की वजह से उन्होंने इसे मान भी लिया. चुनाव की तारीखों का एलान होने के बाद मोदी की राजस्थान में कई सभाएं होंगी, लेकिन तब इनका खर्च उठाने के लिए उम्मीदवार तो होंगे ही, केंद्रीय नेतृत्व का खजाना भी खुल जाएगा.

देश की संसद को सबसे ज्यादा हंसाने वाले सांसद के बारे में जानिए

राजनीति जहां नेता एक—दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते वहां ऐसे नेता की कल्पना की जा सकती है जो सबको हंसाता था. वो भी खुद को मजाक का केंद्र बनाकर. संभवत: आपको कोई नाम याद नहीं आए, लेकिन एक ऐसा नेता हुए हैं जो सबको हंसाते थे. इनका नाम है पीलू मोदी. सत्तर के दशक में पीलू मोदी ने भारतीय संसद को जितना हंसाया है उतना शायद अब तक किसी ने नहीं हंसाया. उनकी खूबी ये थी कि वो अपना मजाक खुद बनाते थे. कहा भी जाता है कि असली हास्य वही होता है, जिसमें खुद को भी न बख्शा जाए.

जब पीलू संसद में बोलते थे तो विरोधी भी उनकी बातों को गौर से सुनते थे. सबका ध्यान उनकी चुहलबाजी और मजाक पर रहता था. कांग्रेस सांसद जेसी जैन उन्हें अक्सर इसी वजह से छेड़ा करते थे कि वे कोई न कोई फुलझड़ी छोड़ेंगे. एक दिन पीलू को उन पर गुस्सा आ गया और उन्होंने जैन से कहा, ‘स्टॉप बार्किंग.’ यानी भौंकना बंद कीजिए. जैन यह सुनकर तमतमा गए. उन्होंने कहा, ‘अध्यक्ष महोदय, ये मुझे कुत्ता कह रहे हैं. यह असंसदीय भाषा है.’ उनकी इस आपत्ति पर सदन की अध्यक्षता कर रहे हिदायतउल्लाह ने आदेश दिया कि पीलू मोदी ने जो कुछ भी कहा वो रिकॉर्ड में नहीं जाएगा. आसन की इस व्यवस्था पर मोदी ने मजेदार प्रतिक्रिया दी. उन्होंने कहा, ‘ऑल राइट देन, स्टॉप ब्रेइंगण्’ यानी रेंकना बंद कीजिए. जेसी जैन को ब्रेइंग शब्द का मतलब समझ नहीं आया इसलिए उन्होंने इस पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं की. यह शब्द संद की कार्रवाई के रिकॉर्ड में अभी भी कायम है.

यह वह दौर था जब भारत में जो कुछ भी गलत होता था उसका दोष अमरीकी खुफिया एजेंसी सीआईए के मत्थे मढ़ा जाता था. एक दिन पीलू मोदी को पता नहीं क्या सूझी. वे अपने गले में ‘आई एम ए सीआईए एजेंट’ लिखी तख्ती गले में लटकाकर गले में संसद पहुंच गए. उन्हें देखकर सदन में खूब ठहाके लगे. मोदी की इंदिरा गांधी से तगड़ी अदावत थी, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर दोनों के व्यक्त्गित रिश्ते बहुत अच्छे थे. इंदिरा गांधी पीलू मोदी का एक भी भाषण नहीं छोड़ती थीं. भाषण सुनने के बाद गांधी लगभग हर बार पीलू को अपने हाथ से चिट्ठी लिख कर कहती थीं कि तुमने बहुत बढ़िया बोला. पीलू मोदी उसका जवाब देते थे और चिट्ठी का समापन ‘पीएम’ शब्द से करते थे. एक दिन सदन में गांधी और मोदी के बीच किसी मुद्दे पर नोकझोंक हो गई. पीलू ने कहा, ‘आई एम ए परमानेंट पीएम, यू आर ओनली टेंपेरेरी पीएम’ इस पर इंदिरा गांधी हंसने लगीं तो पीलू मोदी ने कहा कि पीएम का मतलब ‘पीलू मोदी’ है.

इंदिरा गांधी के बारे में यह मशहूर है कि वे संसद में शाम के समय अखबार की क्रासवर्ड पजल हल किया करती थीं. इस बात का पीलू मोदी को पता चला तो उन्होंने शांति से चल रहे सदन के बीच ‘प्वाएंट ऑफ ऑर्डर’ बोलकर सबको चकित कर दिया. स्पीकर संजीव रेड्डी इस पर खूब नाराज हुए. उन्होंने गुस्से से पूछा कि सब ठीक तो चल रहा है फिर क्या ‘प्वाएंट ऑफ ऑर्डर’ है. तो मोदी बोले, ‘क्या कोई सांसद संसद में क्रॉसवर्ड पजल हल कर सकता है? यह सुनते ही इंदिरा गांधी के हाथ थम गए. बाद में उन्होंने पीलू को एक नोट लिख कर पूछा कि तुम्हें कैसे पता चला कि मैं क्रॉसवर्ड पजल हल करती हूं? इस पर पीलू ने जबाव में ​लिखा कि मेरे जासूस हर जगह पर मौजूद हैं.

पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो पीलू मोदी के करीबी दोस्तों में शामिल थे. दोनों का बचपन मुंबई में सा​थ—साथ बीता और दोनों अमेरिका में साथ—साथ पढ़े भी. 1972 में जब भुट्टो शिमला समझौता करने भारत आए तो उन्होंने पीलू से मिलने की इच्छा जाहिर की. सरकार ने पीलू को शिमला बुलवाया. इस दौरान पीलू ने शिमला समझौते के कई रोचक पहलुओं पर गौर किया, जिन्हें उन्होंने अपनी पुस्तक ‘जुल्फी माई फ्रेंड’ में किया है. उन्होंने लिखा है, ‘एक क्षण के लिए जब बिलियर्ड्स रूम का दरवाजा थोड़ा सा खुला तो मैंने देखा कि जगजीवन राम बिलियर्ड्स की मेज के ऊपर बैठे हुए थे और इंदिरा गांधी मेज पर झुकी शिमला समझोते के मसौदे से माथापच्ची कर रही थीं. चव्हाण और फखरुद्दीन अली अहमद भी मेज पर झुके हुए थे और उन सब को नौकरशाहों के समूह ने घेर रखा था.’

पीलू मोदी ने आगे लिखा, ‘दस बजकर पैंतालीस मिनट पर जब भुट्टो और इंदिरा गांधी समझौते पर दस्तख्त करने के लिए राजी हुए तो पता चला कि हिमाचल भवन में कोई इलेक्ट्रॉनिक टाइप राइटर ही नहीं है. आनन-फानन में ओबेरॉय क्लार्क्स होटल से टाइप राइटर मंगवाया गया. तभी पता चला कि पाकिस्तानी दल के पास उनकी सरकारी मोहर ही नहीं है, क्योंकि उसे पहले ही पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल के सामान के साथ वापस भेजा जा चुका था. अंतत: शिमला समझौते पर बिना मोहर के ही दस्तखत हुए. समझौते से पहले मैंने देखा कि कुछ भारतीय अफसर, साइनिंग टेबल पर मेजपोश बिछाने की कोशिश कर रहे थे और हर कोई उसे अलग-अलग दिशा में खींच रहा था. उन्होंने सारे बंदोबस्त की बार-बार जांच की, लेकिन जब समझौते पर दस्तखत करने का वक्त आया तो भुट्टो की कलम चली ही नहीं. उन्हें किसी और का कलम ले कर दस्तखत करना पड़ा.’

आपातकाल के समय पीलू मोदी को जेल भेज दिया गया. रोहतक की जेल में पश्चिमी कमोड नहीं होने की वजह से उन्हें निवृत्त होने में बहुत परेशानी होती थी. उन्होंने को संदेश भेजकर अपनी परेशानी इंदिरा गांधी की बताई तो उसी दिन शाम को टॉयलेट में बंदोबस्त हो गया. मोदी चाहते तो अपनी रिहाई के लिए भी गुजारिश कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. पीलू मोदी बहुत जबरदस्त मेहमाननवाज थे. लोग उनकी दावतों में शामिल होना अपनी खुशनसीबी समझते थे.

गहलोत सरकार ने घटाया लोकायुक्त का कार्यकाल, कोठारी की छुट्टी तय

राजस्थान के लोकायुक्त एसएस कोठारी

प्रदेश की अशोक गहलोत सरकार ने लोकायुक्त के कार्यकाल को पांच से बढ़ाकर आठ साल करने के फैसले को पलट दिया है. सरकार ने अध्यादेश के जरिये लोकायुक्त के कार्यकाल को फिर से पांच साल कर दिया है. राज्यपाल कल्याण सिंह ने इसे मंजूरी दे दी है. इस बदलाव से लोकायुक्त एसएस कोठारी पर तलवार लटक गई है. सरकार उन्हें कभी भी हटा सकती है.

बता दें कि पूर्ववर्ती वसुंधरा राजे सरकार पिछले साल मार्च में कार्यकाल को आठ साल करने का अध्यादेश लेकर आई थी. विधानसभा में विधेयक पारित होने के बाद यह कानून बन गया. इसके खिलाफ हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई, जिसमें यह आरोप लगाया गया कि सरकार ने एसएस कोठारी को फायदा पहुंचाने के लिए लोकायुक्त के कार्यकाल में बढ़ोतरी की. गौरतलब है कि वसुंधरा सरकार कोठारी का कार्यकाल खत्म होने के ठीक दो दिन पहले अध्यादेश लेकर आई थी.

हाईकोर्ट इस याचिका पर कोई फैसला करता उससे पहले ही सरकार कार्यकाल घटाने का अध्यादेश ले आई. उल्लेखनीय है कि हाईकोर्ट में न्यायाधीश रहे एसएस कोठारी राजस्थान क 12वें लोकायुक्त हैं. उनकी नियुक्ति 25 मार्च, 2013 को हुई थी. उस समय प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और अशोक गहलोत मुख्यमंत्री थे. तत्कालीन राज्यपाल मारग्रेट अल्वा ने उन्हें पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई थी.

कोठारी राज्य के पहले लोकायुक्त हैं, जो पांच साल से ज्यादा अपने पद पर रहे हैं. इस दौरान शिकायतों के निपटारे की बात करें तो लोकायुक्त सचिवालय को उनके कार्यकाल में आमजन से 28,581 शिकायतें प्राप्त हुईं, जिनमें से 28,524 का निपटारा हो चुका है.

