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सुप्रीम कोर्ट में नहीं चली माया’चाल, प्रचार पर रोक जारी

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सुप्रीम कोर्ट ने बसपा चीफ मायावती को झटका देते हुए उनकी प्रचार करने की याचिका को खारिज कर दिया. मायावती ने चुनाव आयोग के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर आज रैली करने की इजाजत मांगी थी लेकिन कोर्ट ने मायावती की अर्जी पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया. मायावती ने 7 अप्रैल को देवबंद में समाज विशेष के लोगों से वोट अपील की. वहीं 13 अप्रैल को ‘बजरंग बली और अली हमारे’ बयान दिया था. इस पर कार्रवाई करते हुए चुनाव आयोग ने उनपर 48 घंटे का प्रचार बैन लगाया है. लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण के मतदान के तहत आज चुनाव प्रचार करने का अंतिम दिन है. शाम पांच बजे बाद चुनाव प्रचार पर रोक लग जाएगी.

बता दें, चुनाव आयोग ने सोमवार को आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में मायावती, यूपी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, आजम खान और मेनका गांधी पर विवादित बयान देने के लिए निश्चित समय के लिए चुनाव प्रचार करने पर रोक लगाई थी. इसके साथ योगी आदित्यनाथ एवं आजम खान पर 72-72 घंटे और मेनका गांधी एवं मायावती पर 48 घंटे का बैन लगाया है.  इस पर मायावती ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. कोर्ट ने कहा कि चुनाव आयोग ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल किया है और सिर्फ आचार संहिता तोड़ने वालों पर कार्रवाई कर रहा है. अगर इस तरह का बयान दोबारा आता है तो याचिकाकर्ता फिर कोर्ट का रुख कर सकते है.

इससे पहले मायावती ने उनके प्रचार करने पर अस्थाई रोक लगाने के लिए बिफरते हुए चुनाव आयोग पर निशाना साधते हुए इस फैसले को दलित विरोधी सोच का नतीजा बताया. मायावती ने देर रात मीडिया से कहा, ‘मुझे दिए कारण बताओ नोटिस में चुनाव आयोग ने नहीं लिखा है कि मैंने भड़काउ भाषण दिया था. उन्होंने मेरा पक्ष सुने बिना मुझ पर बैन लगा दिया और मोदी-शाह को खुली छूट है…यह चुनाव आयोग के इतिहास का काला आदेश है. ऐसा लगता है कि ये किसी के दबाव में आकर लिया गया फैसला है ताकि हम दूसरे चरण का प्रचार न कर सकें.’ आगे उन्होंने कहा कि आयोग ने नरेंद्र मोदी और अमित शाह के खिलाफ कोई आदेश नहीं दिया जबकि वे खुलेआम नफरत फैला रहे हैं. आगरा में मेरी रैली से एक दिन पहले मुझ पर रोक लगाना, चुनाव आयोग की दलित विरोधी मानसिकता को दर्शाता है.

राज्यवर्धन राठौड़ ने जयपुर ग्रामीण से दाखिल किया नामांकन

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‘ओलंपिक मैन’ राज्यवर्धन सिंह राठौड़ आज नामांकन दाखिल कर दिया है. उन्होंने जिला निर्वाचन अधिकारी जगरूप सिंह यादव को नामांकन सौंपा. उनका प्रचार और समर्थन करने खुद आध्यात्मिक गुरू बाबा रामदेव भी जयपुर पहुंचे हैं. नामांकन से पहले राज्यवर्धन मोती डूंगरी स्थित गणेश मंदिर पहुंचे और बप्पा का का आशीर्वाद लिया. राज्यवर्धन सिंह राठौड़ जयपुर ग्रामीण लोकसभा सीट से बीजेपी प्रत्याशी हैं. वह दूसरी बार इसी सीट से चुनावी मैदान में हैं. उनके सामने कांग्रेस की कृष्णा पूनिया हैं. नामांकन के समय किरोडी मीणा, सतीश पूनिया व राव राजेंद्र सिंह भी उनके साथ मौजूद रहे.

राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने देश को ओलंपिक गेम्स में रजत पदक जीत सम्मान दिलाया है. वहीं कृष्णा पूनिया तीन बार देश का प्रतिनिधित्व कर चुकी है.

नामांकन पत्र भरने जाते समय उन्होंने कुछ देर न्यायालय परिसर में रुककर अधिवक्ता बंधुओं से मुलाकात की. उन्होंने कहा कि ये हमारे समाज के वो स्तंभ हैं जो सत्य के पक्ष में हमेशा खड़े होकर देश की मजबूत आवाज बनते हैं. ऐसी आवाजों को मजबूत करने का संकल्प लेकर नामांकन पत्र भरने के लिए प्रस्थान कर रहा हूं.

लोकसभा चुनाव के रण में राजस्थान की इस सीट पर मोदी के भरोसे राहुल

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केंद्र में एक बार फिर सत्ता बनाने में जुटे नरेंद्र मोदी के लिए देशभर में भले ही अनुकूल परिस्थितियां मानी जा रहीं हों, लेकिन पश्चिमी राजस्थान की अधिकांश सीटों पर पेंच फंसता नजर आ रहा है. इसका कारण न तो मोदी है और न ही उनकी पार्टी की नीतियां. कारण है तो सिर्फ सांसद और उनकी कार्यशैली. इस​ बीच, ये कहना भी गलत नहीं होगा कि प्रत्याशी सांसद ने जिन नेताओं को पहले पीछे करने की कोशिश की थी, अब वो ही सब मिलकर सांसद को हराने में जुटे हैं.

चूरू लोकसभा क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी राहुल कस्वां अपने पारिवारिक राजनीतिक इतिहास के दम पर एक बार फिर टिकट ले आए, लेकिन उनकी जीत का सबसे बड़ा आधार कोई होगा तो वो सिर्फ और सिर्फ ‘नरेंद्र मोदी’ ही हैं. पिछले चार लोकसभा चुनावों में यहां से उनके पिता राम सिंह कस्वां ने ही जीत दर्ज की है. आज भी कस्वां परिवार यहां अपने दम पर वोट लेता है मगर बदले दौर में जब भाजपा स्पष्ट रूप से दो हिस्सों में बंट चुकी है तब राहुल को नरेंद्र मोदी के प्रभाव का ही सहारा नजर आता दिख रहा है.

चूरू में भाजपा की अंर्तकलह जहां कस्वां के लिए परेशानी का सबब है, वहीं नरेंद्र मोदी के नाम पर मिलने वाले वोट पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ रहा. इसी बीच बीजेपी के आला नेता राजेंद्र राठौड़ और राजकुमार रिणवा की निष्क्रियता भी साफ करती है कि राहुल कस्वां को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी. वहीं, यह राहत देने वाला तथ्य है कि ‘मोदी-मोदी’ की गूंज इतनी तेज है कि भाजपा की अंर्तकलह की छटपटाहट सुनाई नहीं देती.

सत्ता में नहीं होने से राजेंद्र राठौड़ के पास क्षेत्र में प्रचार के लिए गांव-गांव घूमने का पूरा वक्त है लेकिन वो कोई खास उपस्थिति दर्ज नहीं करा पा रहे हैं. माना जाता है कि चूरू में राठौड़ से बड़ा भाजपा नेता नहीं बन सके, इसका पूरा प्रयास हो रहा है. राहुल कस्वां ने पिछले चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे अभिनेष महर्षि को करीब तीन लाख वोटों से हराया था.

तब अभिनेष महर्षि को करीब तीन लाख वोट मिले और राहुल को इससे दो गुना 5 लाख 95 हजार वोट मिले. पिछले चुनाव में महर्षि वसुंधरा राजे की कृपा से भाजपा में शामिल हुए और विधायक भी बने. देखना यह है कि जिनसे महर्षि चुनाव हारे थे, उन्हें विजयश्री दिलाने के लिए कितना प्रयास करते हैं. चूरू में दो विधानसभा सीट हनुमानगढ़ की आती है जिसमें नोहर और भादरा दोनों सीटों पर विधानसभा चुनाव में भाजपा हार चुकी है.

