Politalks.News/UttarPradesh. उत्तरप्रदेश की दो लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अपना परचम लहरा दिया है. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और पार्टी सांसद आजम खान के सांसद पद से इस्तीफा देने के बाद खिली हुई आजमगढ़ और रामपुर सीट पर बीजेपी ने अपना कब्ज़ा कर लिया है. ये दोनों ही सीटें काफी लंबे समय से समाजवादी पार्टी के पास थी. लेकिन आजमगढ़ में जहां बीजेपी प्रत्याशी दिनेश लाल यादव निरहुआ ने सपा के धर्मेंद्र यादव को शिकस्त दी तो वहीं रामपुर में बीजेपी के घनश्याम लोधी ने सपा प्रत्याशी आसिम राजा को हार का स्वाद चखा दिया. दोनों ही सीटों पर पार्टी को मिली हार के कारण अब सपा प्रमुख अखिलेश यादव अपनी ही पार्टी के नेताओं एवं सहयोगी दलों के नेताओं के निशाने पर आ गए हैं.
विधानसभा चुनाव में मुंह की खाने के बाद समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव की मुश्किलें कम होने का नाम ही नहीं ले रही है. पहले विधानसभा चुनाव, उसके बाद विधान परिषद चुनाव, फिर आजम खान की नाराजगी और अब सपा के गढ़ में लोकसभा के उप चुनाव में बड़ी हार से अखिलेश यादव के नेतृत्व पर सवाल उठने लगे हैं. हालांकि अगर विपक्ष उनके नेतृत्व पर सवाल उठाए तो राजनीतिक हिसाब से वह लाजमी है लेकिन अगर समाजवादी पार्टी के नेता और उसके सहयोगी दल ही सवाल उठायें तो बात कुछ और है. चाचा शिवपाल यादव पहले से नाराज हैं लेकिन सपा गठबंधन तोड़ने वाले केशव देव मौर्या के साथ साथ सपा के वर्तमान सहयोगी ओम प्रकाश राजभर और संजय चौहान भी अब धीरे धीरे अखिलेश यादव के खिलाफ बागी रुख अख्तियार करने लगे हैं. अगर इन सुरों को जल्द ही शांत नहीं कराया गया तो फिर ये सुर 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में अखिलेश के लिए मुश्किल बन सकते हैं.
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दो लोकसभा सीटों पर मिली हार के लिए अखिलेश यादव और आज़म खान भले ही सत्ताधारी दल पर आरोप लगा रहे हो लेकिन दोनों सीटों पर हार की असल वजह कुछ और ही है. दोनों सीटों पर मिली हार को लेकर अखिलेश यादव ने ट्वीट करते हुए लिखा, ‘भाजपा की ये जीत बेईमानी, छल, सत्ता का बल, लाठी और गुंडागर्दी का दम, लोकतंत्र और संविधान की अवहेलना, जोर जबरदस्ती और प्रशासनिक सरकारी गुंडई तथा चुनाव आयोग की धृतराष्ट्र दृष्टि तथा भाजपाई कौरवी सेना की जनमत अपहरण की जीत है, लोकतंत्र लहूलुहान है और जनमत हारा है.’ वहीं आज़म खान ने ट्वीट करते हुए लिखा कि, ‘इसे न चुनाव कह सकते हैं न चुनावी नतीजे आना कह सकते हैं. 900 वोट के पोलिंग स्टेशन में सिर्फ 6 वोट डाले गए और 500 के पोलिंग स्टेशन में सिर्फ 1 वोट डाला गया… जिस तरह से वोट डाले गए, हम अपने प्रत्याशी की जीत मानते हैं.’ दोनों ही नेताओं ने अपनी हार का ठीकरा बीजेपी पर फोड़ दिया.
माना बीजेपी ने जीत के लिए कुछ किया है लेकिन आपने क्या किया? ये सवाल हम नहीं पूछ रहे है बल्कि समाजवादी पार्टी के सहयोगी दल पूछने लगे हैं. उपचुनाव से पहले विधान परिषद् चुनाव अखिलेश यादव के क़रीबी सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने उन्हें नसीहत दी थी ‘उन्हें AC कमरों से बाहर निकलना ही पड़ेगा.’ चुनावी हार के बाद एक बार फिर राजभर ने अखिलेश यादव को कहा कि, ‘आज़मगढ़ लोकसभा उप चुनाव में सपा गठबंधन बेहद कमज़ोर नज़र आया. बीजेपी 24 घंटे चुनावी मोड में रहती है, ऐसे में अखिलेश यादव को एसी कमरे से निकलकर धरातल पर आकर संगठन मजबूत करने पर जोर देना होगा, बंद कमरों से राजनीति नहीं की जा सकती.’
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अखिलेश के नेतृत्व पर उठ रहे हैं सवाल
जनवादी पार्टी सोशलिस्ट के अध्यक्ष डॉ संजय चौहान अभी भी सपा के साथ हैं लेकिन अखिलेश यादव के नेतृत्व पर सवाल खड़े कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि, ‘अखिलेश यादव ट्विटर से राजनीति कर रहे हैं जबकि उनको निकलकर ज़मीन पर काम करना चाहिए. अखिलेश दागे हुए कारतूसों पर यक़ीन कर रहे हैं. स्वामी प्रसाद मौर्या को चुनाव हारने के बावजूद विधान परिषद भेजना अखिलेश यादव का बेहद गलत फ़ैसला था. अति पिछड़ा वर्ग जबतक बीजेपी के साथ रहेगा तब तक सपा चुनाव नहीं जीत सकती लेकिन ये बात अखिलेश यादव को समझ नहीं आ रही है.’
वहीं अखिलेश यादव के पुराने साथी रहे महान दल के अध्यक्ष केशव देव मौर्य ने भी लोकसभा उप चुनाव के परिणामों पर अखिलेश यादव को घेरा. उन्होंने कहा कि, ‘सपा की रणनीति में इतनी ख़ामियां हैं जिनको दूर किये बिना अखिलेश कोई चुनाव नहीं जीत सकते. अखिलेश मेहनत नहीं कर रहे हैं तो चुनाव कैसे जीतेंगे? सत्ता के दुरुपयोग के अखिलेश के आरोप पर केशव देव मौर्य ने कहा कि, ‘2017 में तो सपा की सरकार थी फिर भी बीजेपी प्रचंड बहुमत से चुनाव जीतकर आयी, आरोप लगाना बहानेबाज़ी है.’ वहीं सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के चाचा और प्रसपा प्रमुख शिवपाल सिंह यादव ने भतीजे अखिलेश यादव पर निशाना साधते हुए कहा कि, ‘लोकसभा चुनाव का जनादेश स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि पुरे चुनाव में हम तो शांत बैठे हुए थे.’ अब सवाल ये है कि अखिलेश यादव इस हार से कोई सीख लेकर नई रणनीति लेकर 2024 के लोकसभा चुनाव में उतरेंगे या फिर 2022 की कहानी 2024 में दोहराई जाएगी?