अटल बिहारी वाजपेयी का 50 साल पहले संसद में दिया भाषण फिर चर्चा में क्यों है?

ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन (ओआईसी) के सालाना सम्मेलन में विशेष अतिथि के तौर पर भारत की शिरकत को मोदी सरकार की बड़ी कूटनीतिक कामयाबी के रूप में देखा जा रहा है. ओआईसी के संस्थापक सदस्यों में शामिल पाकिस्तान के बहिष्कार के बावजूद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने सम्मेलन में न केवल भाग लिया, ब​ल्कि मंच से आतंकवाद को पालने-पोसने वालों को भी कोसा. हालांकि उन्होंने पाकिस्तान का नाम नहीं लिया.

अपने संबोधन में स्वराज ने कहा, ‘आतंकवाद के खतरे को सिर्फ सैन्य, खुफिया या कूटनीतिक तरीकों से नहीं हराया जा सकता, बल्कि इसे हमारे मूल्यों की मजबूती और धर्म के संदेश से जीता जा सकता है. यह सभ्यता और संस्कृति का टकराव नहीं है, बल्कि विचारों और आदर्शों के बीच प्रतिस्पर्धा है.’ यह पहला मौका है जब ओआईसी ने भारत को विशेष अतिथि के तौर पर अपने सम्मेलन में आमंत्रित किया और पाकिस्तान के बहिष्कार के बाद भी इस पर कायम रहा.

हालांकि पाकिस्तान की गैरमौजूदगी के बावजूद ओआईसी के प्रस्ताव में वे सब बातें थीं, जो पाकिस्तान इस मंच से उठाता रहा है. इसमें ‘भारतीय आतंकवाद’ नाम से एक नया नरेटिव जोड़ा गया. इसका जिक्र भारतीय सेना की ओर से कश्मीर में की जा रही कथित ज्यादतियों के सिलसिले में किया गया. इसके अलावा सम्मेलन में अयोध्या के विवादित स्थल पर फिर से बाबरी मस्जिद बनाने की मांग फिर से उठी. भारत की मौजूदगी में किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस तरह की बातें होना सुखद नहीं है, लेकिन इन पर गौर करने की बजाय इस बात पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है कि भारत ने पहली बार ओआईसी के सम्मेलन में हिस्सा लिया.

ओआईसी के सम्मेलन को संबोधित करतीं विदेश मंत्री सुषमा स्वराज

उस समय इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं और अटल बिहारी वाजपेयी विपक्ष की प्रमुख आवाज. उन दिनों संसद का सत्र भी चल रहा था. वाजपेयी ने संसद में इस मुद्दे को उठाते हुए जोरदार भाषण दिया. उन्होंने इसमें ओआईसी के मंच पर जाने पर ऐतराज जताते हुए कहा, ‘अध्यक्ष महोदय, रबात में हुए राष्ट्रीय अपमान के लिए देश की जनता से क्षमा याचना करने के बजाय सरकार जले पर नमक छिड़कने का काम रही है. इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि रबात में जो कुछ हुआ, वह हमारी राष्ट्रीय नीति के कारण हुआ. रबात का सम्मलेन इस्लामी देशों का सम्मलेन था, वह इस्लामी देशों द्वारा बुलाया गया था और उसमें इस्लामी देशों की समस्याओं पर विचार होना था.’

वाजपेयी ने आगे कहा, ‘भारत, जो कि एक इस्लामी देश नहीं है, ऐसे सम्मलेन में सरकारी तौर पर जाए, इसके औचित्य का समर्थन नहीं किया जा सकता. इससे पहले भी दुनिया के अनेक देशों में इस्लामी सम्मलेन हुए थे और भारत से कुछ प्रतिनिधि गए थे, लेकिन ये पहला अवसर है जब भारत ने सरकारी प्रतिनिधि मंडल भेजा. प्रतिनिधि मंडल में नेता कैबिनेट-स्तर के मंत्री थे. प्रतिनिधि मंडल में विदेश मंत्रालय के राज्य मंत्री भी थे. क्या सरकार इस बात को स्पष्ट करने की तकलीफ करेगी कि हमने इस तरह के इस्लामी सम्मलेन में गैर-सरकारी प्रतिनिधि मंडल को भेजने की नीति को क्यों छोड़ा?’

उन्होंने तर्क देते हुए कहा, ‘भारत में मुसलमान रहते हैं, उनकी संख्या काफी है. वो सामान नागरिकता के अधिकारों का उपयोग करते हैं. उन्हें राष्ट्र के प्रति समान कर्तव्यों का पालन करना है. मजहब के आधार पर हम अपनी जनता में कोई भेदभाव नहीं करते. हमने भारत में एक असांप्रदायिक राज्य स्थापित किया है. अध्यक्ष महोदय, 1955-56 में स्वेज नहर के संकट के बाद काहिरा में आयोजित इस्लामी सम्मलेन में जब भारत का प्रतिनिधि मंडल भेजने का सवाल आया तब पंडित जवाहरलाल नेहरु जीवित थे और मुझे बताया गया है कि उन्होंने कहा था कि हमें सरकारी प्रतिनिधि मंडल नहीं भेजना चाहिए. क्या वर्तमान विदेश मंत्री ने वह फाइल देखी है, जिस पर हमारे स्वर्गीय प्रधानमंत्री ने नोट लिखा था? कहा जाता है कि उस फाइल में से वो कागज़ गायब कर दिए गए हैं.’

