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राजस्थान: बसपा ने जारी की 6 प्रत्याशियों की लिस्ट

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बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने राजस्थान लोकसभा चुनाव के लिए अपनी नई सूची जारी की है. इस लिस्ट में 6 उम्मीदवारों के नाम घोषित किए हैं. लिस्ट में जोधपुर, जालौर, जयपुर शहर, पाली, चित्तौडगढ़ और बाड़मेर लोकसभा सीटें शामिल हैं. बीएसपी ने बाड़मेर से बखास्त आईपीएस पंकज चौधरी को टिकट देकर चौंका दिया है. जोधपुर से उनकी पत्नी मुकुल चौधरी को टिकट मिला है. बसपा की लिस्ट के अनुसार, जालौर से भागीरथ विश्नोई, जयपुर शहर से रिटायर्ड आईएएस उमराव सालोदिया, चित्तौड़गढ़ से डॉ.जगदीश चंद्र शर्मा और पाली से शिवाराम मेघवाल को टिकट दिया गया है.

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इससे पहले बीएसपी ने राजस्थान के लिए 5 उम्मीदवारों के नाम की घोषणा की थी. सूची के अनुसार, अलवर से इमराम खान, कोटा से हरिश कुमार, झालावाड़-बारां से डॉ.बद्री प्रसाद, उदयपुर से केशुलाल और
अजमेर से कर्नल दुर्गालाल को उम्मीदवार बनाया गया है.

बीजेपी के ‘शत्रु’ बने कांग्रेस के ‘मित्र’, पटना साहिब से लड़ेंगे चुनाव!

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बीजेपी छोड़ चुके बॉलीवुड अभिनेता और सांसद शत्रुध्न सिन्हा आज औपचारिक रूप से कांग्रेस में शामिल हो गए। दिल्ली में आज रणदीप सुरजेवाला ने उन्हें सदस्यता ग्रहण कराई. कांग्रेस के टिकट से शत्रुघ्न सिन्हा पटना साहिब संसदीय सीट से इस बार पार्टी के उम्मीदवार होंगे। उनका मुकाबला बीजेपी के रविशंकर से होगा. प्रेस को संबोधित करते हुए शत्रुध्न सिंहा ने कहा कि बीजेपी के स्थापना दिवस पर ही वह पार्टी छोड़ रहे हैं. उन्होंने बीजेपी को पार्टी की स्थापना दिवस पर बधाई भी दी.

बता दें, शत्रु पिछले कुछ समय से लगातार बीजेपी के खिलाफ बयानबाजी कर रहे थे. उन्होंने राफेल सौदे के मुद्दे पर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला बोला था। हाल ही में शत्रुघ्न सिन्हा ने अपने ट्वीटर हैंडल से ट्वीट कर बीजेपी छोड़ने की जानकारी दी थी. शत्रु पटना साहिब लोकसभा सीट से चुनाव लड़ना चाह रहे थे लेकिन बीजेपी ने यह सीट रविशंकर को दे दी. उन्होंने यह भी कहा कि अब वे कांग्रेस में शामिल होंगे जो सही मायने में एक राष्ट्रीय पार्टी है। ऐसा वे लालू यादव के सुझाव पर कर रहे हैं।

आडवाणी पर मेहरबानी की तैयारी, भोपाल से बेटी प्रतिभा को टिकट देने पर चर्चा

बीजेपी मध्य प्रदेश की भोपाल सीट पर पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की बेटी प्रतिभा आडवाणी को चुनाव मैदान में उतारने जा रही है. इसके पीछे उसका मक़सद एक तीर से दो निशाना साधना है. पहला, पार्टी के भीष्म पितामह लौहपुरुष लालकृष्ण आडवाणी की नाराजगी दूर कर उनका व विरोधियों का मुंह बंद करना और दूसरा, भोपाल जैसी अपनी मजबूत परम्परागत सीट को बचाना जहां से इस बार कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह पूरे दमखम के साथ चुनाव मैदान में ताल ठोंक रहे हैं.

