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ओडिशा में फिर ‘पटनायक सरकार’ 5वीं बार बने प्रदेश के मुख्यमंत्री

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ओडिशा में फिर से एक बार ‘पटनायक सरकार’ के हाथों में प्रदेश की सत्ता की कमान आ गई है. आज नवीन पटनायक ने 5वीं बार ओडिशा के मुख्यमंत्री की शपथ ग्रहण की. भुवनेश्वर में राज्य के राज्यपाल गणेशीलाल ने उन्हें पद एवं गोपनियता की शपथ ग्रहण कराई.
इस दौरान 11 कैबिनेट और 9 राज्य मंत्रियों ने भी शपथ ग्रहण की. वह बीजू जनता दल के संस्थापक भी हैं. पटनायक 2000 में पहली बार ओडिशा के मुख्यमंत्री बने थे.  बता दें, पटनायक अटल सरकार में कैबिनेट मंत्री पद का निर्वाह कर चुके हैं.

प्रदेश की सत्ता में लंबे समय से काबिज बीजू जनता दल ने इस बार के विधानसभा चुनावों में शानदार प्रदर्शन के दम पर दमदार वापसी की है. प्रदेश की 149 सीटों में से बीजेडी ने 122 सीटों पर जीत दर्ज कर एकछत्र राज्य कायम रखा है. बीजेपी के हाथ 22 सीटें लगी. कांग्रेस को केवल 9 सीटें हाथ लगी. लोकसभा चुनाव में भी बीजेडी का प्रदर्शन शानदार रहा है. लोकसभा की कुल 21 सीटों में से पटनायक पार्टी ने 12 सीटें अपने नाम की हैं. आठ पर बीजेपी और एक सीट पर कांग्रेस ने कब्जा जमाया है.

सीएम पद की शपथ लेने के बाद ओडिशा के मुख्यमंत्री को नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर बधाई दी है.

कांग्रेस के दिग्गज नेता राहुल गांधी को अध्यक्ष पद क्यों नहीं छोड़ने दे रहे?

लोकसभा चुनाव में मोदी की सुनामी में हुई बड़ी हार से कांग्रेस सकते में आ गई है. मंथन के साथ अब बयानबाजी का दौर शुरू हो गया है. हर कोई एक-दूसरे पर हार का ठीकरा फोड़ने में लगा है. दिग्गज नेता टीम राहुल को कसूरवार ठहरा रही है तो दूसरी पंक्ति के नेता दिग्गजों यानी पार्टी की सबसे पावरफुल बॉडी में शामिल नेताओं को ही हार का जिम्मेदार बता रहे हैं. बेशर्मी देखिए कि इतनी करारी हार के बाद भी ये दिग्गज नेता गांधी खानदान के सदस्य को ही राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने पर आमादा हैं.

इसी के चलते CWC में तमाम सदस्यों ने राहुल गांधी को ही अध्यक्ष बरकरार रखने की एक स्वर में आवाज उठाई. बैठक हार के कारणों को लेकर बुलाई गई थी, लेकिन पूरी बैठक सिर्फ और सिर्फ इस बात पर फोकस रही कि राहुल गांधी अध्यक्ष पद से इस्तीफा नहीं दें, क्योंकि इनको डर था कि राहुल की जगह दूसरा अध्यक्ष बनेगा तो वो उन्हें दरकिनार करते हुए हाशिए पर ना धकेल दे. लेकिन राहुल आज भी अडिग है कि मैं नैतिकता के नाते इस्तीफा देकर रहूंगा. उन्होंने यह भी कहा है गैर गांधी परिवार के किसी नेता को अध्यक्ष चुन लिया जाए.

आखिर दिग्गज नेताओं का राहुल पर इतना क्यों बरस रहा है प्यार?
दरअसल, CWC में शामिल नेता कई दशकों से राजनीति में हैं. राज्यसभा सांसद और मंत्री बनने से लेकर हर मलाई वाली पोस्ट पर ये काबिज रहे हैं. यहां तक की अहमद पटेल जैसे नेताओं का तो रोल इतना रहा है कि अपने पसंद के नेता को देश में सीएम बना दिया या फिर टिकट दे दिया. वहीं, कई नेता तो ऐसे है जिन्होंने कई साल से चुनाव नहीं लड़ा है, लेकिन गांधी खानदान के आशीर्वाद से राज्यसभा में जा बैठते हैं. CWC में शामिल ज्यादातर नेता इस बार लोकसभा चुनाव हार गए हैं.

ऐसे में उन्हें डर है कि अगर नैतिकता के नाते राहुल इस्तीफा देते हैं तो फिर मजबूरी में उन्हें भी इस्तीफा देना पड़ेगा. वहीं, राहुल गांधी इनसे इसलिए भी दुखी हैं कि उन्हें यह मलाल हो रहा था कि वो केवल नाममात्र के अध्यक्ष बनकर रह गए हैं, जबकि फैसले लेते है ये चंद वरिष्ठ नेता. लेकिन सच्चाई यह है कि इन नेताओं को बस अपना सिक्का चलने से मतलब है. दिल्ली में शानदार सरकारी बंगला मिल जाए और आगे-पीछे पार्टी नेता जिंदाबाद-जिंदाबाद के नारे लगाते रहें. अब यही नेता राहुल गांधी के इस्तीफा देने पर पार्टी बिखरने की दुहाई दे रहे हैं.