वाजपेयी ने कहा, ‘कुआलालंपुर के सम्मलेन में मुझे याद है, मलेशिया के लोग हमें निमंत्रण देने के लिए आए थे. डॉ. जाकिर हुसैन से उन लोगों ने कहा था कि आप मुसलमान हैं और देश के राष्ट्रपति हैं. आपको एक प्रतिनिधि मंडल भेजना चाहिए. मुझे यह भी याद है कि डॉ. जाकिर हुसैन ने उनसे कहा था कि मैं मुसलमान हूं मगर मैं भारत का राष्ट्रपति भी हूं. हम एक सेक्युलर देश हैं और मुसलामानों के सम्मलेन में बुलाकर आप हमारी बेइज्जती कर रहे हैं.’

उन्होंने आगे कहा, ‘हमारी गुटनिरपेक्षता, सेक्युलरवाद की नीतियां विफल हो गयीं हैं. अध्यक्ष महोदय, अब तक जो सम्मलेन होते थे, उनमें शामिल होने के लिए हमारे पास बुलावे आया करते थे, हमें शामिल होने के लिए दावत दी जाती थी और हम जाने में संकोच करते थे, गैर-सरकारी स्तर पर जाने की बात करते थे. लेकिन रबात में हमें निमंत्रण की भीख मांगनी पड़ी. पहले निर्णय लिया गया था कि हमें नहीं बुलाया जाएगा. फिर हमने उन देशों के दरवाजे खटखटाए, हमने भारत में नयी दिल्ली स्थित दूतावासों की देहरियों पर माथे टेके. कहा जाता है हमें सर्वसम्मति से बुलाया गया था. मैं पूछना चाहता हूं कि ये सर्वसम्मति रात ही रात में कैसे बदल गई? इसका उत्तर ये दिया जाता है कि पाकिस्तान के प्रेसिडेंट पर वहां की जनता ने दवाब डाला और पाकिस्तान से तार गया कि अगर आप भारत को शामिल करना स्वीकार कर लेंगे तो आपकी खैर नहीं. पाकिस्तान में लोकतंत्र नहीं है, डिक्टेटरशिप है.’

वाजपेयी ने अपने संबोधन में आगे कहा, ‘हमारे यहां की लोकतंत्रीय सरकार तार से नहीं हिलती, श्री पेरुमान मर जाएं तो यह टस से मस नहीं होती, तेलंगाना की जनता गोलियां खाती रहें, इस सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगती, हम हजारों लोगों को प्रधानमंत्री के दरवाजे पर ले जाएं और त्यागपत्र मांगें, लेकिन प्रधानमंत्री हमें अनुगृहीत नहीं करतीं. अध्यक्ष महोदय, ये लोकतांत्रिक देश का हाल है और हमसे ये कहा जा रहा है कि आप ये मान लीजिए कि पाकिस्तान के डिक्टेटर को कुछ तार मिले और पहले जिस पकिस्तान के डिक्टेटर ने हमारे राजदूत से हाथ मिलाया था और सर्वसम्मति से हमें बुलाने का फैसला किया था, रात-ही-रात में उसको इल्हाम हुआ कि अगर सवेरे भारत आ गया तो उनकी तानाशाही खत्म हो जाएगी. ये हास्यास्पद बातें हैं.’

सऊदी अरब के जेद्दाह शहर में ओआईसी का मुख्यालय

उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘मैं तो एक ही निष्कर्ष पर पंहुचा हूं कि भारत को सर्वसम्मति से बुलाने का निर्णय एक चाल थी. यह एक जाल था हमें बुलाकर अपमानित करने के लिए और हम उस जाल में फंस गए. इस्लामी गुट में शामिल होने की कोशिश करके हमने यूनाइटेड नेशंस को कमजोर किया है. हमने अफ्रीकी और एशियाई देशों की एकता पर चोट की है. हमने अरब देशों की एकता को भी भंग किया है. यूनाइटेड नेशंस के चार्टर में रीजनल ग्रुपिंग्स की इजाजत है, लेकिन मजहबी ग्रुपिंग्स की नहीं. हमें इसका विरोध करना चाहिए. लेकिन हमारी सरकार उस हवा में उड़ गयी, उसके पैर उखड़ गए और अब उस गलती को मानने के बजाय उस पर लीपापोती की जा रही है.’

वाजपेयी ने अपने भाषण में आगे कहा, ‘युगोस्लाविया के अखबार का उदहारण देकर मैं अपने भाषण को समाप्त करना चाहूंगा. यह रिव्यु ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स है जो कि फेडरेशन ऑफ युगोस्लाव जर्नलिस्ट द्वारा प्रकाशित किया जाता है. इस अंक में युगोस्लाविया के एक बड़े तत्वज्ञ लगोमिर मनोविच का लेख प्रकाशित हुआ है. मैं उनके विचार उद्घृत कर रहा हूं. उन्होंने कहा है कि यदि मुस्लिम देशों की कोई सभा किसी धार्मिक मसले पर बुलाई जाती है, जैसे किसी धार्मिक स्थान अल अक्सा या किसी दूसरे अंतरराष्ट्रीय स्तर के पवित्र स्थल जैसे जेरुसलम का कोई हिस्सा, तो यह तर्कपूर्ण कहा जा सकता है, लेकिन यहां तर्क स्पष्ट नहीं है. सभा धार्मिक आधार पर बुलाई गई है और राजनैतिक समस्याओं पर विचार विमर्श होना है.’

