राजस्थान में पिछले साल दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव में सत्ता से बाहर हुई बीजेपी ने सूबे में लोकसभा में ऐतिहासिक वापसी की है. पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव की तरह सभी 25 सीटों पर जीत दर्ज कर रिकॉर्ड कायम कर दिया है. 24 सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवार विजयी रहे हैं जबकि नागौर सीट पर पार्टी के साथ गठबंधन में शामिल राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी यानी आरएलपी के संयोजक हनुमान बेनीवाल ने फतह हालिस की है.
आपको बता दें कि राजस्थान में पिछले कई वर्षों से यह ट्रेंड रहा है कि प्रदेश में जिस पार्टी की सरकार होती है, लोकसभा चुनाव में उसे ही ज्यादा सीटों पर जीत हासिल होती है. बीजेपी ने न सिर्फ इस बार यह मिथक तोड़ा है, बल्कि पांच महीने पहले सत्ता के सिंहासन पर पहुंची कांग्रेस को शून्य पर ला पटका. इस नजरिये से देखें तो बीजेपी की इस बार की जीत 2014 की जीत से भी बड़ी मानी जाएगी.
2014 का लोकसभा चुनाव तो बीजेपी ने छह महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में 200 में से 163 सीटों के बंपर जनादेश के बाद पैदा हुए आत्मविश्वास के साथ लड़ा था. लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव के रण में उतरने से पहले बीजेपी को सत्ता से हाथ धोना पड़ा. हालांकि विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस से अच्छा मुकाबला किया. जहां कांग्रेस ने 99 सीटों पर जीत दर्ज की, वहीं बीजेपी ने 73 सीटों पर फतह हासिल की.
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीटों की संख्या में तो फासला था, लेकिन वोटिंग प्रतिशत में ज्यादा अंतर नहीं था. तभी से यह माना जा रहा था कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और बीजेपी के बीच कांटे का मुकाबला होगा, लेकिन जो नतीजे सामने आए हैं उनके हिसाब से मुकाबला एकतरफा हो गया. कांग्रेस का कोई उम्मीदवार जीत दर्ज करना तो दूर बीजेपी प्रत्याशी को टक्कर तक नहीं दे पाया.
कांग्रेस को कितनी शर्मनाक हार झेलनी पड़ी है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी के सिर्फ दो उम्मीदवार एक लाख के कम अंतर से चुनाव हारे हैं. भीलवाड़ा में हार का अंतर छह लाख से ज्यादा रहा जबकि चित्तौड़गढ़ और राजमसमंद में बीजेपी उम्मीदवार पांच लाख से ज्यादा वोटों से जीते.
कांग्रेस प्रत्याशी अजमेर, गंगानगर, जयपुर, झालावाड़—बारां, पाली और उदयपुर में चार लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव हारे जबकि अलवर, बांसवाड़ा, बाड़मेर, भरतपुर, चुरू और जयपुर ग्रामीण में हार का अंतर तीन लाख से ज्यादा रहा. बीकानेर, जालौर, झुंझुनूं, जोधपुर, सीकर और कोटा में कांग्रेस उम्मीदवार दो लाख से ज्यादा वोटों से हारे जबकि नागौर और टोंक—सवाई माधोपुर में यह अंतर एक लाख से अधिक का रहा. कांग्रेस के उम्मीदवार सिर्फ दौसा और करौली—धौलपुर में एक लाख से कम अंतर से चुनाव हारे.
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की दुदर्शा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेटे वैभव गहलोत करीब पौने तीन लाख से चुनाव हार गए जबकि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने इस सीट की आठ विधानसभा सीटों पर अच्छी बढ़त कायम की थी. लेकिन लोकसभा चुनाव में पार्टी इसे कायम नहीं रख पायी. यहां तक कि अशोक गहलोत की सरदारपुरा विधानसभा सीट से बीजेपी प्रत्याशी गजेंद्र सिंह शेखावत को बढ़त मिली.
ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि पांच महीने में ऐसा क्या हो गया कि राजस्थान में कांग्रेस लोगों के मन से उतर गई. विश्लेषकों के अनुसार प्रदेश में कांग्रेस की हार से ज्यादा बीजेपी की जीत हुई है. उसी बीजेपी की जो मोदी के चेहरे और राष्ट्रवाद के नाम पर चुनावी मैदान में उतरी. पांच महीने पहले राजस्थान के लोगों के मन में तत्कालीन वसुंधरा सरकार में गुस्सा था, जो विधानसभा चुनाव में निकल गया.
