राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को जादूगर कहा जाता है. राजनीति के जानकारों की मानें तो वे बड़ी सफाई से अपना एजेंडा लागू करते हैं, जिसकी विरोधियों को कानो-कान खबर नहीं होती है. बीते दो सालों में गहलोत ने अपना राजनीतिक कद और भी बड़ा कर लिया है. जिसके चलते वे पहले कांग्रेस के संगठन महासचिव के पद पर पहुंचे और विधानसभा चुनावों में मिली जीत के बाद अपनी राजनीतिक समझ के चलते तीसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.
मुख्यमंत्री बनने के बाद गहलोत ने कई त्वरीत फैसले लिए और आम जन के बीच कांग्रेस की किसान और युवा हितैषी छवि गढ़ना शुरु कर दी. इन सभी के बीच मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक ऐसा एजेंडा शुरु किया, जिसके दूरगामी परिणाम होना तय है. अशोक गहलोत ने आज प्रदेश के पहले राज्य स्तरीय गौरक्षा सम्मेलन का उद्घाटन किया. उन्होंने प्रदेश के कोने—कोने से आए गौरक्षकों की मौजूदगी में गौशालाओं के अनुदान बढ़ाने की बात कही.
जयपुर एग्जीबिशन एंड कन्वेंशन सेंटर में आयोजित इस कार्यक्रम में गहलोत ने गौशाला संचालकों को इस साल की पहली तिमाही का अनुदान जल्द जारी करने की घोषणा की. मुख्यमंत्री ने कहा कि हमारी संस्कृति में गाय को माता का दर्जा दिया गया है और इसमें 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास माना गया है. अपने भाषण में उन्होंने पूर्ववर्ती भाजपा सरकार द्वारा गौ संवर्धन के नाम पर किए गए दिखावे का उल्लेख किया. गहलोत ने गौचर भूमि पर पहला हक पशुधन का बताते हुए गौ सेवकों से गौचर और चारागाह भूमि के संरक्षण का वादा किया.
आमतौर पर देखा गया है कि गाय को लेकर भाजपा प्रदेश के अनेक हिस्सों में राजनीति करती रही है, लेकिन लोकसभा चुनावों से ठीक पहले आयोजित इस तरह के कार्यक्रम के बाद राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे कांग्रेस की सियासत में बदलाव का बड़ा संकेत माना है. जानकारों का मानना है कि अब कांग्रेस पार्टी किसी भी सूरत में गाय को केवल भाजपा के लिए नहीं छोड़ना चाहती.
गौरतलब है कि देश आजाद होने के बाद कांग्रेस पार्टी ने दो बैलों की जोड़ी के चुनाव चिन्ह पर ही देश की जनता से वोट मांगे थे. शुरुआती चार लोकसभा चुनावों में दो बैलों की जोड़ी पर चुनाव लड़ने के बाद जब 1969 में कांग्रेस दो फाड़ हो हो गई तो चुनाव आयोग ने दो बैलों के चुनाव चिन्ह को जब्त कर लिया. इस घटना पर विजय सांघवी ने अपनी किताब ‘द कांग्रेस – इंदिरा टू सोनिया गांधी’ में लिखा है, ‘1969 के चुनावों से पहले पुरानी कांग्रेस के पास दो बैलों की जोड़ी का चुनाव चिन्ह था. ऐसे में इंदिरा गांधी ने लगातार चार चुनावों से आम जनता के बीच कांग्रेस के इस प्रतीक चिन्ह का तोड़ निकाल लिया और सावधानीपूर्वक गाय और बछड़े को चुनाव चिन्ह के रूप में प्राप्त कर लिया.’
हालांकि आपातकाल के दौर में इस चुनाव चिन्ह को लेकर भारी आलोचना हुई. कई पुराने कांग्रेसी नेताओं ने इस सिम्बल की परिभाषा करते हुए सार्वजनिक मंचों पर भाषण दिए जिसमें गाय को इंदिरा और बछड़े को संजय गांधी का प्रतीक बताया. कई तरह की आपत्तियों और आलोचनाओं के बाद चुनाव आयोग ने कांग्रेस को नया प्रतीक चुनने को कहा. तब जाकर इंडियन नेशनल कांग्रेस का वर्तमान प्रतीक हाथ का चुनाव चिन्ह मिल सका और बैलों की जोड़ी से शुरु हुई चुनाव चिन्ह की कहानी हाथ पर आ टिकी.
देश की आजादी के शुरूआती 30 वर्षों तक कांग्रेस पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए गौवंश ही चुनावी प्रचार का परिचायक रहा. अब लगभग 42 साल बाद कांग्रेस ने गाय के एजेंडे को प्राथमिकता देना शुरु कर दिया है. राजस्थान से शुरु हुई इस पहल पर कांग्रेसनीत अन्य राज्यों की सरकारों ने भी काम करना शुरु कर दिया है. अगर कांग्रेस गौ सेवा और संवर्धन के अपने एजेंडे को लागू करती है तो अशोक गहलोत का यह स्ट्रोक इसकी शुरुआत के तौर पर देखा जा सकता है.