गौरतलब है कि बीजेपी ने इस बार गुजरात के गांधीनगर से लालकृष्ण आडवाणी का टिकट काट दिया है. उनकी जगह इस सीट से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे खास सिपहसालार पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह चुनाव लड़ रहे हैं. जिस तरह मोदी-शाह की जोड़ी द्वारा आडवाणी की इच्छा को एक तरह से नज़रअंदाज़ करते हुए उनका टिकट काटा गया, कहा जा रहा था कि इसे उन्होंने अपना अपमान माना. पार्टी के इस निर्णय से आडवाणी के ख़फ़ा होने की बातें कही जा रही थीं.

इसका संकेत पार्टी के स्थापना दिवस से ठीक दो दिन पहले आडवाणी के लिखे उस ब्लॉग से भी मिला, जिसमें उन्होंने परोक्ष रूप से मोदी-शाह की जोड़ी को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि भारतीय लोकतंत्र का सार अभिव्यक्ति का सम्मान और इसकी विभिन्नता है. अपनी स्थापना के बाद से ही बीजेपी ने कभी उन्हें ‘शत्रु’ नहीं माना जो राजनीतिक रूप से उसके विचारों से असहमत हो, बल्कि उन्हें अपना सलाहकार माना है. इसी तरह, भारतीय राष्ट्रवाद की बीजेपी की अवधारणा में पार्टी ने कभी भी उन्हें ‘राष्ट्र विरोधी’ नहीं कहा, जो राजनीतिक रूप से उससे असहमत थे.

आडवाणी ने अपने ब्लॉग में यह भी लिखा कि पार्टी निजी और राजनीतिक स्तर पर प्रत्येक नागरिक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर प्रतिबद्ध है, इसलिए बीजेपी हमेशा मीडिया समेत सभी लोकतांत्रिक संस्थानों की आज़ादी, अखंडता, निष्पक्षता और मजबूती की मांग करने में सबसे आगे रही है. जाहिर है उनका इशारा मौजूदा दौर में पार्टी की कार्यशैली और मोदी-शाह की जोड़ी के कार्य करने के तरीकों की ओर था. कहा जा रहा था कि आने वाले दिनों में आडवाणी बीजेपी की वर्तमान नीतियों के बहाने मोदी-शाह के ख़िलाफ़ अपनी भड़ास और निकालेंगे. उनके आगे और आक्रामक होने का अंदेशा था. यूं ही नहीं उन्होंने पांच साल से ठप पड़े अपने ब्लॉग को तरोताज़ा किया था.

मीडिया और सोशल मीडिया ने तो इसे हाथों-हाथ लिया ही, विपक्ष भी इसी बहाने बीजेपी पर हमलावर हो रहा था. बीजेपी के असंतुष्ट नेताओं की आडवाणी के घर आवाजाही भी अचानक बढ़ गयी थी, जिसके बाद कई तरह के कयास लगने लगे थे. संभव था कि आगे कोई बड़ी ख़बर आ सकती थी. यह नि:संदेह बीजेपी के लिए मुसीबत का सबब बन सकता था. लिहाजा, तत्काल डैमेज कंट्रोल की एक्सरसाइज शुरू की गयी. प्रतिभा आडवाणी को भोपाल से टिकट दिए जाने की चर्चा इसी ‘आपदा प्रबंधन’ की दिशा में उठा कदम समझा जा रहा है.

सूत्र बताते हैं कि आडवाणी का टिकट काटे जाने के बाद से ही हालांकि मध्य प्रदेश के कुछ स्थानीय नेताओं द्वारा भोपाल सीट के लिए प्रतिभा आडवाणी का नाम आगे किया जा रहा था, लेकिन पार्टी ने तब इस पर कोई खास तवज्जो नहीं दी. अब बदली परिस्थितियों में इस पर गहन विचार किया जा रहा है. संभव है कि जल्द इसकी घोषणा हो जाए. वैसे भी मध्य प्रदेश की कई सीटों पर बीजेपी ने अभी तक अपने उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है. इंदौर सीट पर उम्मीदवार की घोषणा में हो रही देरी के कारण नाराज सुमित्रा महाजन ने चुनाव लड़ने से इनकार भी कर दिया है. यह मामला तूल भी पकड़ रहा है. लिहाजा बीजेपी भी अब जल्द से जल्द अपने सभी उम्मीदवारों का ऐलान करना चाह रही है.