वाजपेयी ने आगे कहा, ‘मेरी एक और शिकायत है. सेकुलरवाद का मतलब देश के भीतर सभी धर्मों को समान समझना और मज़हब को राजनीति से अलग रखना. प्रधानमंत्री कहती हैं कि रबात में इसलिए गए की वहां पर राजनीतिक मसलों पर चर्चा होनी वाली थी. इसी स्थिति में हमारे वहां जाने पर तो और आपत्ति होनी चाहिए थी. उस सम्मलेन को इस्लामी देशों ने बुलाया. एजेंडा में इस्लामी देशों के सहयोग की चर्चा थी और बाद में जो घोषणा प्रकाशित की गई उसमें इस्लामी देशों का नाम लिया गया. जब इस्लामिक देश राजनीतिक सवालों पर चर्चा करते हैं तब हम वहां पर नहीं जा सकते. यह हमारी सेकुलरिज्म की नीति के खिलाफ है.’

वाजपेयी ने अपना भाषण समाप्त करते हुए कहा, ‘वे इस्लाम की चर्चा करें तो हमारे देश के मुसलमान प्रतिनिधि बनकर जा सकते हैं, लेकिन वे जब राजनीति को मजहब से मिलाते हैं, इस्लाम को राजनीति से मिलाते हैं तो हमारे लिए अपने दरवाजे बंद कर देते हैं. लेकिन रबात में हम दरवाजा तोड़कर घुस गए और बेआबरू होकर वहां से निकले, इसके लिए माफी मांगने की बजाय सरकार गलती दोहरा रही है और मुझे डर है भविष्य में ये विदेश मंत्रियों के सम्मलेन में भाग लेंगे. अगर सरकार ने सारी नीतियों और राष्ट्रीय हितों को ताक पर रखकर अंधेरे में छलांग लगाने का फैसला कर लिया है तो हम उसे एक और धक्का देने के लिए तैयार हैं. लेकिन देश की जनता इस अपमान को कभी सहन नहीं करेगी. धन्यवाद.’

अटल बिहारी वाजपेयी का यह भाषण सुनकर आप ही अंदाजा लगाइए कि ओआईसी के सम्मेलन में शिरकत करना भारत के लिए कितनी बड़ी उपलब्धि है. बता दें कि ओआईसी 57 देशों का समूह है, जो इस्लाम को मानने वाले देशों से मिलकर बना है. 1969 में येरुशलम में अल अक्सा मस्जिद पर हमले के बाद मुसलमानों के पवित्र स्थलों को महफूज बनाने, परस्पर सहयोग बढ़ाने, नस्लीय भेदभाव और उपनिवेशवाद का विरोध करते हुए इस समूह की स्थापना की गई. पाकिस्तान ने इस मंच का भारत के खिलाफ जमकर दुरुपयोग किया. 2000 तक तो भारत ने यहां पारित होने प्रस्तावों पर ऐतराज जताया, लेकिन बाद में इन पर प्रतिक्रिया देना बंद कर दिया.

‘इतना तो मजनू भी नहीं पिटा था लैला के प्यार में, जितना विधायक जी पिट गए अपनी सरकार में’

उत्तर प्रदेश की संतकबीर नगर सीट से सांसद शरद त्रिपाठी और इसी जिले के मेंहदावल विधानसभा क्षेत्र से विधायक राकेश बघेल के बीच हुई जूतमपैजार का वीडियो सोशल मीडिया में जमकर वायरल हो रहा है. सड़क निर्माण के शिलापट्ट पर अपना नाम देखकर भड़के सांसद त्रिपाठी ने जिस तरह से विधायक बघेल पर जूतों की बारिश की, उसे देखकर राम रतन नरवारिया का ट्वीट है, ‘इतना तो मजनू भी नहीं पिटा था लैला के प्यार में, जितना विधायक जी पिट गए अपनी सरकार में.’ सोशल मीडिया में ‘जूताकांड’ पर आई कुछ और दिलचस्प प्रतिक्रियाएं :

गौरव यादव | @GauravY09592717

जूताकांड के बाद आदरणीय मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ जी ने जूते का नाम बदलकर फूल कर दिया है. इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि सांसद जी ने विधायक जी के ऊपर फूलों की बारिश की… बुरा न मानो होली आने वाली है.

रविनंदन | @ravinan30310294

कितना दुष्प्रचार किया जा रहा रहा है प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना के तहत डॉ. शरद द्वारा राकेश बघेल के सरदर्द के जूत्तोपचार का.

साड्डा हक ऐत्थे रख | @77_ShabadPrahar

जूताकांड पर थप्पड़िया_स्ट्राइक करते हुए हमारे भाजपाई मित्रों ने खूद को बाहुबली सिद्ध कर दिया है. अब लट्ठम—लट्ठा स्ट्राइक करते हुए कौनसी पार्टी के नेता हमारे भाजपाई मित्रों से बाहुबलियाना खिताब छीनने की क्षमता रखते हैं? निर्लज्ज होकर इच्छुक नेता जनता को अपने नाम बता सकते हैं.