ये दिग्गज नेता दलील दे रहे हैं कि गैर गांधी परिवार के नेता को अध्यक्ष बनाने पर गुटबाजी बढ़ जाएगी. ऐसे में पहले से कमजोर पार्टी की मुश्किलें और ज्यादा हो जाएंगी. इसलिए इस मुश्किल हालात में गांधी परिवार के सदस्य की बेहद जरूरत है. बताया जा रहा है कि पी. चिदंबरम तो CWC बैठक में राहुल के इस्तीफा देने पर भावुक हो गए. वहीं, कुछ नेता कह रहे हैं कि पार्टी में फिलहाल ऐसा कोई नेता नहीं है जो अध्यक्ष पद के काबिल है.

एके एंटनी तो दो कदम आगे चल गए और कहा कि 52 सीटें आना कोई बड़ी त्रासदी नहीं है. दरअसल, मोदी के समर्थकों को अंधभक्त कहने वाले इन नेताओं को क्या इतना भी मालूम नहीं है कि जनता राहुल और वंशवाद को सिरे से खारिज कर चुकी है. दरअसल, जानकर अंजान बनने वाले इन नेताओं को कांग्रेस पार्टी मजबूत होने से ज्यादा अपनी दुकान बंद होने की चिंता है.

भले ही ये दिग्गज नेता चतुराई का परिचय दे रहे हों, लेकिन लगता है राहुल गांधी अब इनकी चालों में नहीं फंसने वाले. राहुल साफ जाहिर कर चुके हैं कि आज नहीं तो कल मेरा विकल्प ढूंढ लेना और वो भी गांधी परिवार से इतर. फिर भी अब अगर राहुल गांधी इस्तीफा नहीं देते हैं तो यह वीटो पॉवर लेकर रहेंगे कि दिग्गज नेता उनके कामकाज में कभी दखलंदाजी नहीं करेंगे.

पायलट-गहलोत से नहीं मिले राहुल, पीसीसी की बैठक में हंगामा होने के आसार

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राजस्थान में करारी हार के बाद कांग्रेस में दिल्ली से लेकर जयपुर तक गतिविधियां तेज हो चुकी हैं. मंगलवार को सीएम अशोक गहलोत और डिप्टी सीएम सचिन पायलट की राहुल गांधी से मुलाकात का कार्यक्रम था, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष दोनों में से किसी से नहीं मिले. हालांकि प्रियंका गांधी ने गहलोत और पायलट से मुलाकात की. जानकारी के मुताबिक प्रियंका ने राहुल गांधी के 12 तुगलक लेन स्थित सरकारी आवास पर दोनों से अलग-अलग मुलाकात की. बताया जा रहा है कि प्रियंका गांधी पहले पीसीसी चीफ सचिन पायलट से मिलीं और बाद में अशोक गहलोत से चर्चा की.

पीसीसी की बैठक में हंगामा होने के आसार

राजस्थान में हार के कारणों को लेकर बुधवार को पीसीसी में पदाधिकारियों की अहम बैठक बुलाई गई है. सूत्रों के मुताबिक इस बैठक में हंगामा होने के पूरे आसार हैं. कई पदाधिकारी और जिनको टिकट नहीं मिला वो अपना दुखड़ा बैठक में उठा सकते हैं. बैठक में सीएम अशोक गहलोत, पीसीसी चीफ सचिन पायलट और प्रभारी अविनाश पांडेय मौजूद रहेंगे. बैठक में कोई अप्रत्याशित सियासी घटनाक्रम भी देखने को मिल सकता है. यानी कईं नेता इस्तीफे की पेशकश कर सकते हैं.

राहुल गांधी स्टाफ के इन लोगों ने किया कांग्रेस का बेड़ा गर्क

कांग्रेस की करारी हार को लेकर पार्टी में मंथन का सिलसिला जारी है. एक ओर जहां राहुल गांधी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को हार के लिए कसूरवार ठहरा रहे है तो वहीं दूसरी तरफ वरिष्ठ नेता राहुल की टीम पर ही हार का ठीकरा फोड़ रहे हैं. दिग्गजों का दावा है कि राहुल की टीम में शामिल लोग भले ही विदेशों में पढ़े प्रोफेशनल और प्रशासनिक सेवा में रहे हो, लेकिन उन्हें राजनीति की एबीसीडी का जरा सा भी ज्ञान नहीं था.

ये लोग राहुल गांधी से कई दिनों तक मिलने नहीं देते थे और राहुल पर इनका जादू ऐसा था कि अंतिम फैसला इनसे पूछकर ही करते थे.इनमें के राजू राहुल गांधी के एक तरह से सबकुछ थे. वो राहुल को अगर दिन में भी रात बताते तो वो मान लेते थे. इसके अलावा संदीप सिंंह, अलंकार सवई, कौशल विद्यार्थी, सचिन राव, निखिल अल्वा और सैम पित्रोदा राहुल टीम के सदस्य थे. राहुल के प्रचार से लेकर भाषण और मीडिया से बातचीत सबकुछ ये ही तय करते थे. पार्टी के बड़े नेता राहुल की टीम को भी इतनी बड़ी हार के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. आइए जानते हैं कि इनकी क्या-क्या भूमिका रही.