भोपाल सीट तो वैसे भी उसके लिए काफी महत्वपूर्ण है, जो पिछले दो दशक से ज्यादा समय से उसकी झोली में ही जाती रही है. इसे ‘हिंदुत्व’ राजनीति के प्रभाव वाली सीट के तौर पर भी निरूपित किया जाता है. इस बार कांग्रेस ने अपने दिग्गज और बकौल बीजेपी मुस्लिमपरस्त नेता दिग्विजय सिंह को यहां से मैदान में उतारकर लड़ाई को रोचक बना दिया है. जिस मजबूत रणनीति और तैयारी के साथ दिग्गी राजा चुनाव मैदान में पसीना बहा रहे हैं, उससे इस सीट पर बीजेपी की जीत को लेकर सवाल भी उठ रहे हैं. यही वजह है कि उम्मीदवार तय करने में बीजेपी को इतनी देरी हो रही है.

पहले मौजूदा विधायक आलोक संजर का नाम उछला, फिर संगठन सचिव वीडी शर्मा को उम्मीदवार बनाये जाने की बातें उठीं, भोपाल के मेयर आलोक शर्मा दौड़ में आये और अंतत: एक समय ऐसा लगा कि मालेगांव धमाके की आरोपी साध्वी प्रज्ञा भारती ही दिग्विजय सिंह के ख़िलाफ़ बीजेपी की उम्मीदवार होंगी. लेकिन पार्टी ने उन पर भी दांव लगाना खतरे से खाली नहीं समझा. आरएसएस की राय थी कि उमा भारती को ही यहां से खड़ा कर दिया जाए, लेकिन उन्होंने चुनाव लड़ने से मना कर दिया. शिवराज सिंह चौहान, नरेंद्र सिंह तोमर जैसों को लेकर भी चर्चाएं चलीं. अब इस क्रम में प्रतिभा आडवाणी का नाम मजबूती के साथ सियासी गलियारे में तैर रहा है.

कहा जा रहा है कि प्रतिभा आडवाणी की उम्मीदवारी के पक्ष में स्थानीय नेताओं ने तर्क दिया है कि अव्वल तो यह सीट हिंदू वोटों के एकमुश्त प्रभाव वाली है, दूजे यहां डेढ़ लाख से ज्यादा सिंधी मतदाता हैं. स्वाभाविक है कि दिग्विजय सिंह अगर 3.5 लाख मुस्लिम वोटों के अलावा हिंदू वोटों में सेंध लगाने का प्रयास करेंगे तो कम से कम सिंधी मतदाताओं में तो प्रतिभा आडवाणी के कारण कोई घुसपैठ नहीं हो पायेगी.

बीजेपी आलाकमान भी नहीं चाहता कि उसके लिए प्रतिष्ठा वाली रही यह सीट हाथ से निकले. और वह भी दिग्विजय सिंह से मात खाकर, जिन्हें वह हमेशा जोरदार तरीके से मुस्लिमों को तुष्ट करने वाले नेता बतौर निरूपित करती रही है. यही वजह है कि प्रतिभा आडवाणी को यहां से खड़ा कर बीजेपी एक तीर से दो निशाने साधने की कवायद करती जान पड़ रही है. वैसे पिछले आम चुनाव में भी मध्य प्रदेश ईकाई द्वारा लालकृष्ण आडवाणी को भोपाल सीट से उम्मीदवार घोषित करने की मांग की गयी थी. तब पार्टी आलाकमान ने भी यह प्रस्ताव आडवाणी के पास रखा था, लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इससे इनकार कर दिया था कि वह गांधीनगर सीट से ही लड़ना पसंद करेंगे.

अब बदले हालात में मध्य प्रदेश के नेताओं ने फिर से आडवाणी परिवार के लिए इस सीट की पेशकश की है, जिस पर आलाकमान भी गंभीर है. उसे इसमें अपने लिए फायदा दिख रहा है. हालांकि खुले तौर पर इसकी पुष्टि करने से पार्टी नेता अभी कतरा रहे हैं. बीजेपी के एक नेता ने अनौपचारिक बातचीत में यह स्वीकार किया कि इस मसले पर गंभीर विचार हो रहा है. उनका कहना था कि इस कदम से आडवाणी की नाराजगी भी दूर की जा सकती है और दिग्विजय सिंह के ख़िलाफ़ एक अच्छा उम्मीदवार भी दिया जा सकता है ताकि भोपाल सीट पर पार्टी का कब्जा बरकरार रहे.