भादरा में माकपा के बलवान पूनिया ने जीत दर्ज की, जो इस बार लोकसभा प्रत्याशी भी हैं. बलवान ने 72 हजार वोट लिए थे. वहीं नोहर में कांग्रेस के अमित चाचाण तो 93 हजार मत लेकर जीते थे. यहां भाजपा को तब 80 हजार वोट मिले थे. यहां एक बार फिर बढ़त लेना भाजपा के लिए जरूरी है.

इसी तरह सार्दुलपुर सीट पर कांग्रेस की कृष्णा पूनिया चुनाव जीती थीं, जो इन दिनों अपने क्षेत्र के बजाय जयपुर ग्रामीण से राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को टक्कर दे रही है. ऐसे में मैदान खाली है लेकिन वोट बदलना यहां भी मुश्किल है. दरअसल, इस सीट पर भाजपा पिछले चुनाव में तीसरे नंबर पर रही थी. बसपा के मनोज न्यांगली दूसरे नंबर पर थे.

भले ही भाजपा के राहुल कस्वां को मोदी के नाम पर वोट मांगने पड़ रहे हैं, लेकिन कांग्रेस के लिए भी यहां राह आसान नहीं है. कांग्रेस के प्रत्याशी रफीक मंडेलिया पिछले चुनाव में तीन लाख 64 हजार वोट ले चुके हैं. तब राहुल के पिता राम सिंह कस्वां महज दस हजार वोटों से जीते थे. इस बार भाजपा की अंर्तकलह उन्हें लाभ दे सकती है, लेकिन मोदी लहर उनके लिए अभी भी खतरा है. जातीय आधार पर टिकटों का बंटवारा भी मंडेलिया के पक्ष में नहीं जाता.

बता दें कि साल 1999 के बाद से इस सीट पर कस्वां परिवार का ही कब्जा है. कांग्रेस को मुस्लिम वोट बड़ी संख्या में मिलने की उम्मीद है, वहीं दलित वोटों में बिखराव साफ नजर आता है. विधानसभा चुनाव में जो समीकरण कांग्रेस के पक्ष में थे, वहीं समीकरण लोकसभा में नहीं बन पा रहे हैं. खैर, नतीजे जो भी हों फिलहाल बन रहे समीकरण बीजेपी और कांग्रेस, दोनों के लिए परेशानी खड़ी करने वाले हैं.

योगी-माया के बाद आजम-मेनका पर चुनाव आयोग का चाबुक, प्रचार पर प्रतिबंध

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चुनाव आयोग ने सपा नेता आजम खान और मेनका गांधी पर आचार संहिता का उल्लंघन करने के मामले में चाबुक चलाया है. आयोग ने आजम खान पर 72 घंटे और मेनका गांधी पर 48 घंटे तक चुनाव प्रचार करने पर प्रतिबंध लगा दिया है. यह अवधि मंगलवार सुबह 10 बजे से शुरू होगी.

आपको बता दें कि आजम खान सपा के टिकट पर यूपी की रामपुर सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. उन्होंने बीजेपी उम्मीदवार जयाप्रदा पर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी. जबकि मोदी सरकार की मंत्री मेनका गांधी यूपी की सुल्तानपुर सीट से मैदान में हैं. उन्होंने एक सभा के दौरान वोट नहीं देने पर काम नहीं करने की बात कही थी. चुनाव आयोग ने दोनों के बयान को आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन मानते हुए दंडित किया है.

इससे पहले चुनाव आयोग ने आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में बड़ा एक्शन लेते हुए यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ और बसपा सुप्रीमो मायावती पर प्रचार पर रोक लगाने को कहा है. 16 अप्रैल को सुबह 6 बजे से शुरू होने वाली चुनाव आयोग ये रोक योगी आदित्यनाथ के लिए 72 घंटे और मायावती के लिए 48 घंटे के लिए लागू होगी. आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में चुनाव आयोग ने यह सख्त कदम उठाया है.