के राजू

के राजू राहुल गांधी के हाथ में पार्टी की कमान आते ही एक तरह से सर्वेसर्वा हो गए थे. राहुल हर कदम के राजू की सलाह पर ही उठाते थे. कमाल की बात देखिए कि सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी एक पूर्व आईएस के इशारों पर चलने लगी थी. इसके अलावा राहुल के स्टॉफ की अधिकतर नियुक्ति भी उनकी सिफारिश पर हुई थी. वहीं राहुल की प्रोफेशनल टीम बनाने का काम भी के राजू ने अंजाम दिया. अफसोस एक अफसर को प्रशासनिक काम देने के बजाय सियासी फैसले लेने की बागडोर दे दी गई. के राजू पार्टी के अनुसूचित जाति विभाग के अध्यक्ष भी है.

निखिल अल्वा

पूर्व राज्यपाल मारग्रेट अल्वा के बेटे निखिल अल्वा राहुल के कॉलेज के जमाने से दोस्त है. ये राहुल का सारा सोशल मीडिया का काम देखते थे और निखिल ने चुनाव से अचानक पहले राहुल गांधी किस मीडिया संस्थान को इंटरव्यू देंगे यह जिम्मेदारी भी रणदीप सुरजेवाला से हथिया ली. निखिल को अचानक इतना बड़ा जिम्मा मीडिया रिलेशनशिप का ज्यादा तजुर्बा नहीं होने के बावजूद मिल गया था. निखिल अल्वा की पढाई भी भारत से बाहर हुई है.

अंलकार सवई

अंलकार सवई का अपनी जिंदगी में पहले कभी राजनीति से वास्ता नहीं पड़ा. राहुल के स्टॉफ से पहले अंलकार कई विदेशी बैंकों में काम कर चुके थे. चुनाव के दौरान और उससे पहले अंलकार राहुल के निजी सचिव के तौर पर रिसर्च और डॉक्यूमेंटेशन का कामकाज देख रहे थे. राहुल बैठक कहां करेंगे, कार्यक्रम कैसा रहेगा, यह नोटिंग का काम भी अलंकार देखने लगे. बैंकर्स से राजनीति कार्यक्रम कराना वैसा ही होगा जैसे बंदर के हाथ में उस्तरा देना.

संदीप सिंह

राहुल के दफ्तर में जो पीए लोगों की टीम है उनमें ज्यादातर वामपंथी सोच के है. राहुल ही नहीं प्रियंका गांधी के पीए का रोल निभाने वाला संदीप सिंह जेएनयू से आने वाली वामपंथी सोच के हैं. कहा जाता है कि संदीप सिंह ने मनमोहन सिंह को पीएम रहते हुए काले झंडे दिखा दिए थे. राहुल गांधी को इंदिरा गांधी की सेक्युलरिज्म अपनाने के बजाय वामपंथियों के सेक्युलरिज्म अपनाने की सलाह ऐसे ही लोग देतेे थे. कन्हैया प्रकरण में तुरंत जेएनयू जाने की सलाह भी राहुल गांधी को ऐसे लोगों ने दी थी.

कौशल विधार्थी

कौशल राहुल गांधी के निजी सचिव है. पार्टी के दिग्गज नेताओं की राहुल के साथ मुलाकात का काम कौशल देखते हैं, लेकिन कौशल न तो वाट्सएप चैक करते हैं और न टेक्स्ट मैसेज. कई पीसीसी चीफ और प्रभारियों ने राहुल से कई दफा इसकी शिकायत भी की. ऑक्सफॉर्ड में पढ़े कौशल राहुल को राजनीतिक सलाह भी देने लगे थे. यहां तक की कई नेताओं की सिफारिश करते हुए उन्हें टिकट भी दिलाई, जबकी टिकट दिए जाने वाले के बैकग्राउंड और क्षेत्र की जानकारी तक कौशल को नहीं होती थी.

प्रवीण चक्रवती

राहुल के स्टॉफ में शामिल प्रवीण चक्रवर्ती डेटा विभाग का काम देखते हैं. चक्रवर्ती के अर्थमैटीक ज्ञान के राहुल कायल हो गए थे. शक्ति प्रोजेक्ट और बूथ डेटा के आधार पर प्रवीण ने राहुल को घुट्टी पिला दी कि मोदी किसी भी सूरत में दोबारा नहीं आएंगे. फिर राहुल प्रवीण के तर्कों के आधार पर खुलकर पब्लिक में बीजेपी के नहीं आने के दावे करने लगे.

संघ और शाह की धरातल पर बिछाई गई बिसात प्रवीण चक्रवर्ती के आंकड़ों से बेहद परे थी. प्रवीण के हवाई सर्वे ने राहुल में अतिआत्मविश्वास पैदा कर दिया था. राहुल दिल से ऐसा मानकर चलने लगे. डेटा विभाग ने शक्ति एप के जरिए जो बूथ लेवल के आंकड़े दिए, उसके आधार पर जो परिणामों का अनुमान लगाया सब उसके उलट रहा.