विदित है कि प्रतिभा आडवाणी एक बेहद सफल टीवी एंकर और डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता होने के साथ-साथ अपने पिता लालकृष्ण आडवाणी के साथ उनकी राजनीतिक गतिविधियां में भी सक्रिय रही हैं. 2009 में जब एनडीए ने आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था, तक प्रतिभा ने भी अपने पिता के लिए खूब पसीना बहाया था. अपने पिता के सियासी सफर में वे एक सारथी की भूमिका में रही हैं. अब 51 वर्षीया प्रतिभा आडवाणी के स्वयं सियासत की पगडंडियों पर उतरने  की तैयारी है.

मध्य प्रदेश: बीजेपी से उठा संघ का भरोसा, प्रचारकों ने खुद संभाला मोर्चा

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लगता है कि एमपी में विधानसभा चुनावों में हुई हार के बाद संघ का बीजेपी से भरोसा उठ सा गया है. शायद यही वजह रही कि संघ ने लोकसभा के सियासी समीकरणों को समझते हुए प्रदेश की सभी लोकसभा सीटों पर अपने पदाधिकारियों की ड्यूटी लगाई है. इस मुहिम में संघ से जुड़े सभी संगठनों के ज्यादातर बड़े नाम शामिल हैं, जो हर लोकसभा सीट पर जाकर एक और बीजेपी के पक्ष में माहौल तैयार करेंगे. साथ ही भीतरघात और बगावती सुरों को साधने की कोशिश करेंगे.

ऐसा करने की सबसे बड़ी वजह है, विधानसभा चुनावों के समय संघ ने मंत्रियों को डैमेज कंट्रोल करने की जिम्मेदारी सौंपी थी जिसमें नाकामी हाथ लगी. अब भाजपाईयों पर विश्वास न जताते हुए संघ ने खुद जिम्मा उठाया है. संघ डैमेज कंट्रोल के साथ एनजीओ से मुलाकात कर भाजपा के पक्ष में माहौल भी तैयार कर रहे हैं. घर-घर जाकर ‘नोटा’ न दबाने के लिए लोगों को प्रेरित किया जा रहा है. बता दें, एमपी विधानसभा चुनावों में नोटा ने बीजेपी के के कई दिग्गजों का खेल बिगाड़ा था.

हालांकि इस कदम के बाद कांग्रेस ने संघ को आड़े हाथ लिया है. कांग्रेस का कहना है कि संघ कहने मात्र को स्वयंसेवी है लेकिन काम भाजपा के करता है. अगर संघ को भाजपा का प्रचार ही करना है तो उसे खुद भी चुनावी मैदान में आ जाना चाहिए.

कहां किसे दिया जिम्मा

  • रीवा – विद्या भारती के पूर्व प्रांत सचिव संतोष अवधिया
  • सागर – विभाग कार्यवाहक डॉ. सुशील भार्गव
  • दमोह – भारतीय किसान संघ के पदाधिकारी भरतजी
  • सीधी – जिला संघ चालक पुष्पराज सिंह
  • सतना – प्रांत संघ चालक उत्तम बनर्जी
  • शहडोल – विभाग कार्यवाहक अजय दास
  • मंदसौर – विभाग प्रचारक योगेश शर्मा को मिली जिम्मेदारी

आखिरकार ‘हाथ’ और ‘झाडू’ में बनी बात, किसी भी वक्त गठबंधन का एलान संभव

ख़बर है कि लोकसभा चुनाव को लेकर आम आदमी पार्टी (आप) और कांग्रेस के बीच समझौता हो गया है. समझौते के तहत फिलहाल दिल्ली और हरियाणा में दोनों पार्टियां गठबंधन के साथ चुनाव मैदान में उतरने पर तैयार हो गयी हैं. वहीं, पंजाब को लेकर सहमति बनी है कि फैसला बाद में किया जाएगा. गठबंधन का जो फॉर्मूला तय हुआ है, उसके अनुसार दिल्ली में ‘आप’ 4 सीटों पर चुनाव लड़ेगी जबकि कांग्रेस 3 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी. बदले में हरियाणा में कांग्रेस ‘आप’ को गुड़गांव या करनाल में से कोई एक सीट देगी.

