क्या भाजपा की हार अब तय हो चुकी है? क्या प्रधानमंत्री के पद से नरेंद्र मोदी की विदाई सुनिश्चित है? देश का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा? क्या राहुल गांधी की किस्मत चमकने वाली है या फिर ‘डार्क हॉर्स’ के तौर पर शरद पवार का नाम सामने आ सकता है? आखिर कांग्रेस इस चुनाव में कितनी सीटें हासिल कर सकती है? 2019 के लोकसभा चुनाव में तीन चरणों के मतदान के बाद ऐसे तमाम सवाल सियासी फ़िज़ाओं में उभरने लगे हैं.
मतदाताओं के बीच चुनावी नतीजों को लेकर कयास तो लग ही रहे हैं, सियासी गलियारों में परिणाम के बाद की परिस्थितियों के लिए जोड़-घटाव अभी से शुरू हो चुके हैं. जब तीन सौ से ज्यादा सीटों पर मतदान संपन्न हो चुके हैं तो नतीजों को लेकर कुछ-कुछ संकेत भी नज़र आने लगे हैं. आने वाले संकेत राजनीति में काफी हद तक बदलाव की ओर इशारा कर रहे हैं. यानी कि केंद्र की सत्ता बदल भी सकती है या यूं कहें, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कुर्सी छिन सकती है.
ऐसे नतीजे की आशंका बीजेपी के भीतर भी जताई जा रही है. यह अलग बात कि मतदान के चार चरण शेष होने के कारण सार्वजनिक तौर पर ऐसा कहने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पा रहा है. हां, सामान्य बातचीत में एनडीए के कई नेता यह ज़रूर स्वीकार कर रहे हैं कि इस बार बीजेपी गठबंधन की सीटें 200 के आसपास ठहर सकती है. ऐसी आशंकाएं निराधार भी नहीं हैं.
तीन दौर के मतदान से एक चीज़ तो स्पष्ट है कि इस बार मतदाताओं के बीच मोदी नाम की कोई लहर नहीं है. अलग-अलग सूबों में बीजेपी ने जो गठबंधन किए हैं, उससे भी अधिक लाभ मिलता नज़र नहीं आ रहा. उलटे सहयोगी दलों की किसी न किसी ग़लती से खेल और खराब ही हुआ है. उदाहरण के लिए बिहार में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की आलोचना के लिए जद (यू) नेताओं ने लगातार जैसी भाषा का इस्तेमाल किया, उससे महागठबंधन ने पूरे चुनाव को अगड़ा बनाम पिछड़ा करने में कामयाबी हासिल कर ली. वर्ना चुनाव के पहले दौर के मतदान तक एनडीए यहां बढ़त बनाए हुए था.
उत्तरप्रदेश में बीजेपी ने स्वयं के लिए चुनौती को समझते हुए ओबीसी वोटर्स पर दांव लगाया था लेकिन अलग-अलग क्षेत्रों में उसके छोटे-बड़े सहयोगियों ने ऐसा कारनामा किया कि ओबीसी वोट सपा-बसपा गठबंधन की ओर जाता दिखायी दे रहा है. महाराष्ट्र में शिवसेना सहयोगी होने के बावजूद अपने मुखपत्र ‘सामना’ के जरिए मोदी सरकार को लेकर जैसी भाषा इस्तेमाल हो रही है, इससे भी वहां का मतदाता भ्रमित हुआ है. ऊपर से शिवसेना से अलग हुई राज ठाकरे की पार्टी जिस तरह खुलकर एनडीए के ख़िलाफ़ नयी-नयी तकनीकों के सहारे प्रचार कर रही है, उससे कांग्रेस-राकांपा की संभावनाएं बढ़ी हैं.
बंगाल से ख़बरें आ रही हैं कि ममता बनर्जी के तृणमूल पर थोक से वोट पड़ रहे हैं. पूर्वोत्तर में नागरिक संशोधन विधेयक के मसले पर बीजेपी अपने पैर पर पहले ही कुल्हाड़ी चला चुकी है. गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, उत्तराखंड, झारखंड, हिमाचल प्रदेश जैसे सूबों में पिछली बार के मुकाबले बीजेपी को कुछ न कुछ नुकसान होने के आसार प्रबल हैं. दक्षिण में लाख कोशिशों के बावजूद पार्टी बेहतर होते हुए नहीं दिख रही. ओडिशा को लेकर पार्टी नेता जरूर आशान्वित हैं लेकिन लेकिन वहां से जैसी खबरें आ रही हैं, बीजेपी के लिए मुसीबत पैदा होने वाली हैं.