सैम पित्रोदा

राजीव गांधी के बेहद करीबी रहे सैम पित्रोदा भी एक तरह से राहुल के फैसलों पर हावी हो गए थे. बताया जा रहा है कि कार्यकारी पीसीसी चीफ, राज्यों में सहप्रभारी और मेरा बूथ-मेरा गौरव जैसे कार्यक्रम लागू करने के पीछे अंकल सैम के ही आईडिए थे. राहुल के विदेश दौरों में भी सैम का रोल था. पार्टी में सभी नेता अंकल सैम को राहुल का गुरू और तकनीकी सलाहकार बोलते थे. चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने 1984 के सिख दंगों को लेकर ‘हुआ तो हुआ’ बयान देकर कांग्रेस को हराने में कोई कोर कसर भी नहीं छोड़ी.

ये लोग राहुल गांधी और उनके फैसलों पर इतनी हावी हो गए थे कि राहुल पार्टी के नेताओं से राय मशविरा तो जरूर ले लेते थे, लेकिन अंतिम वो ही होता था जो ये टीम तय करती थी. ऐसे में गैर सियासी लोगों की सलाह से बंटाधार होना तय था. इसी टीम की सलाह पर ही अमेठी में सोनिया गांधी ने जो टीम तैयार की थी उसकी छुट्टी करा दी. लिहाजा अमेठी में राहुल की हार में टीम आरजी ने भी बखूबी खलनायक का रोल निभाया.

मोदी कैबिनेट में राजनाथ, गोयल सहित इन बड़े चेहरों को मिल सकता है मौका

लोकसभा चुनाव में बीजेपी को भारी जीत हासिल होने के बाद अब सभी की दिलचस्पी इसमें है कि मोदी कैबिनेट में कौनसे चेहरे शामिल होने जा रहे हैं. नरेंद मोदी 30 मई को प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण करने वाले हैं. यहां उन चेहरों के बारे में बताया जा रहा है जो मोदी मंत्रिमंडल में उच्च पदों पर स्थापित हो सकते हैं.

अमित शाहः पार्टी को लोकसभा चुनाव में मिली भारी जीत के बाद अब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह अपनी सेवाएं कैबिनेट के अंदर देना चाहेंगे. उन्हें मंत्रिमंडल में गृह या रक्षा विभाग की जिम्मेदारी दी जा सकती है.

राजनाथ सिंहः बीजेपी में पीएम मोदी के बाद नंबर दो की हैसियत रखने वाले राजनाथ सिंह को इस बार भी मोदी मंत्रिमंडल में बड़े विभाग की जिम्मेदारी मिलने जा रही है. उन्हें विदेश मंत्रालय की कमान सौंपी जा सकती है. दिल्ली मीडिया में उन्हें लोकसभा अध्यक्ष बनाने की भी चर्चा है.

पीयूष गोयलः पीएम मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के विश्वस्त पीयूष गोयल को इस बार मोदी कैबिनेट में बड़ी जिम्मेदारी मिलने की संभावना है. उन्हें वित्त मंत्रालय जैसी अहम जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है. पिछली सरकार के दौरान वित्त मंत्रालय का जिम्मा संभालने वाले अरुण जेटली के खराब स्वास्थ्य को देखते हुए पीयूष गोयल को यह विभाग दिया जाने की पूरी संभावना है.

गजेंद्र सिंह शेखावतः 2019 चुनाव के ‘जाइंट किलर’ बनकर उभरे जोधपुर के सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत का मोदी मंत्रिमंडल में शामिल होना तय है. संभावना जताई जा रही है कि इस बार उनका प्रमोशन करके उन्हें काबीना मंत्री बनाया जाएगा. गजेंद्र पिछली सरकार में कृषि राज्य मंत्री के दायित्व का निर्वहन कर चुके हैं. इनकी इमेज मोदी और शाह की नजर बहुत अच्छी है.

मनोज सिन्हाः यूपी के गाजीपुर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव हार चुके मोदी सरकार के मंत्री मनोज सिन्हा का पुनः मंत्रिमंडल में आना तय माना जा रहा है. पार्टी उन्हें अमित शाह और स्मृति ईरानी के लोकसभा सांसद बनने के बाद खाली हुई राज्यसभा की सीटों से सांसद बनाकर सदन में लाएगी.

रविशंकर प्रसादः पटना साहिब लोकसभा सीट पर शत्रुघ्न सिन्हा को मात देकर संसद पहुंचे रविशंकर प्रसाद को मोदी मंत्रिमंडल में कानून मंत्री बनाया जा सकता है.

नरेंद्र सिंह तोमरः मध्यप्रदेश बीजेपी के बड़े नेता नरेंद्र सिंह तोमर का मोदी कैबिनेट में आना निश्चित है. उन्हें सरकार में अहम विभाग की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी. तोमर मध्यप्रदेश की मुरैना लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर आए हैं. वो पिछली सरकार में भी कई अहम विभाग के मंत्रालयों का जिम्मा संभाल चुके हैं.