गौरतलब है कि दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन को लेकर लंबे समय से कयास लगाये जा रहे थे, लेकिन बात नहीं बन पा रही थी. हालांकि गठबंधन को लेकर ‘आप’ पूरा मन बना चुकी थी और गंभीरता से इसका प्रयास भी कर रही थी, मगर इस मुद्दे पर कांग्रेस के नेता दो गुटों में बंटे थे. पूर्व मुख्यमंत्री और दिल्ली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष शीला दीक्षित का खेमा ‘आप’ से किसी भी कीमत पर गठबंधन का विरोध कर रहा था जबकि पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन का गुट गठबंधन की वकालत कर रहा था.

प्रदेश कांग्रेस प्रभारी पीसी चाको भी गठबंधन के पक्ष में थे. उन्होंने तो बाकायदा पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं के बीच एक सर्वे कराकर इसकी आधारभूमि तैयार की थी. गठबंधन की वकालत करने वाले नेताओं का कहना था कि अगर ऐसा नहीं हुआ, तो इसका फायदा भाजपा को होगा और वह दिल्ली की सभी सातों लोकसभा सीटें जीत लेगी. वहीं, गठबंधन का विरोध कर रहे नेताओं की राय थी कि यह कांग्रेस के लिए आत्मघाती कदम साबित हो सकता है, क्योंकि एक ऐसे वक्त में जब पार्टी नए सिरे से दोबारा खड़ी होती दिख रही है और उसका खोया मतदाता दोबारा उसकी ओर आ रहा है, तब गठबंधन से न केवल उसका मनोबल गिरेगा बल्कि उसका बढ़ता आधार भी खिसक सकता है.

इस गुट का साफ मानना था कि लोकसभा में तो कांग्रेस को गठबंधन का विशेष फायदा नहीं ही होगा, उल्टे विधानसभा चुनावों में भी उसे इसका खामियाजा उठाना पड़ेगा. इनका स्पष्ट मानना था कि ‘आप’ के उभार के पीछे कांग्रेस के वोटों का उसकी ओर पलायन कारण रहा, जो अब बदले हालात में दोबारा पार्टी के पास लौट रहा है. ऊपर से जिस प्रकार दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दिल्ली के साथ-साथ हरियाणा, पंजाब, गोवा व दूसरे राज्यों में भी गठबंधन की शर्त रख रहे थे, उससे भी गठबंधन की संभावना में रुकावटें आ रही थीं. लेकिन जैसे-जैसे इसके तय होने में समय बीतता गया, उससे ‘आप’ को अपने लिए खतरा भी बढ़ता नज़र आने लगा. कारण, पार्टी के आंतरिक सर्वे में भी यही बात खुलकर आयी कि अगर उसने कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं किया तो आगे भी उसकी राह कांटों भरी हो सकती है.

दूसरे सूबों में अपना दायरा बढ़ाने की उसकी हसरत तो चकनाचूर होगी ही, विधानसभा चुनाव के बाद दिल्ली की सत्ता से भी वह विदा हो जाएगी. पंजाब विधानसभा चुनाव में अनपेक्षित नतीजों से भी ‘आप’ सशंकित थी. उन्हीं नतीजों का परिणाम है कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी ‘आप’ के साथ गठबंधन के विरोध में दिख रहे थे. यही वजह है कि केजरीवाल ने भी मौके की नज़ाकत को भांपते हुए अपना रुख नरम किया और सीधे राहुल गांधी पर ही गठबंधन के लिए दबाव बनाने की रणनीति पर उतर आए. इसका असर भी हुआ और अंतत: नए सिरे से दोनों पार्टियों में गठबंधन को लेकर चर्चा शुरू हुई. राहुल की गंभीरता के आगे शीला दीक्षित खेमा भी नरम हुआ और यह कहने लगा कि आलाकमान जो फैसला करेगा, हम मानेंगे.

बहरहाल, दोनों पार्टियों के बीच समझौता हो गया है और जल्द ही इसकी औपचारिक घोषणा की जा सकती है. वैसे दिल्ली में गठबंधन का मामला सीटों को लेकर भी अटक रहा था, क्योंकि ‘आप’ ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए थे. इनमें तीन उम्मीदवारों- पूर्वी दिल्ली से आतिशी, उत्तर-पूर्वी दिल्ली से दिलीप पांडेय और नई दिल्ली से राघव चड्डा की सीटों को वह किसी भी हालत में छोड़ने को तैयार नहीं थी. कारण, ये केजरीवाल के बेहद करीबी लोगों में शामिल हैं.