व्योमेश यादव | @ByomeshChandra

बनारस में पूल गिरा – अज्ञात ठेकेदार पर एफआईआर
विवेक तिवारी की हत्या – अज्ञात पुलिस वाले पर एफआईआर
अब जूता काण्ड में- अज्ञात पर एफआईआर
अब तक किसी भी न्यायालय ने खुद से संज्ञान में क्यों नहीं लिया?

विपिन भाटी | @THAKURVIPINBHA1

जूता स्ट्राइक के बाद से ‘चाचा विधायक हैं हमारे’ कहने वाले लोगों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई.

 

क्या गहलोत ने अभिनंदन के पिता की कांग्रेस में शामिल होने खबर पोस्ट की?

भारत की ओर से की गई एयर स्‍ट्राइक के बाद सोशल मीडिया पर झूठी खबरों की बाढ़ आ गई है. पिछले कई दिन से एक फेसबुक पर एक पोस्ट वायरल हो रही है, जिसमें भारतीय सेना के विंग कमांडर अभिनंदन के पिता के कांग्रेस में सूचना है. यह पोस्ट और किसी ने नहीं, बल्कि अशोक गहलोत ने की है. जी हां, जिस पेज से यह अभिनंदन के पिता के कांग्रेस में शामिल होने की पोस्ट है वह अशोक गहलोत के नाम से ही है. सचिन पायलट के नाम से बने एक पेज पर भी हूबहू पोस्ट है. इस पोस्ट को कई यूजर्स ने शेयर किया है. साथ ही फेसबुक के कई यूजर्स ने अपनी वॉल पर इस जानकारी को पोस्ट पर किया है.

सच क्या है?
ये पेज है तो अशोक गहलोत के नाम से पर इसे चलाता कोई और ही है. गहलोत का अधिकृत पेज दूसरा है, जो फेसबुक की तरफ से वेरिफाइड है. इस पेज पर इस तरह की कोई सूचना नहीं है. सचिन पालयट की पेज की भी यही स्थिति है. इस पेज में नाम तो उनका है, लेकिन इसे चला और कोई ही रहा है. यानी गहलोत और पायलट के नाम से चल रहे फेसबुक पेज पर अभिनंदन के पिता के कांग्रेस में शामिल होने की जानकारी पोस्ट की गई है, वे ही फर्जी हैं.

जहां तक अभिनंदन के पिता के कांग्रेस में शामिल होने का सवाल है, उनका नाम सिम्हाकुट्टी वर्थमान है. वे एयर फोर्स से रिटायर अनुभवी एयर मार्शल हैं. 4000 घंटों से ज्यादा फाइटर प्लेन उड़ाने का अनुभव और 40 तरह के एयर क्राफ्ट उड़ाने का अनुभव उनके पास है. उन्होंने कारगिल युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. फिलहाल उन्होंने कांग्रेस तो क्या किसी भी राजनीतिक पार्टी का दामन नहीं थामा है. न ही उनका ऐसा करने का कोई इरादा है.

जब कांग्रेस विधायकों ने राजस्थान की विधानसभा को बेडरूम बनाया

संसद और विधानसभा में हंगामे के सीन आम हैं. किसी मुद्दे पर सरकार को घेरने का यह सबसे प्रचलित जरिया है, लेकिन जब सदन में विपक्ष की बुलंद आवाज नक्कारखाने में तूती साबित होती है तो ऐसे रास्ते अपनाने से भी गुरेज नहीं होता जो ऐतिहासिक बन जाते हैं. कुछ ऐसा ही वाकया राजस्थान की विधानसभा में साल 2017 में हुआ. उस समय राजस्थान में 163 सीटों के प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई वसुंधरा राजे के नेतृत्व वाली वसुंधरा सरकार थी और महज 21 सीटों पर सिमटी कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में थी.

अक्टूबर के महीने में विधानसभा का सत्र चल रहा था और कांग्रेस विधायक किसानों की समस्याओं और कर्जमाफी पर हंगामा कर रहे थे, लेकिन इससे सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी तो विपक्ष ने अपनी मांगों को मनवाने का मजेदार तरीका चुना. हंगामे के चलते विधानसभा अध्यक्ष कैलाश मेघवाल ने सदन की कार्यकाही अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दी. मेघवाल आसन से उठकर चले गए और मंत्री व सत्ता पक्ष के विधायक भी बाहर निकल गए, लेकिन कांग्रेस विधायक वहीं धरने पर बैठ गए.

सबको लगा था कि विपक्ष के विधायक कुछ देर में उठकर चले जाएंगे, लेकिन वे टस से मस नहीं हुए. नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी ने एलान कर दिया कि जब तक हमारी मांगें नहीं मानी जाती तब तक विधानसभा के भीतर धरना जारी रहेगा. टेंट हाउस से बिस्तर मंगवाए गए और होटल से खाना. विधायकों ने खाना खाया और विधानसभा की लॉबी में बिस्तर बिछाकर सो गए. यानी ​विधानसभा बेडरूम बन गया. नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी, धीरज गुर्जर, रमेश मीणा, गोविंद सिंह डोटासरा, घनश्याम मेहर, रामनारायण गुर्जर, दर्शन सिंह, मेवाराम जैन, सुखराम विश्नोई, शकुंतला रावत, श्रवण कुमार, भंवर सिंह भाटी, भंवर लाल शर्मा, विजेंद्र ओला, महेंद्रजीत सिंह मालवीय व भजन लाल जाटव इनमें शामिल थे.

