ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन (ओआईसी) के सालाना सम्मेलन में विशेष अतिथि के तौर पर भारत की शिरकत को मोदी सरकार की बड़ी कूटनीतिक कामयाबी के रूप में देखा जा रहा है. ओआईसी के संस्थापक सदस्यों में शामिल पाकिस्तान के बहिष्कार के बावजूद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने सम्मेलन में न केवल भाग लिया, बल्कि मंच से आतंकवाद को पालने-पोसने वालों को भी कोसा. हालांकि उन्होंने पाकिस्तान का नाम नहीं लिया.
अपने संबोधन में स्वराज ने कहा, ‘आतंकवाद के खतरे को सिर्फ सैन्य, खुफिया या कूटनीतिक तरीकों से नहीं हराया जा सकता, बल्कि इसे हमारे मूल्यों की मजबूती और धर्म के संदेश से जीता जा सकता है. यह सभ्यता और संस्कृति का टकराव नहीं है, बल्कि विचारों और आदर्शों के बीच प्रतिस्पर्धा है.’ यह पहला मौका है जब ओआईसी ने भारत को विशेष अतिथि के तौर पर अपने सम्मेलन में आमंत्रित किया और पाकिस्तान के बहिष्कार के बाद भी इस पर कायम रहा.
हालांकि पाकिस्तान की गैरमौजूदगी के बावजूद ओआईसी के प्रस्ताव में वे सब बातें थीं, जो पाकिस्तान इस मंच से उठाता रहा है. इसमें ‘भारतीय आतंकवाद’ नाम से एक नया नरेटिव जोड़ा गया. इसका जिक्र भारतीय सेना की ओर से कश्मीर में की जा रही कथित ज्यादतियों के सिलसिले में किया गया. इसके अलावा सम्मेलन में अयोध्या के विवादित स्थल पर फिर से बाबरी मस्जिद बनाने की मांग फिर से उठी. भारत की मौजूदगी में किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस तरह की बातें होना सुखद नहीं है, लेकिन इन पर गौर करने की बजाय इस बात पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है कि भारत ने पहली बार ओआईसी के सम्मेलन में हिस्सा लिया.
उस समय इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं और अटल बिहारी वाजपेयी विपक्ष की प्रमुख आवाज. उन दिनों संसद का सत्र भी चल रहा था. वाजपेयी ने संसद में इस मुद्दे को उठाते हुए जोरदार भाषण दिया. उन्होंने इसमें ओआईसी के मंच पर जाने पर ऐतराज जताते हुए कहा, ‘अध्यक्ष महोदय, रबात में हुए राष्ट्रीय अपमान के लिए देश की जनता से क्षमा याचना करने के बजाय सरकार जले पर नमक छिड़कने का काम रही है. इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि रबात में जो कुछ हुआ, वह हमारी राष्ट्रीय नीति के कारण हुआ. रबात का सम्मलेन इस्लामी देशों का सम्मलेन था, वह इस्लामी देशों द्वारा बुलाया गया था और उसमें इस्लामी देशों की समस्याओं पर विचार होना था.’
वाजपेयी ने आगे कहा, ‘भारत, जो कि एक इस्लामी देश नहीं है, ऐसे सम्मलेन में सरकारी तौर पर जाए, इसके औचित्य का समर्थन नहीं किया जा सकता. इससे पहले भी दुनिया के अनेक देशों में इस्लामी सम्मलेन हुए थे और भारत से कुछ प्रतिनिधि गए थे, लेकिन ये पहला अवसर है जब भारत ने सरकारी प्रतिनिधि मंडल भेजा. प्रतिनिधि मंडल में नेता कैबिनेट-स्तर के मंत्री थे. प्रतिनिधि मंडल में विदेश मंत्रालय के राज्य मंत्री भी थे. क्या सरकार इस बात को स्पष्ट करने की तकलीफ करेगी कि हमने इस तरह के इस्लामी सम्मलेन में गैर-सरकारी प्रतिनिधि मंडल को भेजने की नीति को क्यों छोड़ा?’
उन्होंने तर्क देते हुए कहा, ‘भारत में मुसलमान रहते हैं, उनकी संख्या काफी है. वो सामान नागरिकता के अधिकारों का उपयोग करते हैं. उन्हें राष्ट्र के प्रति समान कर्तव्यों का पालन करना है. मजहब के आधार पर हम अपनी जनता में कोई भेदभाव नहीं करते. हमने भारत में एक असांप्रदायिक राज्य स्थापित किया है. अध्यक्ष महोदय, 1955-56 में स्वेज नहर के संकट के बाद काहिरा में आयोजित इस्लामी सम्मलेन में जब भारत का प्रतिनिधि मंडल भेजने का सवाल आया तब पंडित जवाहरलाल नेहरु जीवित थे और मुझे बताया गया है कि उन्होंने कहा था कि हमें सरकारी प्रतिनिधि मंडल नहीं भेजना चाहिए. क्या वर्तमान विदेश मंत्री ने वह फाइल देखी है, जिस पर हमारे स्वर्गीय प्रधानमंत्री ने नोट लिखा था? कहा जाता है कि उस फाइल में से वो कागज़ गायब कर दिए गए हैं.’
वाजपेयी ने कहा, ‘कुआलालंपुर के सम्मलेन में मुझे याद है, मलेशिया के लोग हमें निमंत्रण देने के लिए आए थे. डॉ. जाकिर हुसैन से उन लोगों ने कहा था कि आप मुसलमान हैं और देश के राष्ट्रपति हैं. आपको एक प्रतिनिधि मंडल भेजना चाहिए. मुझे यह भी याद है कि डॉ. जाकिर हुसैन ने उनसे कहा था कि मैं मुसलमान हूं मगर मैं भारत का राष्ट्रपति भी हूं. हम एक सेक्युलर देश हैं और मुसलामानों के सम्मलेन में बुलाकर आप हमारी बेइज्जती कर रहे हैं.’
उन्होंने आगे कहा, ‘हमारी गुटनिरपेक्षता, सेक्युलरवाद की नीतियां विफल हो गयीं हैं. अध्यक्ष महोदय, अब तक जो सम्मलेन होते थे, उनमें शामिल होने के लिए हमारे पास बुलावे आया करते थे, हमें शामिल होने के लिए दावत दी जाती थी और हम जाने में संकोच करते थे, गैर-सरकारी स्तर पर जाने की बात करते थे. लेकिन रबात में हमें निमंत्रण की भीख मांगनी पड़ी. पहले निर्णय लिया गया था कि हमें नहीं बुलाया जाएगा. फिर हमने उन देशों के दरवाजे खटखटाए, हमने भारत में नयी दिल्ली स्थित दूतावासों की देहरियों पर माथे टेके. कहा जाता है हमें सर्वसम्मति से बुलाया गया था. मैं पूछना चाहता हूं कि ये सर्वसम्मति रात ही रात में कैसे बदल गई? इसका उत्तर ये दिया जाता है कि पाकिस्तान के प्रेसिडेंट पर वहां की जनता ने दवाब डाला और पाकिस्तान से तार गया कि अगर आप भारत को शामिल करना स्वीकार कर लेंगे तो आपकी खैर नहीं. पाकिस्तान में लोकतंत्र नहीं है, डिक्टेटरशिप है.’
वाजपेयी ने अपने संबोधन में आगे कहा, ‘हमारे यहां की लोकतंत्रीय सरकार तार से नहीं हिलती, श्री पेरुमान मर जाएं तो यह टस से मस नहीं होती, तेलंगाना की जनता गोलियां खाती रहें, इस सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगती, हम हजारों लोगों को प्रधानमंत्री के दरवाजे पर ले जाएं और त्यागपत्र मांगें, लेकिन प्रधानमंत्री हमें अनुगृहीत नहीं करतीं. अध्यक्ष महोदय, ये लोकतांत्रिक देश का हाल है और हमसे ये कहा जा रहा है कि आप ये मान लीजिए कि पाकिस्तान के डिक्टेटर को कुछ तार मिले और पहले जिस पकिस्तान के डिक्टेटर ने हमारे राजदूत से हाथ मिलाया था और सर्वसम्मति से हमें बुलाने का फैसला किया था, रात-ही-रात में उसको इल्हाम हुआ कि अगर सवेरे भारत आ गया तो उनकी तानाशाही खत्म हो जाएगी. ये हास्यास्पद बातें हैं.’
उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘मैं तो एक ही निष्कर्ष पर पंहुचा हूं कि भारत को सर्वसम्मति से बुलाने का निर्णय एक चाल थी. यह एक जाल था हमें बुलाकर अपमानित करने के लिए और हम उस जाल में फंस गए. इस्लामी गुट में शामिल होने की कोशिश करके हमने यूनाइटेड नेशंस को कमजोर किया है. हमने अफ्रीकी और एशियाई देशों की एकता पर चोट की है. हमने अरब देशों की एकता को भी भंग किया है. यूनाइटेड नेशंस के चार्टर में रीजनल ग्रुपिंग्स की इजाजत है, लेकिन मजहबी ग्रुपिंग्स की नहीं. हमें इसका विरोध करना चाहिए. लेकिन हमारी सरकार उस हवा में उड़ गयी, उसके पैर उखड़ गए और अब उस गलती को मानने के बजाय उस पर लीपापोती की जा रही है.’
वाजपेयी ने अपने भाषण में आगे कहा, ‘युगोस्लाविया के अखबार का उदहारण देकर मैं अपने भाषण को समाप्त करना चाहूंगा. यह रिव्यु ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स है जो कि फेडरेशन ऑफ युगोस्लाव जर्नलिस्ट द्वारा प्रकाशित किया जाता है. इस अंक में युगोस्लाविया के एक बड़े तत्वज्ञ लगोमिर मनोविच का लेख प्रकाशित हुआ है. मैं उनके विचार उद्घृत कर रहा हूं. उन्होंने कहा है कि यदि मुस्लिम देशों की कोई सभा किसी धार्मिक मसले पर बुलाई जाती है, जैसे किसी धार्मिक स्थान अल अक्सा या किसी दूसरे अंतरराष्ट्रीय स्तर के पवित्र स्थल जैसे जेरुसलम का कोई हिस्सा, तो यह तर्कपूर्ण कहा जा सकता है, लेकिन यहां तर्क स्पष्ट नहीं है. सभा धार्मिक आधार पर बुलाई गई है और राजनैतिक समस्याओं पर विचार विमर्श होना है.’
वाजपेयी ने आगे कहा, ‘मेरी एक और शिकायत है. सेकुलरवाद का मतलब देश के भीतर सभी धर्मों को समान समझना और मज़हब को राजनीति से अलग रखना. प्रधानमंत्री कहती हैं कि रबात में इसलिए गए की वहां पर राजनीतिक मसलों पर चर्चा होनी वाली थी. इसी स्थिति में हमारे वहां जाने पर तो और आपत्ति होनी चाहिए थी. उस सम्मलेन को इस्लामी देशों ने बुलाया. एजेंडा में इस्लामी देशों के सहयोग की चर्चा थी और बाद में जो घोषणा प्रकाशित की गई उसमें इस्लामी देशों का नाम लिया गया. जब इस्लामिक देश राजनीतिक सवालों पर चर्चा करते हैं तब हम वहां पर नहीं जा सकते. यह हमारी सेकुलरिज्म की नीति के खिलाफ है.’
वाजपेयी ने अपना भाषण समाप्त करते हुए कहा, ‘वे इस्लाम की चर्चा करें तो हमारे देश के मुसलमान प्रतिनिधि बनकर जा सकते हैं, लेकिन वे जब राजनीति को मजहब से मिलाते हैं, इस्लाम को राजनीति से मिलाते हैं तो हमारे लिए अपने दरवाजे बंद कर देते हैं. लेकिन रबात में हम दरवाजा तोड़कर घुस गए और बेआबरू होकर वहां से निकले, इसके लिए माफी मांगने की बजाय सरकार गलती दोहरा रही है और मुझे डर है भविष्य में ये विदेश मंत्रियों के सम्मलेन में भाग लेंगे. अगर सरकार ने सारी नीतियों और राष्ट्रीय हितों को ताक पर रखकर अंधेरे में छलांग लगाने का फैसला कर लिया है तो हम उसे एक और धक्का देने के लिए तैयार हैं. लेकिन देश की जनता इस अपमान को कभी सहन नहीं करेगी. धन्यवाद.’
अटल बिहारी वाजपेयी का यह भाषण सुनकर आप ही अंदाजा लगाइए कि ओआईसी के सम्मेलन में शिरकत करना भारत के लिए कितनी बड़ी उपलब्धि है. बता दें कि ओआईसी 57 देशों का समूह है, जो इस्लाम को मानने वाले देशों से मिलकर बना है. 1969 में येरुशलम में अल अक्सा मस्जिद पर हमले के बाद मुसलमानों के पवित्र स्थलों को महफूज बनाने, परस्पर सहयोग बढ़ाने, नस्लीय भेदभाव और उपनिवेशवाद का विरोध करते हुए इस समूह की स्थापना की गई. पाकिस्तान ने इस मंच का भारत के खिलाफ जमकर दुरुपयोग किया. 2000 तक तो भारत ने यहां पारित होने प्रस्तावों पर ऐतराज जताया, लेकिन बाद में इन पर प्रतिक्रिया देना बंद कर दिया.