वहीं, कांग्रेस की भी नज़र इन सीटों पर थी. खासकर अजय माकन चुनाव लड़ने की स्थिति में नई दिल्ली सीट को ही अपने लिए मुफीद मान रहे थे. ऐसे में उनका इरादा भी यह सीट लिये बगैर गठबंधन पर आखिरी मुहर लगवाने का नहीं था. बहरहाल, ‘आप’ ने कांग्रेस की नई दिल्ली सीट को लेकर अपनी बात मान ली है, लेकिन बाकी दो सीटों कांग्रेस को मना लिया है. अब ‘आप’ पश्चिमी दिल्ली, उत्तर-पूर्वी दिल्ली, पूर्वी दिल्ली और उत्तरी दिल्ली से मैदान में उतरेगी. कांग्रेस के हिस्से में चांदनी चौक, उत्तर-पश्चिमी दिल्ली और नई दिल्ली सीटें आयी हैं.

वैसे कांग्रेस और ‘आप’ के नेता अभी भी सार्वजनिक रूप से गठबंधन की पुष्टि नहीं कर रहे हैं, लेकिन तय है कि एकाध दिनों में इसका ऐलान हो जाएगा. ‘आप’ ने अपनी पसंदीदा सीटें कांग्रेस को देने का फैसला कैसे कर लिया और अब केजरीवाल के तीनों करीबी नेताओं का क्या होगा? वे चुनाव लड़ेंगे, तो कहां से या उन्हें अब चुनाव नहीं लड़ाया जाएगा? ऐसे सवाल ज़रूर अचानक सियासी गलियारों में तैरने लगे हैं. राजनीति की समझ रखने वालों का कहना है कि केजरीवाल ने अपना नफा-नुकसान देख कर ही यह कदम उठाया है.

दरअसल, दिल्ली के अलावा देश का ऐसा कोई राज्य नहीं है जहां आम आदमी पार्टी अपने ठोस जनाधार का दावा कर सकती है. हालांकि उसने कई राज्यों में पूरी कोशिश की, मगर आज की तारीख में उसकी सारी कोशिशें बेनतीजा नज़र आती हैं. गोवा से वह बैरंग वापस लौट चुकी है. पंजाब में भी वह विधानसभा चुनावों के बाद पिछड़ चुकी है. इसके बावजूद कि इससे पहले हुए लोकसभा चुनाव में उसने सूबे की कुल 13 सीटों में 4 सीटें हासिल की थीं. इस पिछड़ने को वह गठबंधन से भरपाई करना चाहती है ताकि मिलकर बीजेपी को हराया जा सके.

गठबंधन के जरिये आम आदमी पार्टी हरियाणा में भी घुसने की कोशिश कर रही है. बीते दिनों जींद विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में इसी के मद्देनज़र उसने जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के उम्मीदवार दिग्विजय सिंह चौटाला का समर्थन किया था. अब हरियाणा में कांग्रेस और जेजेपी से गठबंधन के साथ वह अपनी संभावनाएं जगाना चाह रही है. वहीं पंजाब को लेकर भी कांग्रेस ने उसे भरोसा दिलाया है कि बाद में इस पर बात होगी. देखना शेष है कि पंजाब में अमरिंदर इसके लिए तैयार होते हैं या नहीं? और यह भी कि गठबंधन के बाद ‘आप’ और कांग्रेस का चुनावों में कैसा प्रदर्शन रहता है?

वसुंधराजी कहती थी-गहलोत सड़कों पर घूमकर भीख मांग रहा है: गहलोत

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राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत आखिरकार अपने बेटे वैभव गहलोत को प्रदेश की सक्रिय राजनीति में प्रवेश कराने के लिए जोधपुर आ ही गए. उन्होंने वैभव की लोकसभा सीट और अपनी कर्मस्थली में वैभव के लिए शहर की जनता के आशीर्वाद के साथ वोट भी मांगे. इस दौरान उन्होंने प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष वसुन्धरा राजे पर भी निशाना साधा. वसुंधराजी कहती थी ‘गहलोत सड़कों पर घूमकर भीख मांग रहा है।’ मैंने कहा कि वसुंधराजी, मुझे गर्व हो रहा है कि मैं लोगों के बीच जा रहा हूं.