इनके अलावा निर्दलीय नंदकिशोर महरिया व राजकुमार शर्मा और बसपा विधायक मनोज न्यांगली ने यहीं करवट बदली. विपक्ष के विधायकों को मनाने के लिए विधानसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष आए, विधायकों ने उनकी भी नहीं सुनी और अपना धरना जारी रखा. हालांकि सुबह होने पर सब अपने—अपने घर तैयार होने के लिए चले गए.

किसी जमाने में संसद के सेंट्रल हॉल में चलता था देश का सुप्रीम कोर्ट

कई ऐतिहासिक आयोजनों का गवाह रहा संसद का सेंट्रल हॉल किसी जमाने में देश की सर्वोच्च अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट को ठिकाना भी रहा है. 26 जनवरी, 1950 को सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के बाद 28 जनवरी का विधिवत उद्घाटन सेंट्रल हॉल में ही हुआ. आठ साल तक कोर्ट सेंट्रल हॉल के ​एक हिस्से में चला. यहीं पर वकील जिरह करते थे और जज फैसले सुनाते थे. 1958 में सुप्रीम कोर्ट उस ​बिल्डिंग में शिफ्ट हो गया जहां अभी है.

ससद के सेंट्रल हॉल में ही 1947 में अंग्रेजों ने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु को सत्‍ता का हस्‍तांतरण किया था. कम ही लोगों को पता है कि देश का संविधान भी यहीं बैठकर लिखा गया. संविधान सभा 9 दिसंबर, 1946 को सेंट्रल हॉल में पहली बार मिली. इसके साथ ही यहां पर संविधान के लिखे जाने का काम शुरू हु. 26 नवंबर, 1949 तक यहीं पर संविधान लिखा गया. 1946 तक संसद के सेंट्रल हॉल का प्रयोग लाइब्रेरी के तौर पर होता था, जिसका प्रयोग केंद्रीय संसदीय सभा और कॉउंसिल ऑ‍फ स्‍टेट्स के सदस्य करते थे.

हर लोकसभा चुनावों के बाद होने वाले पहले सत्र के दौरान इसी हॉल में इकट्ठा सांसदों को राष्‍ट्रपति संबोधित करते हैं. संसद के सत्र के समय भी इसी हॉल में राष्‍ट्रपति का संबोधन होता है. यदि कभी संसद का संयुक्त सत्र बुलाने का मौका हो तो इसका आयोजन भी यहीं होता है. नई सरकार के गठन के समय संसदीय दल की बैठक भी यहीं होती है, जिसमें प्रधानमंत्री पद के लिए नेता का चुनाव होता है.

किसी दूसरे देश के प्रमुख जब भारत के दौरे पर आते हैं तो इसी हॉल में उनका सम्‍मान किया जाता है. यदि उनका संबोधन होना होता है तो यहीं होता है. पिछले कई वर्षों से सेंट्रल हॉल सांसदों के आपस में मिलने—जुलने के ठिकाने के तौर पर चर्चित है. हॉल पूरी तरह से सिम्‍यूलेंटेनियस इंटरप्रिटेशन सिस्‍टम से लैस है. इस सिस्‍टम की बदौलत अलग भाषा के लोग सेंट्रल हॉल में होने वाले संबोधन को अपनी भाषा में सुन सकते हैं.

भवन का केंद्र बिंदु सेंट्रल हॉल का विशाल वृत्ताकार ढांचा है. इसका डिजाइन मशहूर आर्किटेक्ट लुटियंस ने तैयार किया और सर हर्बर्ट बेकर के निरीक्षण में इसे बनाया गया. संसद भवन का शिलान्यास 12 फरवरी, 1921 को ड्यूक आफ कनॉट ने किया और उद्घाटन तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन ने 18 जनवरी, 1927 को किया. संपूर्ण भवन के निर्माण कार्य में कुल 83 लाख रुपये की लागत आई. अपने डिजाइन के चलते शुरू में इसे सर्कुलर हाउस कहा जाता था.

गोलाकार आकार में निर्मित संसद भवन का व्यास 170.69 मीटर है. इसकी परिधि आधा किमी से अधिक है जो 536.33 मीटर है और करीब 6 एकड़ (24281.16 वर्ग मीटर) में फैला हुआ है. संसद भवन के पहले तल का गलियारा 144 मजबूत खंभों पर टिका है. प्रत्येक खंभे की लम्बाई 27 फीट है. इसकी बाहरी दीवार में मुगलकालीन जालियां हैं. 12 द्वार हैं, जिनमें गेट नम्बर एक मुख्य द्वार है. खंबों तथा गोलाकार बरामदों से निर्मित यह पुर्तगाली स्थापत्यकला का अदभुत नमूना पेश करता है। संसद भवन के निर्माण में भारतीय शैली के स्पष्ट दर्शन मिलते हैं.