जगत प्रकाश नड्डाः हिमाचल बीजेपी के दिग्गज़ नेता और मोदी—शाह के विश्वस्त माने जाने वाले जेपी नड्ड़ा को सरकार में किसी बड़े विभाग की जिम्मेदारी मिलना तय है. नड्डा पिछली मोदी सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रह चुके हैं.

सत्यपाल सिंहः मुंबई पुलिस के पूर्व कमिश्नर और लगातार दो बार से बागपत से सांसद सत्यपाल सिंह का मोदी कैबिनेट में शामिल होना तय है. मंत्रिमंडल में उन्हें काबीना मंत्री के तौर पर शामिल किया जाएगा. सत्यपाल ने इस बार भी चौधरी चरण सिंह परिवार के वारिस जयंत चौधरी को मात दी है. सत्यपाल 2014 में रालोद सुप्रीमो अजित सिंह को हराकर सुर्खियों में आए थे.

स्मृति ईरानीः कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को अमेठी में मात देकर लोकसभा पहुंची स्मृति ईरानी का इस बार मंत्रिमंडल में प्रमोशन तय नजर आ रहा है. उन्हें इस बार की कैबिनेट में काबीना मंत्री बनाया जाएगा.

अर्जुनराम मेघवालः राजस्थान की बीकानेर लोकसभा सीट से लगातार तीसरी बार सांसद निर्वाचित होकर संसद पहुंचने वाले अर्जुनराम का मंत्री बनना तय है. उन्हें मोदी कैबिनेट में दलित चेहरे के तौर पर तरजीह मिलने वाली है.

धर्मेन्द्र प्रधानः पिछली सरकार में पेट्रोलियम मंत्री रहे ओडिशा से आने वाले नेता धर्मेन्द्र प्रधान को कैबिनेट में जगह मिलनी तय मानी जा रही है. पार्टी ने इस बार ओडिशा में अच्छा प्रदर्शन किया है जिसका ईनाम धर्मेन्द्र को मिलता दिख रहा है.

हनुमान बेनीवालः रालोपा नेता हनुमान बेनीवाल मोदी कैबिनेट में जाट चेहरे के तौर पर शामिल किए जाएंगे. बीजेपी ने इस बार राजस्थान में रालोपा गठबंधन में चुनाव लड़ा था. नागौर सीट पर बीजेपी ने रालोपा प्रत्याशी हनुमान बेनीवाल का समर्थन किया था जिन्होंने कांग्रेस की ज्योति मिर्धा को बड़े अंतर से मात दी थी.

इनके अलावा, बीजेपी के सहयोगी दलों की भी मंत्रिमंडल में हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाएगी. शिवसेना और जदयू के कोटे से तीन—तीन, अकाली दल, एआईडीएमके से एक-एक और अपना दल के कोटे से अनुप्रिया पटेल को मंत्री बनाया जाएगा. यहां लोजपा कोटे से रामविलास पासवान के पुत्र चिराग को मंत्री बनाया जा सकता है.

पश्चिम बंगाल: ममता दीदी के दो विधायक समेत दर्जनों पार्षद बीजेपी में शामिल

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लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत हासिल कर वापिस सत्ता में लौटी बीजेपी खासी उत्साहित नजर आ रही है. वहीं विपक्षी दलो में इस्तीफों का दौर लगातार जारी है. पश्चिम बंगाल में टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी की सियासी जमीन हथियाने के बाद बीजेपी ने उन्हें दूसरा बड़ा झटका दिया है. मंगलवार को टीएमसी के दो विधायकों ने करीब 50 से अधिक पार्षदों सहित दिल्ली में बीजेपी की सदस्यता ले ली. इस दौरान पश्चिम बंगाल के एक वाम विधायक भी बीजेपी में शामिल हो गए. इस दौरान बीजेपीन नेता कैलाश विजयवर्गीय ने कहा है कि जिस तरह से बंगाल में सात चरणों के लोकसभा चुनाव हुए थे,  ठीक वैसे ही बीजेपी की सदस्यता लेने का ये सिलसिला सात चरणों में जारी रहेगा. उन्होंने कहा कि ये पहला चरण है.

चुनाव दौरान पश्चिम बंगाल में बीजेपी-टीएमसी के बीच तनाव का माहौल देखने को मिला था. इसके अलावा कई जगहों से तो हिंसक झड़पों की भी खबरें सामने आई थी. मतदान के बाद सामने आए चुनाव परिणामों ने टीएमसी को करारा झटका दिया. बीजेपी पश्चिम बंगाल में अपनी जड़े जमाने में कामयाब हो गई. पार्टी ने 42 सीटों में 18 पर कब्जा कर बंगाल की जनता के दिलों में जगह बना ली. अब बीजेपी ने बंगाल में ममता बनर्जी को एक और बड़ा झटका दिया है. मंगलवार को दिल्ली में टीएमसी के दो विधायकों समेत प्रदेश के दर्जनों पार्षदों ने बीजेपी नेता नेता कैलाश विजयवर्गीय की उपस्थिति में पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली.