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जोधपुर से मेरा 40 साल पुराना रिश्ता
गहलोत ने कहा कि जोधपुर से मेरा 40 साल पुराना रिश्ता है. मुझे हमेशा यहां से प्यार मिला. अकाल में मैंने लोगों के घरों तक गेंहू की बोरियां पहुंचाई थी. मैं राजनीति की शुरुआत में एक-एक गांव में जाकर लोगों से मिलता था. इस क्षेत्र में पीने का पानी तक नहीं था. कांग्रेस ने मनरेगा योजना लागू कर सबको कानूनन 100 दिन का रोजगार दिया. यह अभूतपूर्व कदम है. जोधपुर के लोगों को मेरे कारण से कभी नीचा नहीं देखना पड़े, ये मैंने लक्ष्य रखा. जोधपुर से अंतिम सांस तक मेरा रिश्ता रहेगा, जोधपुर मेरे दिल में बसा हुआ है.

वैभव को आशीर्वाद दो, उसे जिताना आपकी जिम्मेदारी
उन्होंने शहर की जनता से कहा कि राहुल गांधीजी ने मेरी भावनाओं को समझा और मुझे तीसरी बार सीएम बनने का मौका दिया. आगामी पांच सालों में विकास देखकर लोगों को अचंभा होगा. वैभव को आपके आशीर्वाद से टिकट मिला है. अब उसे जिताना भी आपकी जिम्मेदारी है. जो रिश्ते आपने मुझसे निभाए हैंए उसका कर्ज मैं उतारूंगा. मैं हमेशा आपके दुख-दर्द में खड़ा मिलूंगा इसलिए वैभव को आशीर्वाद प्रदान करो.

मोदी ने झूठे वादे कर सत्ता हथियाई
गहलोत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए कहा कि मोदीजी ने खूब झूठे वादे कर सत्ता हथियाई. लोगों ने सोचा कि पता नहीं कौनसे चांद-तारे तोड़कर लाएंगे, इसलिए वोट दे दिया. अब देश में घृणा और नफरत का माहौल बन गया है, हर वर्ग के लोग डरे हुए हैं. व्यापारियों में भय है. मोदी वापस आ गया तो देश में दोबारा चुनाव ही नहीं होंगे. ये लोग धर्म की बात करते हैं. चुनाव आते ही राम मंदिर व गौमाता की बात करने लगते हैं. मोदी ने मीडिया को डरा रखा है. लोग सीबीआई और कानून से डरे हुए हैं. झूठ बोलना प्रधानमंत्री को शोभा नहीं देता लेकिन हमारा प्रधानमंत्री हमेशा झूठ बोलता है. भाजपा कभी भी मुद्दों पर बात नहीं करती. लोकतंत्र में इससे बुरे दिन कभी नहीं आ सकते। लोकतंत्र में जनता माई-बाप होती है. वो मोदी को जान चुकी है. इस चुनाव में जवाब देगी.

उत्तर प्रदेश: जातिगत और सांप्रदायिक राजनीति से हाशिए पर पहुंचे वाम दल

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उत्तर प्रदेश की राजनीति में लेफ्ट पार्टियां (वामदल) हाशिए पर आ खड़ी हुई हैं. कभी यूपी की राजनीति का केंद्र बिन्दु रहने वाली लेफ्ट पार्टियां (वाम दल) 1991 के बाद एक सांसद तक को जिता कर दिल्ली नहीं भेज पाईं. स्थिति यह है कि आज सीपीआई के अलावा कोई यहां से लोकसभा चुनाव में अपना प्रत्याशी उतारने की स्थिति में भी नहीं हैं. सीपीआई ने तीन सीटों पर प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं और सात से आठ सीटों पर प्रत्याशियों की घोषित करने जा रहे हैं. यूपी में 80 लोकसभा सीटें हैं.