राजस्थान के पहले गौरक्षा सम्मेलन के पीछे गहलोत सरकार की क्या सियासत है?

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को जादूगर कहा जाता है. राजनीति के जानकारों की मानें तो वे बड़ी सफाई से अपना एजेंडा लागू करते हैं, जिसकी विरोधियों को कानो-कान खबर नहीं होती है. बीते दो सालों में गहलोत ने अपना राजनीतिक कद और भी बड़ा कर लिया है. जिसके चलते वे पहले कांग्रेस के संगठन महासचिव के पद पर पहुंचे और विधानसभा चुनावों में मिली जीत के बाद अपनी राजनीतिक समझ के चलते तीसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.

मुख्यमंत्री बनने के बाद गहलोत ने कई त्वरीत फैसले लिए और आम जन के बीच कांग्रेस की किसान और युवा हितैषी छवि गढ़ना शुरु कर दी. इन सभी के बीच मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक ऐसा एजेंडा शुरु किया, जिसके दूरगामी परिणाम होना तय है. अशोक गहलोत ने आज प्रदेश के पहले राज्य स्तरीय गौरक्षा सम्मेलन का उद्घाटन किया. उन्होंने प्रदेश के कोने—कोने से आए गौरक्षकों की मौजूदगी में गौशालाओं के अनुदान बढ़ाने की बात कही.

जयपुर एग्जीबिशन एंड कन्वेंशन सेंटर में आयोजित इस कार्यक्रम में गहलोत ने गौशाला संचालकों को इस साल की पहली तिमाही का अनुदान जल्द जारी करने की घोषणा की. मुख्यमंत्री ने कहा कि हमारी संस्कृति में गाय को माता का दर्जा दिया गया है और इसमें 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास माना गया है. अपने भाषण में उन्होंने पूर्ववर्ती भाजपा सरकार द्वारा गौ संवर्धन के नाम पर किए गए दिखावे का उल्लेख किया. गहलोत ने गौचर भूमि पर पहला हक पशुधन का बताते हुए गौ सेवकों से गौचर और चारागाह भूमि के संरक्षण का वादा किया.

आमतौर पर देखा गया है कि गाय को लेकर भाजपा प्रदेश के अनेक हिस्सों में राजनीति करती रही है, लेकिन लोकसभा चुनावों से ठीक पहले आयोजित इस तरह के कार्यक्रम के बाद राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे कांग्रेस की सियासत में बदलाव का बड़ा संकेत माना है. जानकारों का मानना है कि अब कांग्रेस पार्टी किसी भी सूरत में गाय को केवल भाजपा के लिए नहीं छोड़ना चाहती.

गौरतलब है कि देश आजाद होने के बाद कांग्रेस पार्टी ने दो बैलों की जोड़ी के चुनाव चिन्ह पर ही देश की जनता से वोट मांगे थे. शुरुआती चार लोकसभा चुनावों में दो बैलों की जोड़ी पर चुनाव लड़ने के बाद जब 1969 में कांग्रेस दो फाड़ हो हो गई तो चुनाव आयोग ने दो बैलों के चुनाव चिन्ह को जब्त कर लिया. इस घटना पर विजय सांघवी ने अपनी किताब ‘द कांग्रेस – इंदिरा टू सोनिया गांधी’ में लिखा है, ‘1969 के चुनावों से पहले पुरानी कांग्रेस के पास दो बैलों की जोड़ी का चुनाव चिन्ह था. ऐसे में इंदिरा गांधी ने लगातार चार चुनावों से आम जनता के बीच कांग्रेस के इस प्रतीक चिन्ह का तोड़ निकाल लिया और सावधानीपूर्वक गाय और बछड़े को चुनाव चिन्ह के रूप में प्राप्त कर लिया.’

हालांकि आपातकाल के दौर में इस चुनाव चिन्ह को लेकर भारी आलोचना हुई. कई पुराने कांग्रेसी नेताओं ने इस सिम्बल की परिभाषा करते हुए सार्वजनिक मंचों पर भाषण दिए जिसमें गाय को इंदिरा और बछड़े को संजय गांधी का प्रतीक बताया. कई तरह की आपत्तियों और आलोचनाओं के बाद चुनाव आयोग ने कांग्रेस को नया प्रतीक चुनने को कहा. तब जाकर इंडियन नेशनल कांग्रेस का वर्तमान प्रतीक हाथ का चुनाव चिन्ह मिल सका और बैलों की जोड़ी से शुरु हुई चुनाव चिन्ह की कहानी हाथ पर आ टिकी.

देश की आजादी के शुरूआती 30 वर्षों तक कांग्रेस पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए गौवंश ही चुनावी प्रचार का परिचायक रहा. अब लगभग 42 साल बाद कांग्रेस ने गाय के एजेंडे को प्राथमिकता देना शुरु कर दिया है. राजस्थान से शुरु हुई इस पहल पर कांग्रेसनीत अन्य राज्यों की सरकारों ने भी काम करना शुरु कर दिया है. अगर कांग्रेस गौ सेवा और संवर्धन के अपने एजेंडे को लागू करती है तो अशोक गहलोत का यह स्ट्रोक इसकी शुरुआत के तौर पर देखा जा सकता है.

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