शहरी क्षेत्रों के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में वोटरों का उत्साह भी इस ओर इशारा करता है कि सत्ताधारी सरकार के लिउए चुनौतियां बढ़ी हैं. शहरी वोटरों को बीजेपी का प्रबल समर्थक माना जाता रहा है लेकिन इस वोट बैंक की चुनावों में अरूचि देखते हुए संभव है कि बीजेपी की सीटों का आंकड़ा पिछली बार के मुकाबले काफी नीचे लुढ़क सकता है. लेकिन अब सवाल उठता है कि क्या सच में कांग्रेस इतनी सीटें ला रही है कि वह अपने नेतृत्व में सरकार बनाने में कामयाब हो सके. मतदान के हालिया रुझान को देखते हुए इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता कि उसका प्रदर्शन पिछली बार के मुकाबले काफी बेहतर होने वाला है. हां, पार्टी बहुमत से काफी दूर रहे, इसमें कोई संदेह नहीं है. कांग्रेसी नेता भी मान कर चल रहे हैं कि पार्टी का आंकड़ा 200 तक पहुंच सकता है. पार्टी भी इसी रणनीति पर काम कर रही है.
कांग्रेस चाह रही है कि किसी भी तरह उसकी सीटों की संख्या बीजेपी की सीटों से अधिक हो ताकि चुनाव पश्चात गठबंधन का रास्ता उसके पक्ष में बनाने में आसानी हो. पार्टी के वरिष्ठ नेता और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी कहा है, ‘कांग्रेस बहुत अच्छा प्रदर्शन करेगी लेकिन कांग्रेस को अपने दम पर बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है. इसलिए दिल्ली में नयी सरकार के लिए चुनाव के बाद गठबंधन ज़रूरी है.’ ऐसे में यह तो तय हो ही गया है कि सत्तारूढ़ बीजेपी शासन में वापसी करने में सफल नहीं होगी. वजह है कि न तो इन्हें पर्याप्त सीटें मिलेंगी और न ही इनके साथ कोई गठबंधन करने जा रहा है.
अगर एनडीए या यूपीए में से किसी को बहुमत हासिल नहीं होता तो त्रिशंकु स्थिति में संसद का सिरमौर कौन होगा, इसके लिए 23 मई का इंतज़ार करना ज़रूरी है. माना जा रहा है कि अगर कांग्रेस यूपीए गठबंधन को मिलाकर 200 का आंकड़ा पार करेगी तो राहुल गांधी के नेतृत्व में सरकार बनाने का फैसला ले सकती है. ऐसी स्थिति में कांग्रेस एनडीए के उन सहयोगियों को अपने साथ जोड़ने का प्रयास करेगी जिनकी राजनीति का मिज़ाज धर्मनिरपेक्षतावादी हो. लेकिन यह स्थिति तब आयेगी जब कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए 200 सीटों का आंकड़ा आराम से पार कर पाए.
कहा यह भी जा रहा है कि कांग्रेस ने इसके लिए विचार-मंथन करना शुरू कर दिया है. त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में अगर उसके पास बहुत उपयुक्त आंकड़ा नहीं रहा तो वह विपक्षी गठबंधन की सरकार बनाने की ओर मदद का हाथ बढ़ाएगी. ऐसे में कुछ नाम सामने आ सकते हैं. इनमें राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार, तृणमूल की ममता बनर्जी, बीजद के बीजू पटनायक, आंध्र से चंद्रबाबू नायडु, उत्तर प्रदेश से मायावती शामिल हैं. जाहिर है इसमें शरद सबसे आगे हो सकते हैं.
वजह- उनकी छवि ऐसी है जिस पर शायद ही किसी विपक्षी पार्टी को ऐतराज हो. इसके अलावा प्रधानमंत्री बनने की उनकी ख्वाहिश के बारे में भी सभी जानते हैं. थक-हारकर इस बार उन्होंने एक तरह से राजनीति से संन्यास लेने का ऐलान कर दिया और चुनाव से दूरी बनायी, मगर यह कोई बड़ी बाधा नहीं है. अगर उनके नाम पर सहमति बनी तो वें उपचुनाव जीतकर संसद के सदस्य बन सकते हैं. जैसे-जैसे मतदान के दौर बीत रहे हैं, उनको लेकर सुगबुगाहट भी शुरू हो गयी है. एक खेमा अभी से उनकी राह बनाने में जुट गया है.
बहरहाल, बीजेपी का एक खेमा मोदी की जगह नितिन गड़करी को आगे करने की कोशिश कर रहा है. इस आशंका में कि बहुमत न आने की स्थिति में पार्टी गड़करी के चेहरे को आगे कर समर्थन जुटा सकती है. संघ ने तो बहुत पहले इस ओर इशारा कर दिया था. शायद मतदान से पहले ही संघ को अंदेशा हो चुका था कि मोदी की विदाई तय है. उनके तमाम आंतरिक सर्वेक्षण इस ओर इशारा कर रहे थे कि नोटबंदी, जीएसटी, बेरोज़गारी जैसे मसलों ने बीजेपी का नुकसान कर दिया है और उसकी भरपायी शायद अब संभव नहीं. मतदान के बीतते चरणों के साथ वह आशंका धरातल पर उतरती साफ नज़र भी आ रही है. फिर भी आखिरी तस्वीर के लिए 23 मई का इंतज़ार करना होगा क्योंकि लोकतंत्र में चुनाव का खेल भी अब टी-20 क्रिकेट की तरह रोमांचक हो चला है.