यदि किसी राजनीतिक दल को लोकसभा चुनाव में 42 में से महज दो सीटों पर जीत हासिल हो तो उसे अगले चुनाव से ही मृतप्राय: मान लिया जाता है, लेकिन बीजेपी ने इस बदतर स्थिति को चुनौती में बदलकर जीत की नई इबारत लिख दी है. जी हां, पश्चिम बंगाल में बीजेपी ने वो करिश्मा कर दिखाया है, जिसकी कल्पना कोई राजनीतिक दल सपने में भी नहीं कर सकता.
आपको बता दें कि पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 42 सीटें हैं. 2014 की मोदी लहर के बावजूद बीजेपी ने यहां महज दो सीटों पर जीत दर्ज की थी जबकि तृणमूल कांग्रेस ने 34, कांग्रेस ने चार और वाम दलों ने दो सीटों पर फतह हासिल की थी. जबकि 2016 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश की 294 सीटों में से तृणमूल कांग्रेस को 211 सीटों पर जीत मिलीं और बीजेपी को महज तीन सीटों पर संतोष करना पड़ा.
दोनों चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के मुकाबले में बीजेपी कहीं नहीं थी, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी—शाह की जोड़ी ने ममता बनर्जी के किले में सेंध लगा दी है. तृणमूल कांग्रेस को 22 सीटों पर जीत मिली है जबकि बीजेपी ने 18 सीटों पर फतह हासिल की. बीजेपी का यह प्रदर्शन पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह के उस दावे के आसपास है, जो उन्होंने चुनाव से पहले किया था. आपको बता दें कि शाह ने पश्चिम बंगाल में 23 से ज्यादा सीटें जीतने का दावा किया था.
जिस समय अमित शाह ने 23 से ज्यादा सीटें जीतने का दावा किया तो राजनीति के जानकारों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया. सबने यह माना कि पश्चिम बंगाल में वाम दलों के किले को ध्वस्त कर सत्ता पर काबिज हुईं ममता बनर्जी को मात देना नामुमकिन है, लेकिन बीजेपी ने यह करिश्मा कर दिखाया है. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के किले में सेंध कैसे लगाई.
असल में 2014 के लोकसभा चुनाव और 2016 में विधानसभा चुनाव में करारी हार झेलने के बाद पश्चिम बंगाल की कमान संघ ने अपने हाथों में ली. बीते तीन साल में पश्चिम बंगाल में बीजेपी के लिए जमीन तैयार करने में संघ ने बड़ी भूमिका निभाई. इस दौरान प्रदेश में संघ का नेटवर्क तेजी से बढ़ा. शाखाओं की संख्या इसकी मुनादी करती है. गौरतलब है कि संघ की शाखाओं में 2016 में पश्चिम बंगाल में तेजी से बढ़ोतरी हुई है. 2016 में इनकी संख्या 700 के आसपास थी, जो अब बढ़कर 2000 को पार कर चुकी है.
पश्चिम बंगाल में संघ की शाखाएं बढ़ने का असर यह हुआ कि सूबे में ममता बनर्जी की कार्यशैली का विरोध करने के लिए एक संगठित शक्ति बीजेपी को मिल गई. इसका फायदा पश्चिम बंगाल में पार्टी के प्रभारी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने बखूबी उठाया. 2017 में बशीरहाट में एक फेसबुक पोस्ट से भड़के दंगे ने उनके लिए ध्रुवीकरण की जमीन तैयार की. राजनीति के जानकारों ने उसी समय यह भविष्यवाणी कर दी थी कि बशीरहाट पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव का बैरोमीटर बनेगा. ऐसा हुआ भी.
आपको बता दें कि बशीरहाट में लगभग 10 लाख मुसलमान रहते हैं. यहां कथित रूप से बांग्लादेश से घुसपैठ और सीमापार गाय की तस्करी होने का आरोप बीजेपी लगाती है. पार्टी के नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान खुलेआम यह कहा कि बशीरहाट और आसपास के इलाकों में यह सब ममता बनर्जी के संरक्षण में होता है. बीजेपी के इस आरोप का बंगाल के हिंदुओं में व्यापक असर दिखा. इसके अलावा ‘इमामों को मिल रहे भत्ते’ और स्कूलों में ‘उर्दू थोपने’ का मामला भी बीजेपी एजेंडे में शामिल रहा. असम की तरह पश्चिम बंगाल में भी एनआरसी लागू करने के बीजेपी के वादे ने हिंदुओं को आकर्षित किया.