इन विधायकों में बड़ा नाम है हाल ही में टीएमसी छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए मुकुल रॉय के बेटे सुभ्रांशु रॉय का, जिन्होंने बीजेपी में शामिल होकर ममता दीदी को झटका दिया है. सुभ्रांशु अपने पिता मुकुल रॉय के साथ दिल्ली बीजेपी कार्यालय पहुंचे और पार्टी की सदस्यता ले ली. इनके अलावा टीएमसी विधायक तुषारक्रांति भट्टाचार्य और सीपीएम विधायक देवेंद्र रॉय भी पार्टी छोड़कर बीजेपी में आ गए हैं. बंगाल में बीजेपी की हालिया जीत से प्रभावित होकर टीएमसी पार्षद भी पार्टी में शामिल हो गए हैं. इस दौरान एक पार्षद ने मीडिया को बताया कि लोग बीजेपी को उसके काम के लिए पसंद कर रहे हैं.

इस अवसर पर बीजेपी नेता कैलाश विजयवर्गीय ने बताया कि जिस तरह से पश्चिम बंगाल में सात चरणों के लोकसभा चुनाव हुए थे, ठीक उसी तरह ही बीजेपी की सदस्यता के लिए सात चरण आयोजित होने वाले हैं और ये पहला चरण था. उन्होंने दावा किया कि और भी कई नेता हैं जो बीजेपी में आने के लिए उनसे संपर्क में है और जल्द ही उन्हें सदस्यता दिलाई जाएगी.

 

गुटों में विभाजित कांग्रेस कहां कर पाती मोदी लहर का मुकाबला

देश में लोकसभा चुनाव के नतीजों में नरेंद्र मोदी की सुनामी देखने को मिली जिसमें कांग्रेस पूरी तरह धाराशायी हो गई. कई राज्यों में तो उसके हालात 2014 से भी बुरे थे. कांग्रेस का 18 राज्यों में खाता तक नहीं खुला. हार के इन नतीजों की समीक्षा की जाए तो कांग्रेस को मिली करारी हार का सबसे बड़ा कारण राज्यों की कांग्रेस लीडरशिप में चल रही जबरदस्त गुटबाजी है. हमारे इस खास आर्टिकल में विभिन्न राज्यों की गुटबाजी के बारे में विस्तृत रुप से बता रहे हैं…

हरियाणाः कांग्रेस गुटबाजी का सबसे बड़ा नमुना देखना है तो हरियाणा होकर आइए. यहां कांग्रेस के भीतर कई धड़े सक्रिय मिलेंगे जो परोक्ष रुप से बीजेपी के पक्ष में कार्य करते हुए नजर आए. इस राज्य में कांग्रेस के भीतर खींचतान काफी लंबे समय से है लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कभी इस अस्थिरता को थामने की कोशिश नहीं की. प्रदेश कांग्रेस के भीतर 2 धड़े पूर्ण रुप से सक्रिय हैं जिन्होंने चुनाव में कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचाया है.

तंवर गुटः इस गुट की कमान हरियाणा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अशोक तंवर के हाथ में है. हालांकि यह कहना भी गलत नहीं होगा कि उनके अध्यक्ष बनने के बाद से ही हरियाणा में कांग्रेस गर्त की ओर है. राहुल गांधी की तरफ से अशोक तंवर को अध्यक्ष बनाने के तुरंत बाद ही विधायकों ने उनका विरोध शुरु कर दिया था. कई बार राहुल गांधी को विधायकों ने तंवर को हटाने की गुहार की लेकिन राहुल ने उनकी मांग को हर बार अनसुना किया. तंवर के साथ उनके कार्यकाल के दौरान एक भी विधायक उनके साथ खड़ा नजर नहीं आया. यही हरियाणा में कांग्रेस को मिली करारी हार का कारण रहा.

हुड्डा गुटः हरियाणा कांग्रेस के चेहरों में आज भी अगर कोई बीजेपी से चुनौती दे सकता है तो वो है भूपेन्द्र सिंह हुड्डा. उनकी संगठन पर पकड़ आज भी पहले की तरह ही मजबूत है. पार्टी के 90 फीसदी से भी ज्यादा विधायक भूपेन्द्र हुड्डा के एक इशारे पर लाइन में कदमताल करते नजर आते हैं. लेकिन संगठन पर उनकी इस जबरदस्त पकड़ को राहुल गांधी पिछले पांच साल में भांप ही नहीं पाए.

विधायकों और पार्टी पदाधिकारियों की तरफ से कई बार भूपेन्द्र हुड्डा को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की मांग की गई लेकिन उनकी मांग को हर बार दरकिनार किया गया. लोकसभा चुनाव में मिली हार का एक बड़ा कारण भूपेन्द्र हुड्डा को नजरअंदाज कराना भी रहा. तंवर और हुड्डा के अलावा हरियाणा कांग्रेस में किरण चौधरी, कुलदीप विश्नोई, रणदीप सुरजेवाला जैसे नेताओं के भी धड़े सक्रिय हैं जो बीजेपी से मुकाबला कम और कांग्रेस का नुकसान करने के ज्यादा प्रयास करते हैं.