इस दौरान योगी आदित्यनाथ और मायावती ना ही कोई रैली को संबोधित कर पाएंगे, ना ही सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर पाएंगे. इसके अलावा दोनों नेता किसी को इंटरव्यू भी नहीं दे पाएंगे. बता दें कि, चुनाव आयोग की सख्ती के बाद अब दोनों नेताओं के प्रचार में सीधी रूकावट आने वाली है, चुनाव आयोग के इस फैसले से साफ हो गया है कि योगी आदित्यनाथ 16, 17 और 18 अप्रैल को कोई प्रचार नहीं कर पाएंगे.

तो वहीं मायावती 16 और 17 अप्रैल को कोई चुनाव प्रचार का कार्यक्रम नहीं सकेंगी. बता दें कि सोमवार सुबह ही सुप्रीम कोर्ट ने मायावती के देवबंद रैली में दिए गए भाषण पर आपत्ति जताई थी. अदालत की तरफ से चुनाव आयोग को फटकार लगाई गई थी कि आयोग ने अभी तक इस मामले में क्या कार्रवाई की है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आयोग अभी तक सिर्फ नोटिस ही जारी कर रहा है, कोई सख्त एक्शन क्यों नहीं ले रहा है. इसके बाद अब चुनाव आयोग का ये बड़ा एक्शन सामने आया है.

टोंक-सवाई माधोपुर सीट पर कितना असरदार साबित होंगे कर्नल बैंसला?

लोकसभा चुनाव के रण में कोई जातिगत समीकरणों के भरोसे है तो कोई जाति के झंडाबरदारों के भरोसे. राजस्थान की टोंक-सवाई माधोपुर सीट पर भी ऐसा ही देखने को मिल रहा है. बीजेपी ने यहां सुखबीर सिंह जौनपुरिया को मैदान में उतारा है तो कांग्रेस ने नमोनारायण मीणा को टिकट दिया है. बीजेपी और कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक के अलावा जहां जौनपुरिया को गुर्जर वोटों पर भरोसा है, वहीं नमोनारायण को मीणा मतदाताओं से उम्मीद है.

बीजेपी उम्मीदवार की बात करें तो 2014 के चुनाव में टोंक-सवाई माधोपुर सीट से आसानी से जीत दर्ज करने वाले सुखबीर सिंह जौनपुरिया गुर्जर नेता कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के बीजेपी में शामिल होने से उत्साहित हैं. उन्हें उम्मीद है कि बैंसला के पार्टी में आने से गुर्जरों के एकमुश्त वोट उनको मिलेंगे. बैंसला राजस्थान में हुए गुर्जर आरक्षण आंदोलन के सबसे बड़े चेहरे रहे हैं. उनकी अगुवाई में ही गुर्जरों ने कई दौर का आंदोलन किया. गुर्जर जाति पर उनकी पकड़ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

ऐसे में कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के बीजेपी में शामिल होने के बाद लोगों के जहन में एक ही सवाल उठ रहा है कि उनकी घर वापसी से पार्टी को कितना फायदा होगा. टोंक-सवाई माधोपुर उन सीटों में शामिल हैं, जहां के सियासी समीकरणों पर बैंसला असर डाल सकते हैं. वैसे गुर्जर आरक्षण आंदोलन के दौरान बीजेपी प्रत्याशी सुखबीर सिंह जौनपुरिया भी खासे सक्रिय रहे थे. चाहे आंदोलन में मारे गए गुर्जरों को परिजनों को आर्थिक सहायता देने की बात हो या कोटपूतली में स्मारक बनाने का मामला, जौनपुरिया हमेशा आगे रहे.

जौनपुरिया गुर्जर शहीद सम्मान रैली में हजारों की भीड़ इकट्ठी कर चर्चा में आए. इससे पहले पुष्कर मेंं हुई अखिल भारतीय गुर्जर संघर्ष समिति की बैठक में उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया. इसी दौर में जौनपुरिया कर्नल बैंसला के संपर्क में आए. उन्होंने टोंक-सवाई माधोपुर में अपने लिए सियासी संभावना तलाशने के लिए गंगापुर सिटी विधायक मान सिंह गुर्जर और देवली-उनियारा विधायक राजेंद्र गुर्जर से मेलजोल बढ़ाया.

सुखबीर सिंह जौनपुरिया ने 2009 के चुनाव में टोंक-सवाई माधोपुर से टिकट मांगा था, लेकिन बीजेपी ने उन्हें यहां से मौका नहीं दिया. पार्टी ने यहां से कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला को मैदान में उतारा. उनके सामना कांग्रेस के नमोनारायण मीणा से हुआ. इस मुकाबले में बैंसला महज 313 वोटों से चुनाव हारे. उन्होंने आरोप लगाया कि राज्य की कांग्रेस सरकार के दबाव में राज्य निर्वाचन आयोग ने गड़बड़ी कर मीणा को जिताया. बैंसला ने चुनाव परिणाम को कोर्ट में भी चुनौती दी, लेकिन उन्हें कोई राहत नहीं मिली.

कुछ समय बाद किरोड़ी सिंह बैंसला ने बीजेपी को अलविदा कह सक्रिय राजनीति से नाता तोड़ लिया. लोकसभा चुनाव से पहले उनके कांग्रेस में शामिल होने के कयास लगाए जा रहे थे. वे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से मिले भी, लेकिन आखिर में उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया. दस साल बाद किरोड़ी सिंह बैंसला एक बार फिर टोंक-सवाई माधोपुर की सियासत में चर्चा के केंद्र में हैं, लेकिन उम्मीदवार की हैसियत से नहीं, बल्कि संरक्षक की भूमिका में.

इलाके की राजनीति को जानने वालों की मानें तो जौनपुरिया और बैंसला के गठजोड़ से बीजेपी उन गुर्जर वोटों में सेंध लगा सकती है जो सचिन पायलट की वजह से कांग्रेस में चले गए थे. यदि सुखबीर सिंह जौनपुरिया गुर्जर वोटों को साधने में कामयाब हो जाते हैं तब भी उनकी राह आसान नहीं है. उन्हें पार्टी के भीतर खेमेबंदी और गुटबाजी से जूझना पड़ रहा है. पूर्व विधायक दीया कुमारी चुनाव लड़ने के लिए राजसमंद कूच कर चुकी हैं.

पूर्व मंत्री प्रभूलाल सैनी और मालपुरा विधायक कन्हैया लाल चौधरी उनके साथ नहीं लग रहे. वहीं, उनियारा नगर पालिकाध्यक्ष राकेश बढ़ाया, मालपुरा में उप जिला प्रमुख अवधेश शर्मा, आत्मज्योति गुर्जर और छोगालाल विधानसभा चुनावों में ही कांग्रेस ज्वाइन कर चुके हैं. अब सुखबीर सिंह जौनपुरिया के सामने कांग्रेस उम्मीदवार के निपटने के अलावा अपनी पार्टी में जारी खेमेबंदी और गुटबाजी से पार पाना बड़ी चुनौती है. चुनाव में हार-जीत इस बात पर काफी निर्भर करेगी कि जौनपुनिया इन सबसे कैसे निपटते हैं.

‘वाह, इसे कहते हैं चुनाव..’

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लोकसभा चुनाव का पहला चरण समाप्त हो चुका है और दूसरा आने वाला है. ऐसे में सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग होने और आरोप-प्रत्यारोप का तीखा होना लाजमी है. इस ​सूची में अगर आप पार्टी नेता के पूर्व नेता कुमार विश्वास का नाम न हो तो यह लिस्ट पूरी नहीं होगी. हिमाचल प्रदेश के बीजेपी अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती के एक मंच से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने पर कुमार विश्वास ने तंज कसा है. उन्होंने अपने ट्वीटर हैंडल से इस वीडियो को शेयर करते हुए कहा कि ‘वाह, इसे कहते हैं चुनाव..भला इतने बड़े राष्ट्रवादी दल के इतने बड़े नेता जी एक क्षेत्रीय दल के नेता आजम खान से पीछे कैसे रह जाते?’

@DrKumarVishwas

@anuragkashyap72

@ashokepandit

@ashokepandit

Sanjay Raut@

आप-कांग्रेस गठबंधन पर राहुल का ट्वीट, केजरी पर लगाया यू-टर्न मारने का आरोप

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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन पर चुप्पी तोड़ी है. अपने ट्वीटर हैंडल से ट्वीट कर उन्होंने अरविंद केजरीवाल पर यू-टर्न मारने का आरोप लगाया है. राहुल गांधी ने ट्वीट में कहा, ‘दिल्ली में आप-कांग्रेस गठबंधन का मतलब है बीजेपी को मात. पार्टी आम आदमी पार्टी को चार सीटें देने के लिए तैयार है लेकिन केजरीवाल ने दूसरा यू-टर्न मार लिया. हमारे सभी द्वार खुले हुए हैं लेकिन समय लगातार गुजर रहा है.’

राहुल गांधी के इस बयान पर केजरीवाल ने भी ट्वीट करते हुए पलटवार किया है. उन्होंने अपने ट्वीटर हैंडल पर लिखा, ‘कौन सा U-टर्न?अभी तो बातचीत चल रही थी. आपका ट्वीट दिखाता है कि गठबंधन आपकी इच्छा नहीं मात्र दिखावा है. मुझे दुःख है आप बयान बाज़ी कर रहे हैं. आज देश को मोदी-शाह के ख़तरे से बचाना अहं है. दुर्भाग्य कि आप यूपी और अन्य राज्यों में भी मोदी विरोधी वोट बांट कर मोदी जी की मदद कर रहे हैं.’

केजरीवाल के इस ट्वीट के बाद आप और कांग्रेस में तनातनी और विरोधाभास की खाई और गहरी हो चली ह़ै. इसके बाद भी राहुल गांधी के ट्वीट को देखकर लगता है कि वह गठबंधन के लिए तैयार बैठे हैं. बता दें, इससे पहले भी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी गठबंधन को लेकर खबरें आ रही थी. दोनों के बीच गठबंधन को लेकर कई बार बात बनी लेकिन सीटों को लेकर सहमति नहीं बन पाई. आप पार्टी के चीफ और दिल्ली के मुख्यमंत्री कांग्रेस को 3 सीट आॅफर कर रहे थे और पार्टी के लिए चार सीटों की मांग कर रहे थे. यह बात कभी कांग्रेस तो कभी आप की तरफ से अधर झूल में अटकी हुई है.

यूपी के दूसरे चरण में आलू बड़ा मुद्दा, गन्ना की तरह रहेगा हावी !

लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों के साथ-साथ स्थानीय मुद्दे भी अक्सर छाए रहते हैं, क्षेत्रिय समस्याओं को लेकर स्थानीय लामबंद होकर एक स्वर में कई बार ऐसे मुद्दों को उठाते रहे हैं और इन मुद्दों ने राजनीतिक हवा बदलने के साथ-साथ चुनावी नतीजों पर भी असर डाला है. बात करते हैं यूपी में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों के पहले चरण की, तो यहां गन्ना एक बड़ा चुनावी मुद्दा रहा और विभिन्न राजनितिक पार्टियों के उम्मीदवारों ने भी इसे ध्यान में रखा. अब यूपी में 18 अप्रैल को होने वाले दूसरे चरण के मतदान में आठ लोकसभा सीटों में आलू बड़ा चुनावी मुद्दा हो सकता है. इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार इन आठ सीटों में से चार सीटों पर प्रमुख मुद्दे के रूप में आलू हावी रहने वाला है.

बात करें यूपी की इन आठ लोकसभा सीटों की, जहां 18 अप्रैल को चुनाव होने वाले है, तो इनमें से हाथरस में 46,333 और अलीगढ़ में 23,332 हेक्टेयर भूमि पर आलू की खेती की जाती है तो वहीं, आगरा और फतेहपुर सीकरी की कुल 57,879 हेक्टेयर जमीन पर भी आलू उगाया जाता है. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इन चारों सीटों पर आलू प्रमुख चुनावी मुद्दा माना जा रहा है. यही नहीं आगामी तीसरे चरण के मतदान के दौरान भी आलू फिरोजाबाद व कन्नौज में बड़े चुनावी मुद्दे के रूप में है तो वहीं चौथे चरण के चुनाव में फर्रुखाबाद के लिए आलू अहम मुद्दा कहा जा रहा है.

अब बात करते हैं कि आखिर आलू कैसे यहां बड़ा मुद्दा बना है. अखबार के अनुसार स्थानीय किसान भी आलू को मुख्य मुद्दा बताते हुए कहते हैं कि, यहां का किसान खून-पसीना एक कर अपने खेत में आलू की फसल लगाता है, लेकिन सरकारी उदासीनता के चलते उसको सही दाम नहीं मिल पाता है. यहां मोटा आलू 300-350 रू. प्रति 50 किलो में बिक रहा है. वहीं गुल्ला (मीडियम साईज) आलू 200-250 रूपये प्रति 50 किलो की दर से और किर्री (छोटा) आलू की कीमत तो मात्र 100-150 रूपये प्रति 50 किलो ही मिल पाती है. बीते तीन सालों से ये दाम गिरते ही गए. जिस पर किसान नोटबंदी को बड़ी वजह भी बता रहे हैं.

दरअसल, उत्तरप्रदेश के किसानों द्वारा कड़ी मेहनत कर उगाई जाने वाली आलू की फसल फरवरी से मार्च के बीच काटने के लिए तैयार हो जाती है. यह आलू की फसल मध्य अक्टूबर से नबंवर के बीच लगाई जाती है. फसल काटने के बाद किसान 20 फीसदी आलू ही बेच पाते हैं और बाकी का 80 प्रतिशत भंडार गृहों में भेज दिए जाते हैं. जहां भंडार गृह मालिक आलू की प्रति बोरी के लिए किसानों से 110 रूपये लेते हैं. भंडार गृह में आलू की बोरियों को दो से तीन डिग्री सेल्सियस तापमान में रखा जाता है ताकि अगले नवंबर तक इनकी बिक्री की जा सके. यही भंडारण किराया ही किसान को ले डूबता है.

इस बारे में आगरा की भंडार गृह एसोसिएशन का अपना पक्ष है, एसोसिएशन अध्यक्ष राजेश गोयल का कहना है कि 10,000 टन आलू रखने लायक जिले में कुल 280 भंडार गृह है तो पूरे यूपी में इस तरह के 1800 स्टोरेज है. वहीं अकेले आगरा व अलीगढ़ जिलों में 1000 भंडार गृह बने हुए हैं. यहां जो आगरा के भंडार गृहों में जो आलू की बोरी पहले 600-700 रूपये में बिका करती थी, उसपर नोटबंदी की मार पड़ गई और आलू की बोरियों की बिक्री रूक गई. तब किसानों को मजबूरन 100-125 रूपये प्रति 50 किलो की दर से आलू बेचने पड़े. चौंकाने वाली बात यह है कि ये कीमतें तो बड़े आलू की रहीं थी, गुल्ला और किर्री आलू को तो मानो किसानों ने फ्री ही दिया था.

किसानों की समस्या एक तो यह है ही कि आलू का उचित दाम नहीं मिल पाता वहीं दूसरी समस्या ये भी है कि भंडारण के लिए रखा गया आलू किसान के लिए अक्सर घाटे का सौदा ही होता है. भंडार गृहों में लगने वाला प्रति बोरी किराया ही किसानों को ले डूबता है और कई बार तो किसान को आलू बेचने के बाद भी लागत मूल्य तक नहीं मिल पाता है. आगरा में आलू के किसानों से जुड़े एक संगठन पोटेटो ग्रोअर्स एसोसिएशन के महासचिव मोहम्मद आलमगीर के अनुसार साल में तीन सालों में एक बार तो कम दाम मिलना किसान सह लेता है लेकिन लगातार तीन साल घाटा उनकी कमर तोड़ दी है. गन्ना किसानों की तरह आलू के लिए संगठित लॉबी की दरकार है. लेकिन इस बार के चुनाव में आलू भी अपनी मजबूत मौजूदगी दिखाने वाला है.

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