इसकी काट के लिए ममता बनर्जी भी ध्रुवीकरण की रणनीति पर चलीं. यानी लोकसभा चुनाव में बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस, दोनों की रणनीति ध्रुवीकरण की रही. बीजेपी नेतृत्व का यह आकलन था कि ध्रुवीकरण के खुले खेल में उनकी पार्टी को सबसे बड़ा फायदा होगा, क्योंकि मुस्लिम वोट तृणमूल कांग्रेस, वाम दलों और कांग्रेस के बीच बंटेंगे जबकि हिंदुओं के वोट सिर्फ उसे मिलेंगे. बीजेपी की 18 सीटों पर जीत इसकी पुष्टि करते हैं.
बीजेपी को एक आकलन यह भी था कि तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के आतंक से त्रस्त वाम दलों और कांग्रेस के समर्थक इस उम्मीद से उनके साथ आएंगे कि बीजेपी ही ममता बनर्जी से मुक्ति दिला सकती है. चुनाव नतीजे इस ओर साफ इशारा करते हैं. पश्चिम बंगाल में वाम दलों को एक भी सीट पर जीत नसीब नहीं हुई जबकि कांग्रेस को महज एक सीट पर संतोष करना पड़ा.
बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 18 सीटों पर सिर्फ जीत ही दर्ज नहीं की है, बल्कि 2021 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए तृणमूल कांग्रेस के सामने तगड़ी चुनौती पेश कर दी है. लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को जहां 43.36 प्रतिशत वोट मिले हैं, वहीं बीजेपी को 40.23 प्रतिशत वोट मिले हैं. लोकसभा चुनाव में अच्छे प्रदर्शन के बाद आत्मविश्वास से लबरेज बीजेपी के लिए इस अंतर को पाटना मुश्किल काम नहीं है.
पश्चिम बंगाल में बीजेपी दूसरे नंबर पर तो लोकसभा चुनाव के पहले ही आ गई थी. पंचायत चुनाव के नतीजे इसकी गवाही देते हैं. आपको बता दें कि राज्य की 9214 पंचायत समितियों में से तृणमूल कांग्रेस को 8062 और दूसरे स्थान पर रही बीजेपी को 769 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं, 133 सीटें लेकर कांग्रेस तीसरे और 110 सीटों के साथ वाम दल चौथे स्थान पर रहे. इसी तरह 49 हजार 636 ग्राम पंचायतों में तृणमूल कांग्रेस को 38 हजार 118, बीजेपी को 1483, कांग्रेस को 1066 और माकपा को 1483 सीटें मिली.
तृणमूल कांग्रेस के कई नेता भी यह मानते हैं कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी इसी गति से आगे बढ़ती रही तो विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी के लिए खतरा बन सकती है. हालांकि वे बीजेपी के इस उभार के लिए ममता बनर्जी को ही जिम्मेदार मानते हैं. अनौपचारिक बातचीत में वे यह खुलकर स्वीकार करते हैं कि प्रदेश में बीजेपी की सबसे बड़ी प्रमोटर उनकी नेता ही हैं. यदि यहां बीजेपी पैर पसार रही है तो इसके लिए खाद—पानी ममता बनर्जी ने ही मुहैया करवाया है.
लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी की अगली रणनीति तृणमूल कांग्रेस में तोड़फोड़ करने की है. कभी ममता बनर्जी के करीबी रहे मुकुल रॉय सहित कई नेता बीजेपी में आ चुके हैं. असल में तृणमूल कांग्रेस के कई नेता यह मानते हैं कि ममता बनर्जी पार्टी को एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चला रही हैं. ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी को पार्टी में अपने उत्तराधिकारी के रूप में आगे बढ़ाना कई वरिष्ठ नेताओं को अखर रहा है.
लोकसभा चुनाव में बीजेपी का अच्छा प्रदर्शन ममता बनर्जी पर दबाव और बढ़ाएगा. इस माहौल को बीजेपी मौके की तरह लेगी. केंद्र में सत्ता में लौटने के बाद बीजेपी की ताकत वैसे ही बढ़ गई है. अब तो तृणमूल कांग्रेस के नेता ही यह मानने लगे हैं कि यदि बीजेपी इसी रणनीति और गति से आगे बढ़ी तो पार्टी पश्चिम बंगाल में परचम फहराने के करीब पहुंच सकती है.