राजस्थानः राजस्थान में कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत से जीत मिलने की आशंका थी. लेकिन कांग्रेस को जीत मिली सिर्फ 100 सीटों पर यानि बहुमत से भी एक सीट कम. कांग्रेस के पक्ष में जबरदस्त माहौल होने के बावजूद कांग्रेस का 100 सीटों पर सिमटना आलाकमान के लिए चिंताजनक था. कारण तलाशे गए तो सामने निकलकर आया कि गुटबाजी के कारण टिकट वितरण में काफी गलतियां हुई जिससे कई स्थानों पर पार्टी प्रत्याशियों को हार का सामना करना पड़ा.

विधानसभा चुनाव के बाद सरकार के गठन में राहुल गांधी ने अशोक गहलोत और सचिन पायलट दोनों को साधते हुए गहलोत को मुख्यमंत्री और पायलट को उप-मुख्यमंत्री बनाया. लेकिन लोकसभा चुनाव में भी विधानसभा चुनाव की तरह ही गुटबाजी के कारण टिकट वितरण में भारी गलतियां की गई. जिससे अनेक लोकसभा क्षेत्रों में तो कांग्रेस चुनाव लड़ने से पहले ही हार गई. ये टिकट इसलिए गलत बांटे गए ताकि अपने चहेते व्यक्ति को टिकट मिल सके. इन नेताओं को टिकट वितरण के दौरान जिताऊ चेहरों से कोई सरोकार नहीं रहा.

उत्तराखंड़ः इस पहाड़ी क्षेत्र में 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद प्रदेश संगठन के अंदर गुटबाजी अपने चरम पर है. प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत और प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष प्रीतम सिंह के बीच कोई सामंजस्य नहीं है. दोनों अधिकतम समय एक-दूसरे को कमजोर करने के प्रयास में दिखाई देते हैं. लोकसभा चुनाव में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला. पार्टी को राज्य की पांचों सीटों पर बड़ी पराजय नसीब हुई.

उधमपुर लोकसभा क्षेत्र से हरीश रावत चुनाव लड़े. उनका सामना बीजेपी के अजय भट्ट से था. पार्टी की आंतरिक गुटबाजी का नुकसान हरीश रावत को चुनाव में हुआ और वो भारी अंतर से अजय भट्ट के सामने चुनाव हारे. टिहरी गढ़वाल लोकसभा क्षेत्र से प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष प्रीतम सिंह ने चुनाव लड़ा. यह इलाका हरीश रावत के प्रभाव क्षेत्र वाला माना जाता है. हरीश रावत यह कभी नहीं चाहते थे कि प्रीतम सिंह चुनाव जीते. उन्होंने और उनके कार्यकर्ताओं ने प्रीतम सिंह की जमकर कारसेवा की. नतीजा रहा कि प्रीतम सिंह भारी मतों से चुनाव हारे.

हिमाचलः हिमाचल कांग्रेस के भीतर गुटबाजी की खबर अकसर अखबारों में देखने को मिलती है. चाहे अदावत सुखविंद्र सिंह और वीरभद्र सिंह के मध्य हो या पूर्व मंत्री जीएस बाली और वीरभद्र के बीच. नुकसान संगठन का ही हुआ है. इस गुटबाजी ने कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में भी नुकसान पहुंचाया था. लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस पूरी तरह गुटों में बंटी हुई नजर आई. नेता कांग्रेस प्रत्याशियों को जिताने के लिए नहीं बल्कि हराने के लिए मेहनत करते दिखे. परिणाम यह रहा कि कांग्रेस का प्रदेश से सूपड़ा साफ हो गया. हिमाचल में पार्टी के हालात इतने बुरे रहे कि सभी प्रत्याशी 3.50 लाख से अधिक मतों से चुनाव हारे.

मध्यप्रदेशः मध्यप्रदेश में कांग्रेस की लुटिया कांग्रेस संगठन में फैली भयंकर गुटबाजी ने डुबोई. यहां कांग्रेस मुख्यतः तीन गुट में विभाजित है. पहला मुख्यमंत्री कमलनाथ धड़ा, दूसरा गुट राहुल गांधी के करीबी और पश्चिमी यूपी के प्रभारी ज्योतिरादित्य सिंधिया. तीसरे धड़े के मुखिया का हाथ तो कांग्रेस की लुटिया डुबोने में अहम है. उन महाशय का नाम है दिग्विजय सिंह. गुटबाजी के कारण कांग्रेस के प्रदर्शन में सुधार होना तो दूर, 2014 की तुलना से भी खराब हो गया.

दिग्विजय सिंह भोपाल संसदीय क्षेत्र से साध्वी प्रज्ञा के सामने बुरी तरह चुनाव हारे. हालात कुछ ऐसे रहे कि जो सीट पार्टी पिछली बार में जीतने में कामयाब रही थी, इस बार हाथ से फिसल गई. गुना लोकसभा क्षेत्र से पार्टी के दिग्गज़ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को हार का सामना करना पड़ा.

BSP के साथ 2008 की रणनीति पर काम करने जा रही है कांग्रेस

राजस्थान में बसपा के विधायकों का 27 मई को राज्यपाल कल्याण सिंह से मुलाकात का कार्यक्रम तय था. लेकिन बाद में विधायकों ने इस मुलाकात को टाल दिया. कारणों का अभी तक पता नहीं चल पाया है. लेकिन इस मुलाकात के पीछे के कारण सत्ता के गलियारों में तलाशें जा रहे हैं. सूत्रों के अनुसार, खबर आ रही है कि बसपा के सभी विधायकों को कांग्रेस अपने दल में शामिल कराने का प्रयास कर रही है.