यह बीजेपी की रणनीति थी कि पार्टी ने विधानसभा चुनाव के समय ‘मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं’ का नारा गढ़ा. आपको बता दें कि विधानसभा चुनाव के समय यह नारा प्रदेश में गूंजा था. बताया तो यह गया कि इस नारे को देने वाली राजस्थान की जनता है, लेकिन सूत्रों के अनुसार यह नारा बीजेपी के भीतर से निकला. इसे पार्टी के उन नेताओं ने चुनावी मौसम में उछाला जिन्हें वसुंधरा राजे का विरोधी माना जाता है. खैर, सच्चाई जो भी हो, विधानसभा चुनाव में लोगों का गुस्सा राजे पर तो उतरा, लेकिन मोदी से उनका लगाव बरकरार रहा.
यही वजह है कि विधानसभा चुनाव के इतर लोकसभा चुनाव में सिर्फ मोदी का चेहरा और राष्ट्रवाद हावी रहा. कांग्रेस इसकी काट का कोई तरीका नहीं खोज पाई. उल्टा अशोक गहलोत सरकार ने पांच महीने के कार्यकाल में कई ऐसे मुद्दे बीजेपी को दे दिए, जिन्हें उसने हथियार बना लिया. सबसे बड़ा मुद्दा किसानों की कर्जमाफी का रहा. विधानसभा चुनाव के समय कांग्रेस ने किसानों का कर्ज माफ करने का वादा किया था.
कांग्रेस ने सत्ता में आने के बाद किसानों की कर्जमाफी का आदेश तो दस दिन के भीतर निकाल दिया, लेकिन अभी तक किसानों का कर्ज माफ नहीं हुआ है. बीजेपी के स्टार प्रचारकों ने किसानों की कर्जमाफी को बड़ा मुद्दा बनाया. बेरोजगारी भत्ता भी ऐसा ही मुद्दा रहा. आपको बता दें कि कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के समय युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देने का वादा किया था. सरकार बनने के बाद इसका आदेश तो जारी हो गया, लेकिन भत्ता मिलना अभी तक शुरू नहीं हुआ है.
कुल मिलाकर पांच महीने के कार्यकाल में अशोक गहलोत ने कई बड़ी घोषणाएं कीं, लेकिन इनमें से कोई भी ऐसी नहीं थी जो मोदी के चेहरे और राष्ट्रवाद की काट बन सके. कांग्रेस के भीतर विधानसभा चुनाव के समय से ही चल रही गुटबाजी की छाया लोकसभा चुनावों में भी दिखाई दी. बड़े नेताओं ने पार्टी के प्रदर्शन पर ध्यान देने की बजाय अपने-अपने चहेतों को टिकट दिलवाने पर फोकस किया. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का अपने बेटे वैभव के प्रचार में उलझना भी पार्टी के लिए नुकसानदायक रहा.
चुनाव में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का मैदान में नहीं उतरना भी पार्टी के खिलाफ गया. गौरतलब है कि डॉ. सीपी जोशी, सचिन पायलट, लालचंद कटारिया, डॉ. रघु शर्मा और महेश जोशी जैसे दिग्गज नेता लोकसभा चुनाव लड़ते और जीतते रहे हैं, लेकिन इस बार इन सभी ने विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमाई. यदि ये नेता लोकसभा चुनाव के रण में उतरते तो कई सीटों पर समीकरण बदल सकते थे मगर इन्होंने राज्य सरकार में ओहदे पर बने रहना ज्यादा जरूरी समझा.
गुटबाजी बीजेपी के अंदर भी थी, लेकिन मोदी के चेहरे और राष्ट्रवाद ने इसे ढक दिया. बीजेपी के कई उम्मीदवारों के खिलाफ लोगों में नाराजगी थी, लेकिन उन्हें नजरअंदाज कर मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए बीजेपी को वोट दिया. यही वजह है कि पांच महीने पहले राजस्थान में सत्ता से बाहर हुई बीजेपी ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया.