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बीकानेर में अर्जुन मेघवाल अपनों की आंख का कांटा क्यों बन गए हैं?

यह बात आज से करीब तीन दशक पहले की है. सूरतगढ़ के मनफूल सिंह भादू तब बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा करते थे. उनके नाम के साथ एक बात आज भी प्रचलन में है कि मुझे बीकानेर के वोटों की जरूरत नहीं है, मैं पीछे से ‘लीड’ लेकर आता हूं. यह बात भादू ने कही या नहीं, इसका कोई अधिकृत उत्तर नहीं है, लेकिन इस कथित बयान को आज भी बीकानेर याद करता है.

तीन दशक बाद जब केंद्रीय राज्यमंत्री अर्जुनराम मेघवाल अपना तीसरा चुनाव लड़ने जा रहे हैं, तब यह ‘लीड’ फिर से चर्चा में है. बीकानेर की सात विधानसभा सीटों को मिलाकर एक लोकसभा सीट तैयार होती है. अगर सभी विधानसभा सीटों पर बात करें तो अर्जुनराम के लिए ‘लीड’ ढूंढ पाना थोड़ा मुश्किल है. उनके साथ जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम जुड़ता है तो युवाओं का जोश साथ नजर आता है.

दरअसल, अर्जुनराम के मामले में ‘लीड’ इसलिए नजर नहीं आती, क्योंकि सातों विधानसभा सीटों में उनसे नाराज कार्यकर्ताओं की फेहरिस्त काफी लंबी हो गई है. पिछले कुछ सालों में इसमें तेजी से इजाफा हुआ है. इसकी जड़ में अर्जुनराम की दलित नेता की वह पहचान है, जिसे वे देशव्यापी बनाने की जद्दोजहद में अरसे से जुटे हैं. उनकी इस छवि का उन्हें फायदा भी होता है और नुकसान भी.

उनकी यह छवि बीकानेर शहर की पूर्व और पश्चिम विधानसभा सीट पर परेशानी का सबब है. पिछले साल दो अप्रेल को एससी-एसटी एक्ट के मुद्दे पर दलित संगठनों की ओर से आयोजित भारत बंद के दौरान बीकानेर शहर में हुए बवाल अुर्जनराम के लिए जी का जंजाल बन गया है. उनके विरोधी दिन-रात यह ढिंढोरा पीटते हैं कि मारपीट मेघवाल के इशारे पर हुई.

हालांकि यह आरोप सिरे से खारिज करने लायक है कि एक केंद्रीय मंत्री अपने निर्वाचन क्षेत्र में ऐसी हरकत को क्यों शह देंगे. यह एक तथ्य है कि मेघवाल उस समय शहर में नहीं थे. बावजूद इसके विरोधियों ने ऐसा माहौल बना दिया है कि सामान्य वर्ग के लोगों का बड़ा तबका उनसे नाखुश हो गया. पिछले दिनों पुष्करणा समाज के सामूहिक सावे के दौरान उन्हें इस विरोध का सामना भी करना पड़ा.

अलबत्ता सामान्य वर्ग की यह नाराजगी में अर्जुनराम का फायदा भी है. दो अप्रेल की घटना के बाद बीकानेर का दलित तबके में उनकी पकड़ और मजबूत हुई है. खासकर मेघवाल समाज उनके पक्ष में लामबंद है. इस स्थिति में उनके विरोधी गैर मेघवाल दलित वोटों को ध्रुवीकरण करके अर्जुन का तीर दिशाहीन करने की कोशिश में हैं.

मजे की बात है कि उन्हें इस दुविधा में फंसाने वाले कोई और नहीं, बल्कि भाजपा के ही दिग्गज नेता हैं. श्रीकोलायत के पूर्व विधायक और मंत्री रहे देवी सिंह भाटी ने पिछले दिनों गैर मेघवाल दलित समाज की बैठक की तो सियासी हलकों में यह आवाज उठने लगी कि यह अर्जुनराम के खिलाफ भाटी का ‘बाउंसर’ है. हालांकि मेघवाल इस ‘बाउंसर’ पर छक्का मारने की कोशिश में जुटे हुए हैं. गेंद बाउड्री पार होगी या नहीं, यह तो चुनाव के नतीजे के बाद ही पता चलेगा, लेकिन वे ‘फ्रंट फुट’ खड़े जरूर हो गए हैं.

बीकानेर लोकसभा सीट पर भाजपा को कांग्रेस से कम और अपने ही वरिष्ठ नेताओं से खतरा अधिक है. पार्टी का एक गुट स्पष्ट रूप से मेघवाल का विरोध कर रहा है, वहीं एक गुट साफ तौर पर उनके साथ है. अगर मेघवाल को लगातार तीसरी बार टिकट मिलता है तो कार्यकर्ताओं को अभी से एक जाजम के नीचे आने की जरूरत है, क्योंकि विरोधी साफ तौर पर उनके खिलाफ लामबंद हो चुके हैं.

मेघवाल का विरोध करने वाले नोखा, लूणकरनसर, बीकानेर पूर्व, बीकानेर पश्चिम, खाजूवाला, श्रीडूंगरगढ़ में देखे जा सकते हैं. यह विरोध स्वयं भाजपा में दिन-रात एक करने वाले हैं, वहीं एक दल मेघवाल के अलावा किसी दूसरे को पसंद नहीं कर सकता. कई मौकों पर दोनों खेमों की खींचतान जगजाहिर हो चुकी है.

इसके बावजूद अर्जुनराम के लिए राहत की बात यह है कि अभी तक कांग्रेस की ओर से कोई मजबूत दावेदार सामने नहीं आया. कांग्रेस की ओर से अब तक ऐसे कोई नेता आगे जाने चाहिए, जिन्हें चुनाव लड़ना है. ऐसे चेहरे जरूर सामने आ रहे हैं जिनका जनाधार मेघवाल के मुकाबले काफी कम है.

बीकानेर में यह चर्चा भी जोरों पर है कि दो बार सांसद रहे अर्जुनराम तीसरी बार भी जीतते हैं तो मंत्री बनना तय है. यह चर्चा उनके लिए संजीवनी है. पिछले दिनों पार्टी प्रदेशाध्यक्ष रूप में उनका नाम चर्चा में आने से भी कार्यकर्ताओं का ‘टोळा’ उनके साथ बना हुआ है. वहीं, भाजपा में अब तक कोई ऐसा दावेदार नहीं है, जो उनकी जगह को भर सके.

बावजूद इसके कई बार यह सुनने में आता है कि अर्जुनराम इस बार अपनी सीट बदल सकते हैं. यह तुर्रा बेसिर-पैर का इसलिए लगता है, क्योंकि खुद मेघवाल बीकानेर के अलावा किसी दूसरी सीट पर चुनाव लड़ने की तैयारी के साथ सक्रिय नजर नहीं आते. वैसे भी किसी दूसरी सीट की बजाय बीकानेर में उनकी स्थिति बेहतर है.

बीकानेर सीट पर ‘अर्जुन’ को ‘अभिमन्यु’ बनाने की तैयारी में जुटे अपने

बेटे को अजमेर से चुनावी मैदान में उतारने की तैयारी में डॉ. रघु शर्मा

बेटे सागर को अजमेर से चुनावी मैदान में उतारने की तैयारी में डॉ. रघु शर्मा

लोकसभा चुनाव की तारीखों का एलान अभी नहीं हुआ है, लेकिन बिगुल बज चुका है. राजस्थान की 25 लोकसभा सीटों पर कांग्रेस और भाजपा अपने सियासी समीकरण बनाने में जुटी हैं. भाजपा के गढ़ के रूप में पहचान रखने वाली अजमेर सीट को 10 साल पहले 2009 के लोकसभा चुनाव में सचिन पायलट ने कांग्रेस के खाते में डाला था. उन्होंने यहां से किरण माहेश्वरी को शिकस्त दी और मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री बने, लेकिन 2014 के चुनाव में मोदी तूफान के बीच पायलट का चुनावी जहाज डूब गया. इस चुनाव में भाजपा के दिग्गज नेता प्रो. सांवरलाल जाट ने पायलट को चुनाव हराया.

लोकसभा चुनाव में हार के बाद पायलट ने प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद की बागडौर संभाली. इसी दौरान कार्यकाल पूरा होने से पहले ही सांसद सांवलाल जाट का बीमारी के चलते निधन हो गया. जाट के निधन के बाद अजमेर सीट पर उपचुनाव हुए. इसमें भाजपा ने सांवरलाल जाट के बेटे रामस्वरूप लांबा को उम्मीदवार बनाया जबकि कांग्रेस डॉ. रघु शर्मा को चुनावी मैदान में उतारा. भाजपा को लगता था कि लांबा को सहानुभूति के वोट मिलेंगे, लेकिन राज्य सरकार के खिलाफ नाराजगी इस रणनीति पर भारी पड़ी. भाजपा को इस सीट की आठों विधानसभाओं में हार का सामना करना पड़ा और रघु शर्मा पहली बार संसद की देहरी चढ़े.

डॉ. रघु शर्मा सांसद तो बन गए, लेकिन सूबे की राजनीति से उनका मोह नहीं छूटा. पिछले साल दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव में उन्होंने केकड़ी सीट से भाग्य आजमाया. उन्होंने भाजपा प्रत्याशी को हराकर 2013 में हुई हार का बदला ले लिया. बता दें कि शर्मा 2008 में इसी सीट से विधायक का चुनाव जीत चुके हैं, लेकिन 2013 के चुनाव में मोदी लहर में वे अपनी सीट नहीं बचा पाए थे. इस बार रघु शर्मा चुनाव ही नहीं जीते, बल्कि अशोक गहलोत सरकार में कैबिनेट मंत्री भी बने. उनके पास चिकित्सा जैसे अहम महकमे का जिम्मा है.

एक साल के भीतर पहले लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस में शक्ति का नया केंद्र बने रघु शर्मा का नाम लोकसभा चुनाव से पहले एक बार फिर सुर्खियों में है. वे अपने बेटे सागर शर्मा को यहां से चुनावी मैदान में उतारना चाहते हैं. इसके लिए वे जयपुर से लेकर दिल्ली तक लॉबिंग में जुटे हैं. हालांकि प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट कई बार यह साफ कर चुके हैं ​कि किसी भी नेता के रिश्तेदार को टिकट नहीं मिलेगा, लेकिन सियासत संभावनाओं का खेल है. यहां नियम बनते ही टूटने के लिए हैं.

सागर शर्मा अपने पिता के मंत्री बनने के बाद से ही अजमेर की राजनीति में सक्रिय हैं. कई जगह तो सरकारी कार्यक्रमों में भी वे अतिथि की हैसियत से शिरकत कर रहे हैं. सागर को टिकट मिलेगा या नहीं, यह तो कुछ दिनों में साफ हो जाएगा, लेकिन उनकी सक्रियता ने अजमेर सीट पर कांग्रेस के दावेदारों सकते में डाल रखा है. कोई खुलकर तो नहीं बोल रहा पर अंदरखाने आलाकमान तक यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि पार्टी रघु पर आखिरकार कितनी मेहरबानी करेगी.

गौरतलब है कि अजमेर सीट से टिकट हासिल करने के लिए अजमेर डेयरी के सदर रामचंद्र चौधरी, पूर्व मंत्री ललित भाटी, महेंद्र सिंह रलावता, राज्य सभा सांसद प्रभा ठाकुर, अजमेर देहात अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह राठौड़ सहित कई नेता जयपुर और दिल्ली की दौड़ में शामिल हैं. राज्यसभा सांसद रह चुकीं प्रभा ठाकुर पहले भी कांग्रेस के टिकट पर भाजपा के रासा सिंह रावत के सामने लोकसभा का चुनाव लड़ चुकी है. उनका दिल्ली में भी अच्छा रुतबा है.

वहीं, प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव महेंद्र सिंह रलावता भी टिकट की दौड़ में शामिल हैं. हालांकि उन्हें हाल ही में लोकसभा चुनाव के लिए बनी प्रदेश की चुनाव प्रचार समिति में जिम्मेदारी दी गई है. इससे संकेत मिलता है कि आलाकमान उन्हें टिकट देने के मूड में नहीं है. बता दें कि विधानसभा चुनाव में पार्टी ने रलावता को अजमेर उत्तर से टिकट दिया था, लेकिन भाजपा के वासुदेव देवनानी के सामने उनकी दाल नहीं गली.

कांग्रेस की ओर से सबसे मजबूत दावेदारों में अजमेर डेयरी के सदर रामचंद्र चौधरी का नाम सबसे आगे माना जा रहा है. अजमेर संसदीय क्षेत्र में जाट जाति का अच्छा खासा वर्चस्व है. वहीं, अजमेर डेयरी का कार्यक्षेत्र जिले के सभी ग्रामीण क्षेत्रों से सीधा जुड़ा है. चौधरी का अजमेर डेयरी के माध्यम से जिले के हजारों दुग्ध उत्पादकों से सीधा संपर्क है. वे लंबे समय से लोकसभा टिकट की मांग करते रहे हैं. जिस समय सचिन पायलट ने अजमेर से चुनाव लड़ा था, उस समय भी चौधरी का नाम टिकट के प्रमुख दावेदारों मे था. चौधरी ने पहले पायलट और फिर रघु शर्मा के चुनाव के समय भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी.

कांग्रेस से टिकट पाने की दौड़ में कांग्रेस देहात अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह राठौड़ का नाम भी चर्चा में है. राठौड़ को पीसीसी अयक्ष सचिन पायलट के खेमे का माना जाता है. वे पिछले कई महीनों से चुनाव की तैयारी कर रहे हैं. इन दावेदारों में से किसे चुनावी मैदान में उतारा जाए, इसको लेकर कांग्रेस में चिंतन और मंथन का दौर जारी है. विभिन्न स्तरों पर रायशुमारी के बाद गेंद अब शीर्ष नेतृत्व के पाले में हैं.

राजस्थान सरकार मुफ्त में देगी पीने का पानी, 1 अप्रेल से नहीं भरना पड़ेगा बिल

PoliTalks news

लोकसभा चुनाव के लिए ‘मिशन-25’ की तैयारी में जुटे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सरकार की ओर से आचार संहिता लगने से पहले लोकलुभावन घो​षणाओं का सिलसिला जारी है. दिल्ली में केजरीवाल सरकार की तर्ज पर मुख्यमंत्री ने प्रदेश की 2.08 करोड़ ग्रामीण और 56 लाख शहरी आबादी को पीने के पानी की मुफ्त आपूर्ति की घोषणा की है. यह व्यवस्था आने वाली एक अप्रेल से लागू होगी. मुख्यमंत्री ने दावा किया कि इससे लोगों को सालाना 161 करोड़ रुपये की बचत होगी.

सरकार के आदेश के मुताबिक ग्रामीण ग्रामीण क्षेत्रों में 40 एलपीसीडी पानी के उपभोग तक वाटर चार्ज अब नहीं लिया जाएगा. इससे प्रदेश की करीब 2.8 करोड़ ग्रामीण आबादी लाभान्वित होगी. जबकि शहरी क्षेत्रों में चालू मीटर वाले कनेक्शन पर 15 किलो लीटर मासिक उपभोग तक वाटर चार्ज तथा वर्तमान व्यवस्था के तहत लिए जा रहे सीवरेज और विकास शुल्क अथवा सरचार्ज अब नहीं लिए जाएंगे. शहरी क्षेत्रों में जहां फ्लैट रेट बिलिंग की व्यवस्था है, वहां भी वाटर चार्ज नहीं लिया जाएगा.

सा​थ ही मुख्यमंत्री ने जलदाय विभाग को शहरी क्षेत्रों में सघन अभियान चलाकर अगले दो वर्ष में बंद पडे़ मीटर बदलने की प्रक्रिया पूरी करने के निर्देश दिए हैं. मीटर चालू हालत में आने के बाद ऐसे शहरी कनेक्शनों पर भी प्रति कनेक्शन 15 किलो लीटर मासिक उपभोग तक कोई वाटर चार्ज नहीं लिया जाएगा. मुफ्त पानी की इस घोषणा के दायरे में बहुमंजिला इमारतें नहीं आएंगी, क्योंकि इनमें सोसाइटी के जरिये एक ही कनेक्शन दिया जाता है. ऐसे में पानी के उपभोग की गणना करना आसान नहीं होता.

ओम थानवी हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति नियु​क्त

राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह ने वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी को हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया है. उनकी नियुक्ति कार्यभार ग्रहण करने की तिथि से तीन वर्ष के लिए होगी. राज्यपाल ने राज्य सरकार के परामर्श से यह नियुक्ति की है. थानवी मूल रूप से जोधपुर जिले के फलोदी कस्बे के रहने वाले हैं. उन्होंने 1978 में राजस्थान पत्रिका समूह के साप्ताहिक पत्र ‘इतवारी’ से अपने पत्रकार जीवन की शुरूआत की और संपादक के पद तक पहुंचे.

राजस्थान पत्रिका के बाद थानवी ने एक्सप्रेस समूह के हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ से जुड़े और कई वर्षों तक इसके संपादक रहे. 2015 में जनसत्ता से अलग होने के बाद थानवी ने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज में अध्यापन का कार्य किया. 2018 में वे फिर से मुख्यधारा की पत्रकारिता में लौटे और राजस्थान पत्रिका के सलाहकार संपादक बने. पिछले दिनों उन्होंने इस पद से त्याग-पत्र दे दिया था. ओम थानवी का पत्रकारिता के साथ-साथ लेखन के क्षेत्र में भी दखल है. उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.

गौरतलब है कि जयपुर हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय की स्थापना अशोक गहलोत के पिछले कार्यकाल में हुई थी, लेकिन वसुंधरा सरकार ने इसे बंद कर दिया था. चूंकि विश्वविद्याल में शिक्षकों की नियुक्ति हो गई थी और तीसरा सत्र शुरू हो गया था इसलिए सरकार ने इसका विलय राजस्थान विश्वविद्यालय के जनसंचार केंद्र में कर दिया. बंद करने के फैसले के पीछे भाजपा सरकार की दलील थी कि इसके संचालन में लग रही लागत, विद्यार्थियों की संख्या की तुलना में कहीं ज्यादा थी. लेकिन इसकी असली कारण सरकार की यह धारणा थी कि इस विश्वविद्यालय की स्थापना गहलोत को चहेतों को नियुक्ति देने के लिए की गई.

सरकार के इस निर्णय का कांग्रेस ने विरोध किया. खासतौर पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपनी साख से जोड़ लिया. उन्होंने विधानसभा चुनाव से पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि कांग्रेस की सरकार बनने पर विश्वविद्यालय को फिर से शुरू किया जाएगा. सत्ता में आते ही उन्होंने ऐसा किया भी.

‘पाकिस्तान को सबक सिखाना छोड़ो… आप जूते खाकर मत आना’

कांग्रेस स्क्रीनिंग कमेटी के बैठक स्थगित, अब 11 मार्च को होगी

लोकसभा चुनाव के लिए टिकट की लॉबिंग में राजस्थान के कांग्रेस नेताओं का इंतजार और बढ़ गया है. पार्टी की आज होने वाली स्क्रीनिंग कमेटी के बैठक स्थगित हो गई है. अब यह बैठक 11 मार्च को होगी. बैठक स्थगित होने की वजह पता नहीं लगी है. राहुल गांधी के वॉर रूम में होने वाली इस बैठक में हर सीट से सामने आए दावेदारों के नामों में से सिंगल नाम का पैनल तैयार किया जाना था.

इसमें पार्टी के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री केसी वेणुगोपाल, प्रदेश प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट, चारों सह प्रभारियों— विवेक बंसल, काजी निजाम, तरुण कुमार और देवेंद्र यादव को भाग लेना था. गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस को 25 सीटों पर 2300 नेताओं की दोवदारी सामने आई थी. प्रदेश चुनाव समिति में इनकी छंटनी होने के बाद 26 व 28 फरवरी को दिल्ली में हुई स्क्रीनिंग कमेटी की बैठक में पैनल तैयार कर लिए थे.

11 मार्च को होने वाली स्क्रीनिंग कमेटी की बैठक में सिंगल नाम का पैनल तैयार किया जाएगा. इस पर पार्टी की इलेक्शन कमेटी अंतिम मुहर लगाएगी. हालांकि नाम तय करने में स्क्रीनिंग कमेटी का ही भूमिका रहेगी, लेकिन जिन सीटों पर आम सहमति नहीं बन पाएगी उन पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ही उम्मीदवार तय करेंगे.

बता दें कि विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज करने के बाद कांग्रेस पर लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने का दवाब है. पार्टी ने इसके लिए ‘मिशन—25’ तैयार किया है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट सभी सीटों पर जीत का दावा कर रहे हैं.

प्रियंका गांधी के ट्विटर हैंडल पर सन्नाटा, फिर भी फॉलोअर्स सवा दो लाख पार

नए दौर की राजनीति की लड़ाई का सबसे बड़ा मंच सोशल मीडिया है. नेता और उनकी पार्टी, सोशल मीडिया पर जो जानकारी शेयर करते हैं, वह तुरंत मुख्यधारा की मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज और हे​डलाइन बन जाती है. ट्विटर इसमें टॉप पर है और भाजपा इस पर ज्यादा सक्रिय है. दूसरे दल भी सोशल मीडिया के इस प्लेटफॉर्म का उपयोग कर रहे हैं. पिछले दिनों राजनीति में एंट्री करने वाली प्रियंका गांधी वाड्रा ट्विटर पर आ चुकी हैं, लेकिन इस पर सिवाय इसके और कुछ दिखाई नहीं देता कि वे किसे फोलो करती हैं और उनके कितने फॉलोअर्स हैं.

कोई प्रियंका गांधी वाड्रा का ट्वीट नहीं पढ़ सकता, क्योंकि उन्होंने किया ही नहीं है. शायद ट्विटर की चिड़िया भी इस इंतजार में होगी कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को खड़ा करने की कोशिश में जुटीं प्रियंका आखिर उसकी सुध कब लेगी. इंतजार उनके सवा दो लाख पार हो चुके फॉलोअर्स को भी है, जिन्होंने बिना ट्वीट के दर्शन किए उन्हें फोलो कर लिया. इंतजार कांग्रेस के नेताओं को भी है कि उनकी नेता कब ट्वीट करे और वे इसे लाइक और रीट्वीट करें.

कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपने—अपने ट्विटर हैंडल पर ‘प्रियंका गांधी फॉलोस यू’ संदेश की बाट जोह रहे हैं. बता दें कि प्रियंका गांधी ट्विटर पर जिन लोगों को फोलो करती हैं, उनकी संख्या सिर्फ सात है. इनमें एक कांग्रेस पार्टी का आधिकारिक ट्विटर हैंडल है और छह कांग्रेस के नेता हैं. एक तो स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष और उनके बड़े भाई राहुल गांधी ही हैं. उनके अलावा प्रियंका गांधी सिर्फ पांच और कांग्रेसी नेताओं को फाॅलो कर रही हैं. इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि कम से कम उनकी नजर में पार्टी के अंदर ये पांच नेता सबसे ताकतवर हैं.

इन पांच नेताओं के नाम हैं— अहमद पटेल, अशोक गहलोत, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और रणदीप सुरजेवाला. कांग्रेस में बड़े नेता तो कई हैं, लेकिन प्रियंका की नजर में शायद ये पांचों की अहमियत कुछ ज्यादा ही है. बाकी बड़े नेता इस क्लब में शामिल होने के लिए कसमसा रहे हैं. इनमें से कितने नेताओं को प्रियंका गांधी फॉलो करेंगी, यह तो वे ही जानें मगर उन्हें फॉलो करने वाले लोगों का नंबर लगातार बढ़ रहा है.