वैसे बसपा विधायकों ने राजस्थान में कांग्रेस सरकार को समर्थन दे रखा है और सरकार की स्थिति मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार की तरह किनारे पर भी नहीं है. लेकिन प्रदेश संगठन लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद प्रदेश सरकार में अपने आंकड़े दुरस्त करना चाहती है ताकि भविष्य में किसी भी तरह के संकट का सामना नहीं करना पड़े.

2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस बहुमत से कुछ फासले पर रह गई थी. उसे 96 सीटों पर ही जीत मिली थी. बहुमत के लिए उसे पांच विधायकों की दरकार थी. शुरुआत में निर्दलीय विधायकों के समर्थन से सरकार चलाई गई लेकिन निर्दलीय विधायकों के सरगना बीजेपी के बागी नेता किरोड़ी लाल मीणा सरकार के कामकाज में ज्यादा हस्तक्षेप करने लगे थे.

ऐसे में अशोक गहलोत ने सरकार की स्थिति मजबूत करने के लिए बड़ा दांव चला. उन्होंने बसपा के टिकट पर जीते 6 विधायकों को पार्टी में लाने के प्रयास शुरु किए. गहलोत के इस मिशन में उनका साथ दिया तत्कालीन टोंक-सवाईमाधोपुर सांसद नमोनारायण मीणा ने.

अशोक गहलोत और नमोनारायण मीणा की मुहिम रंग लाई और बसपा के सभी 6 विधायकों ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली. अशोक गहलोत ने सभी विधायकों को प्रदेश सरकार में अहम पद दिए. 2008 में जिन विधायकों ने बसपा से कांग्रेस की सदस्यता ली थी, उनमें नवलगढ़ विधायक राजकुमार शर्मा, दौसा विधायक मुरारीलाल मीणा, बाड़ी विधायक गिर्राज सिंह मलिंगा, सपोटरा विधायक रमेश मीणा, उदयपुरवाटी विधायक राजेन्द्र सिंह गुढा और गंगापुर विधायक रामकेश मीणा शामिल थे. बसपा विधायकों के कांग्रेस में शामिल होने के बाद सरकार में कांग्रेस विधायकों का आंकड़ा 96 से बढ़कर 102 हो गया. इसका नतीजा यह रहा कि सरकार पूरे पांच साल बिना किसी दबाव के चली.

अब कांग्रेस एक बार फिर 2008 की मुहिम को दोहराने के प्रयास कर रही है. देखा जाए तो कांग्रेस को कामयाबी मिलने की संभावना भी दिख रही है. क्योंकि इस बार जीते कई बसपा विधायक चुनाव में कांग्रेस से टिकट मांग रहे थे. टिकट न मिलने की स्थिति में वो बसपा के टिकट पर चुनाव लड़े.

बसपा के टिकट पर विधानसभा चुनाव में 6 विधायकों को जीत हासिल हुई थी जिनमें उदयपुरवाटी से राजेंद्र सिंह गुढ़ा, नगर से वाजिब अली, तिजारा से संदीप यादव, नदबई से जोगिंदर सिंह अवाना, करौली-धोलपुर से लाखन सिंह गुर्जर और किशनगढ़ बास से दीपचंद खैरिया शामिल हैं.

राजेंद्र गुढ़ा 2008 की गहलोत सरकार में मंत्री रह चुके हैं. वहीं किशनगढ़ विधायक दीपचंद खैरिया 2008 और 2013 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं. इस बार उनका टिकट काट पार्टी ने कर्ण सिंह यादव पर दांव खेला था.

इन सभी विधायकों में से सिर्फ तिजारा विधायक संदीप यादव ही बीजेपी की पृष्ठभूमि से जुड़े हैं. वो वसुंधरा सरकार में युवा बोर्ड के उपाध्यक्ष रह चुके हैं. इस बार के विधानसभा चुनाव में उन्होंने बीजेपी से तिजारा विधानसभा से प्रत्याशी बनाने की मांग की थी लेकिन पार्टी ने यहां से संदीप दायमा को प्रत्याशी बनाया. इसके बाद संदीप यादव ने बागी होकर बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीते.

बसपा विधायकों के कांग्रेस के संपर्क में होने की सूचना के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने पार्टी के सभी 6 विधायकों को दिल्ली तलब किया है. मायावती 2008 में कांग्रेस से धोखा खा चुकी है इसलिए वो इस बार कोई चूक नहीं करना चाहती है. बसपा के विधायकों को कांग्रेस में शामिल कराना कांग्रेस के लिए इसलिए भी जरुरी है क्योंकि अगर बसपा राजस्थान में ज्यादा पांव पसारेगी, तो इसका सीधा-सीधा नुकसान कांग्रेस को ही होगा. इसकी सीधी सी वजह है कि प्रदेश में बसपा और कांग्रेस का कोर वोटर एक ही है.

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