आजादी के बाद की बात करें तो 1957 से 1991 के बीच हुए लोकसभा चुनावों में यूपी से वाम दल (खासकर, सीपीआई और सीपीआईएम) के छह प्रत्याशी तक जीत दिल्ली पहुंचे थे. सीपीआई का आखिरी सांसद विश्वनाथ शास्त्री 1991 में गाजीपुर लोकसभा सीट से चुनाव जीते. वहीं सीपीआईएम के आखिरी सांसद के रूप में सुभाषिनी अली ने 1989 के आम चुनाव में कानपुर से जीत दर्ज की. 1989 में लेफ्ट पार्टियां जनता दल के साथ गठबंधन में मैदान में उतरी थीं और उसी चुनाव में सीपीआई के राम सजीवन ने बांदा लोकसभा सीट से जीत का परचन फहराया था.

पिछले लोकसभा चुनाव की बात करें तो यूपी की कुल 80 सीटों में से सीपीआई ने आठ और सीपीआईएम ने 10 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे और सभी की जमानत जब्त हुई. सीपीआई उम्मीदवारों को कुल 1,29,417 वोट मिले, जो कुल वोट का 0.09 फीसदी था. इसी तरह सीपीआई को 2009 के लोकसभा चुनाव में 0.16 फीसदी और 2004 के लोकसभा चुनाव में 0.13 फीसदी वोट मिला था. सीपीआईएम प्रत्याशियों का हाल और भी बुरा था. उन्हें 37,712 वोट मिले, जो कुल वोट का 0.03 फीसदी थी. 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्हें 0.06 फीसदी और 2004 के लोकसभा चुनाव में 0.11 फीसदी वोट मिले.

वामदलों का खेल लोकसभा ही नहीं बल्कि विधानसभा चुनावों में भी बिगड़ा है. 2017 के विधानसभा चुनाव में यूपी में सक्रिय छह लेफ्ट पार्टियों (सीपीआई, सीपीएम, सीपीआइएमएल-मार्क्सवादी लेनिनवादी, आरएसपी, फारवर्ड ब्लॉक और एसयूसीआई -सी) ने साझा चुनाव लड़ने की घोषणा की है और 134 सीटों पर प्रत्याशी उतारे, लेकिन एक भी नहीं जीत सका.

आगामी लोकसभा चुनाव में सीपीआई फिर मैदान में है. पार्टी ने तीन सीटों पर प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं. इनमें घोषी से अतुल अंजान, राबर्टसगंज से अशोक कनौजिया और लखीमपुर सीट से विजनेश शुक्ला हैं. पार्टी महासचिव गिरीश शर्मा की माने तो जल्द ही पार्टी सात से आठ अन्य सीटों पर भी प्रत्याशियों की घोषणा करेगी. वहीं सीपीआईएम ने प्रत्याशी उतारने से इंकार किया. सीपीआई एमएल भी कुछ सीटों पर प्रत्याशी उतारने की कवायद में जुटी है. सभी वामदल नेताओं का कहना है कि जिन सीटों पर उनके प्रत्याशी हैं, वहां सभी दल उन्हें चुनाव लड़ाएंगे और जहां प्रत्याशी नहीं है, वहां भाजपा को हराने की रणनीति के तहत काम करेंगे.

वाम नेता मानते हैं कि जातिगत और सांप्रदायिक राजनीति ने उन्हें हाशिए पर धकेल दिया है. माकपा के राज्य सचिव मंडल के सदस्य प्रेम नाथ राय का कहना है कि यूपी में छोटी-बड़ी फैक्ट्रियां बंद होने से यहां ट्रेड यूनियन आंदोलन कमजोर पड़ा. नतीजतन, वाम राजनीति का प्रभाव कम हुआ. हम अपना खोया हुआ गौरव पाने की तलाश में हैं. वहीं भाकपा के पूर्व राज्य महासचिव अशोक मिश्र कहते हैं कि इन चुनावों में उनके मुद्दे रोजी-रोटी, रोजगार, सस्ती शिक्षा और दवाई के हैं. जनहित से जुड़े इन मुद्दों के लिए वाम दल ही संघर्ष कर सकते हैं. राजनीति शास्त्री डॉ. रमेश दीक्षित कहते हैं कि वामदलों की राजनीति विचारधारा और सिद्धांत पर आधारित है लेकिन जातिगत और सांप्रदायिक राजनीति के साथ धनबल और बाहुबल ने वामदलों की सिद्धांत और विचारधारा वाली राजनीति को हाशिए पर धकेल दिया.

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