गौरतलब है कि बीती 23 जनवरी को प्रियंका गांधी को कांग्रेस महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश का पार्टी प्रभारी बनाया गया था. कयास लगाए जा रहे हैं वे यहां ​की किसी सीट से चुनाव लडेंगी. प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में आने से और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनने से देश के सबसे बड़े सूबे में कांग्रेस में जान आ गई है. यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने सपा—बसपा गठबंधन का हिस्सा नहीं बनकर अच्छा किया. पार्टी को अपने बूते पर ही खड़ा होना चाहिए.

खर्चे के खौफ से बीजेपी ने की राजस्थान में पीएम मोदी की सभाओं में कटौती!

आगामी लोकसभा चुनाव में राजस्थान बीजेपी नेतृत्व पिछली बार की तरह इस बार भी 25 सीटें जीतने का दावा कर रहा है, लेकिन इसके लिए तैयारी में कई झोल दिखाई दे रहे हैं. यह जानते हुए कि चुनाव में मोदी ही पार्टी का प्रमुख चेहरा हैं, स्थानीय नेता उनकी सभाओं से कतरा रहे हैं. गौरतलब है कि मोदी ने पिछले दिनों टोंक और चुरू में सभाएं की थीं. उनका तीन और सभाएं करने का कार्यक्रम तय था, लेकिन ये हो नहीं पाईं. पार्टी सूत्रों के अनुसार इसके पीछे सभाओं में होने वाले खर्च था.

आमतौर पर इस प्रकार की सभाओं के खर्च की रकम का इंतजाम पार्टी फंड से होता है और स्थानीय नेता इसमें सहयोग करते हैं मगर मदन लाल सैनी के अध्यक्ष बनने के बाद से प्रदेश में बीजेपी की तिजोरी कंगाली के दिन देख रही है. चर्चा के मुताबिक सत्ता में नहीं होने की वजह से भी पार्टी को उतना चंदा नहीं मिल रहा है, जितना मिलना चाहिए. ‘पॉलिटॉक्स’ के सूत्रों के अनुसार टोंक में हुई सभा के लिए पार्टी के प्रदेश कार्यालय से नाम मात्र का फंड जारी हुआ. सभा का ज्यादातर खर्च स्थानीय सांसद ने उठाया.

प्रदेश बीजेपी को चुरू में भी यही उम्मीद थी, लेकिन यहां के सांसद ने यह कहते हुए हाथ खड़े कर दिए कि कार्यक्रम पार्टी का है. जबकि विधायकों ने यह कहते हुए पल्ला झाड़ ​लिया कि कार्यक्रम प्रधानमंत्री का है इसलिए इसे सफल बनाने का जिम्मा सांसद का है. पार्टी के नेताओं के बीच पीएम की सभाओं में होने वाला खर्चा भी चर्चा का केंद्र रहा. गौरतलब है कि बीजेपी की कमान मोदी और शाह के हाथों में आने के बाद सभाओं की अलग ही रंगत नजर आती है. भव्य मंच और श्रोताओं के बैठने की बढ़िया व्यवस्था से खर्च पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ गया है.

सूत्रों के अनुसार किसी के खर्च उठाने के लिए तैयार नहीं होने की वजह से राजस्थान में पीएम मोदी की तीन और सभाओं का कार्यक्रम नहीं बन पाया. हालांकि बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व को इसकी भनक नहीं है. उन्हें स्थानीय नेतृत्व ने यह तर्क दिया कि चुनाव की तारीखें घोषित होने के बाद पीएम की सभाएं ज्यादा कारगर होंगी. पीएम के कई कार्यक्रमों में व्यस्त होने की वजह से उन्होंने इसे मान भी लिया. चुनाव की तारीखों का एलान होने के बाद मोदी की राजस्थान में कई सभाएं होंगी, लेकिन तब इनका खर्च उठाने के लिए उम्मीदवार तो होंगे ही, केंद्रीय नेतृत्व का खजाना भी खुल जाएगा.

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