यह बात आज से करीब तीन दशक पहले की है. सूरतगढ़ के मनफूल सिंह भादू तब बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा करते थे. उनके नाम के साथ एक बात आज भी प्रचलन में है कि मुझे बीकानेर के वोटों की जरूरत नहीं है, मैं पीछे से ‘लीड’ लेकर आता हूं. यह बात भादू ने कही या नहीं, इसका कोई अधिकृत उत्तर नहीं है, लेकिन इस कथित बयान को आज भी बीकानेर याद करता है.
तीन दशक बाद जब केंद्रीय राज्यमंत्री अर्जुनराम मेघवाल अपना तीसरा चुनाव लड़ने जा रहे हैं, तब यह ‘लीड’ फिर से चर्चा में है. बीकानेर की सात विधानसभा सीटों को मिलाकर एक लोकसभा सीट तैयार होती है. अगर सभी विधानसभा सीटों पर बात करें तो अर्जुनराम के लिए ‘लीड’ ढूंढ पाना थोड़ा मुश्किल है. उनके साथ जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम जुड़ता है तो युवाओं का जोश साथ नजर आता है.
दरअसल, अर्जुनराम के मामले में ‘लीड’ इसलिए नजर नहीं आती, क्योंकि सातों विधानसभा सीटों में उनसे नाराज कार्यकर्ताओं की फेहरिस्त काफी लंबी हो गई है. पिछले कुछ सालों में इसमें तेजी से इजाफा हुआ है. इसकी जड़ में अर्जुनराम की दलित नेता की वह पहचान है, जिसे वे देशव्यापी बनाने की जद्दोजहद में अरसे से जुटे हैं. उनकी इस छवि का उन्हें फायदा भी होता है और नुकसान भी.
उनकी यह छवि बीकानेर शहर की पूर्व और पश्चिम विधानसभा सीट पर परेशानी का सबब है. पिछले साल दो अप्रेल को एससी-एसटी एक्ट के मुद्दे पर दलित संगठनों की ओर से आयोजित भारत बंद के दौरान बीकानेर शहर में हुए बवाल अुर्जनराम के लिए जी का जंजाल बन गया है. उनके विरोधी दिन-रात यह ढिंढोरा पीटते हैं कि मारपीट मेघवाल के इशारे पर हुई.
हालांकि यह आरोप सिरे से खारिज करने लायक है कि एक केंद्रीय मंत्री अपने निर्वाचन क्षेत्र में ऐसी हरकत को क्यों शह देंगे. यह एक तथ्य है कि मेघवाल उस समय शहर में नहीं थे. बावजूद इसके विरोधियों ने ऐसा माहौल बना दिया है कि सामान्य वर्ग के लोगों का बड़ा तबका उनसे नाखुश हो गया. पिछले दिनों पुष्करणा समाज के सामूहिक सावे के दौरान उन्हें इस विरोध का सामना भी करना पड़ा.
अलबत्ता सामान्य वर्ग की यह नाराजगी में अर्जुनराम का फायदा भी है. दो अप्रेल की घटना के बाद बीकानेर का दलित तबके में उनकी पकड़ और मजबूत हुई है. खासकर मेघवाल समाज उनके पक्ष में लामबंद है. इस स्थिति में उनके विरोधी गैर मेघवाल दलित वोटों को ध्रुवीकरण करके अर्जुन का तीर दिशाहीन करने की कोशिश में हैं.
मजे की बात है कि उन्हें इस दुविधा में फंसाने वाले कोई और नहीं, बल्कि भाजपा के ही दिग्गज नेता हैं. श्रीकोलायत के पूर्व विधायक और मंत्री रहे देवी सिंह भाटी ने पिछले दिनों गैर मेघवाल दलित समाज की बैठक की तो सियासी हलकों में यह आवाज उठने लगी कि यह अर्जुनराम के खिलाफ भाटी का ‘बाउंसर’ है. हालांकि मेघवाल इस ‘बाउंसर’ पर छक्का मारने की कोशिश में जुटे हुए हैं. गेंद बाउड्री पार होगी या नहीं, यह तो चुनाव के नतीजे के बाद ही पता चलेगा, लेकिन वे ‘फ्रंट फुट’ खड़े जरूर हो गए हैं.
बीकानेर लोकसभा सीट पर भाजपा को कांग्रेस से कम और अपने ही वरिष्ठ नेताओं से खतरा अधिक है. पार्टी का एक गुट स्पष्ट रूप से मेघवाल का विरोध कर रहा है, वहीं एक गुट साफ तौर पर उनके साथ है. अगर मेघवाल को लगातार तीसरी बार टिकट मिलता है तो कार्यकर्ताओं को अभी से एक जाजम के नीचे आने की जरूरत है, क्योंकि विरोधी साफ तौर पर उनके खिलाफ लामबंद हो चुके हैं.
मेघवाल का विरोध करने वाले नोखा, लूणकरनसर, बीकानेर पूर्व, बीकानेर पश्चिम, खाजूवाला, श्रीडूंगरगढ़ में देखे जा सकते हैं. यह विरोध स्वयं भाजपा में दिन-रात एक करने वाले हैं, वहीं एक दल मेघवाल के अलावा किसी दूसरे को पसंद नहीं कर सकता. कई मौकों पर दोनों खेमों की खींचतान जगजाहिर हो चुकी है.
इसके बावजूद अर्जुनराम के लिए राहत की बात यह है कि अभी तक कांग्रेस की ओर से कोई मजबूत दावेदार सामने नहीं आया. कांग्रेस की ओर से अब तक ऐसे कोई नेता आगे जाने चाहिए, जिन्हें चुनाव लड़ना है. ऐसे चेहरे जरूर सामने आ रहे हैं जिनका जनाधार मेघवाल के मुकाबले काफी कम है.
बीकानेर में यह चर्चा भी जोरों पर है कि दो बार सांसद रहे अर्जुनराम तीसरी बार भी जीतते हैं तो मंत्री बनना तय है. यह चर्चा उनके लिए संजीवनी है. पिछले दिनों पार्टी प्रदेशाध्यक्ष रूप में उनका नाम चर्चा में आने से भी कार्यकर्ताओं का ‘टोळा’ उनके साथ बना हुआ है. वहीं, भाजपा में अब तक कोई ऐसा दावेदार नहीं है, जो उनकी जगह को भर सके.
बावजूद इसके कई बार यह सुनने में आता है कि अर्जुनराम इस बार अपनी सीट बदल सकते हैं. यह तुर्रा बेसिर-पैर का इसलिए लगता है, क्योंकि खुद मेघवाल बीकानेर के अलावा किसी दूसरी सीट पर चुनाव लड़ने की तैयारी के साथ सक्रिय नजर नहीं आते. वैसे भी किसी दूसरी सीट की बजाय बीकानेर में उनकी स्थिति बेहतर है.