लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों के साथ-साथ स्थानीय मुद्दे भी अक्सर छाए रहते हैं, क्षेत्रिय समस्याओं को लेकर स्थानीय लामबंद होकर एक स्वर में कई बार ऐसे मुद्दों को उठाते रहे हैं और इन मुद्दों ने राजनीतिक हवा बदलने के साथ-साथ चुनावी नतीजों पर भी असर डाला है. बात करते हैं यूपी में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों के पहले चरण की, तो यहां गन्ना एक बड़ा चुनावी मुद्दा रहा और विभिन्न राजनितिक पार्टियों के उम्मीदवारों ने भी इसे ध्यान में रखा. अब यूपी में 18 अप्रैल को होने वाले दूसरे चरण के मतदान में आठ लोकसभा सीटों में आलू बड़ा चुनावी मुद्दा हो सकता है. इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार इन आठ सीटों में से चार सीटों पर प्रमुख मुद्दे के रूप में आलू हावी रहने वाला है.

बात करें यूपी की इन आठ लोकसभा सीटों की, जहां 18 अप्रैल को चुनाव होने वाले है, तो इनमें से हाथरस में 46,333 और अलीगढ़ में 23,332 हेक्टेयर भूमि पर आलू की खेती की जाती है तो वहीं, आगरा और फतेहपुर सीकरी की कुल 57,879 हेक्टेयर जमीन पर भी आलू उगाया जाता है. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इन चारों सीटों पर आलू प्रमुख चुनावी मुद्दा माना जा रहा है. यही नहीं आगामी तीसरे चरण के मतदान के दौरान भी आलू फिरोजाबाद व कन्नौज में बड़े चुनावी मुद्दे के रूप में है तो वहीं चौथे चरण के चुनाव में फर्रुखाबाद के लिए आलू अहम मुद्दा कहा जा रहा है.

अब बात करते हैं कि आखिर आलू कैसे यहां बड़ा मुद्दा बना है. अखबार के अनुसार स्थानीय किसान भी आलू को मुख्य मुद्दा बताते हुए कहते हैं कि, यहां का किसान खून-पसीना एक कर अपने खेत में आलू की फसल लगाता है, लेकिन सरकारी उदासीनता के चलते उसको सही दाम नहीं मिल पाता है. यहां मोटा आलू 300-350 रू. प्रति 50 किलो में बिक रहा है. वहीं गुल्ला (मीडियम साईज) आलू 200-250 रूपये प्रति 50 किलो की दर से और किर्री (छोटा) आलू की कीमत तो मात्र 100-150 रूपये प्रति 50 किलो ही मिल पाती है. बीते तीन सालों से ये दाम गिरते ही गए. जिस पर किसान नोटबंदी को बड़ी वजह भी बता रहे हैं.

दरअसल, उत्तरप्रदेश के किसानों द्वारा कड़ी मेहनत कर उगाई जाने वाली आलू की फसल फरवरी से मार्च के बीच काटने के लिए तैयार हो जाती है. यह आलू की फसल मध्य अक्टूबर से नबंवर के बीच लगाई जाती है. फसल काटने के बाद किसान 20 फीसदी आलू ही बेच पाते हैं और बाकी का 80 प्रतिशत भंडार गृहों में भेज दिए जाते हैं. जहां भंडार गृह मालिक आलू की प्रति बोरी के लिए किसानों से 110 रूपये लेते हैं. भंडार गृह में आलू की बोरियों को दो से तीन डिग्री सेल्सियस तापमान में रखा जाता है ताकि अगले नवंबर तक इनकी बिक्री की जा सके. यही भंडारण किराया ही किसान को ले डूबता है.

इस बारे में आगरा की भंडार गृह एसोसिएशन का अपना पक्ष है, एसोसिएशन अध्यक्ष राजेश गोयल का कहना है कि 10,000 टन आलू रखने लायक जिले में कुल 280 भंडार गृह है तो पूरे यूपी में इस तरह के 1800 स्टोरेज है. वहीं अकेले आगरा व अलीगढ़ जिलों में 1000 भंडार गृह बने हुए हैं. यहां जो आगरा के भंडार गृहों में जो आलू की बोरी पहले 600-700 रूपये में बिका करती थी, उसपर नोटबंदी की मार पड़ गई और आलू की बोरियों की बिक्री रूक गई. तब किसानों को मजबूरन 100-125 रूपये प्रति 50 किलो की दर से आलू बेचने पड़े. चौंकाने वाली बात यह है कि ये कीमतें तो बड़े आलू की रहीं थी, गुल्ला और किर्री आलू को तो मानो किसानों ने फ्री ही दिया था.

किसानों की समस्या एक तो यह है ही कि आलू का उचित दाम नहीं मिल पाता वहीं दूसरी समस्या ये भी है कि भंडारण के लिए रखा गया आलू किसान के लिए अक्सर घाटे का सौदा ही होता है. भंडार गृहों में लगने वाला प्रति बोरी किराया ही किसानों को ले डूबता है और कई बार तो किसान को आलू बेचने के बाद भी लागत मूल्य तक नहीं मिल पाता है. आगरा में आलू के किसानों से जुड़े एक संगठन पोटेटो ग्रोअर्स एसोसिएशन के महासचिव मोहम्मद आलमगीर के अनुसार साल में तीन सालों में एक बार तो कम दाम मिलना किसान सह लेता है लेकिन लगातार तीन साल घाटा उनकी कमर तोड़ दी है. गन्ना किसानों की तरह आलू के लिए संगठित लॉबी की दरकार है. लेकिन इस बार के चुनाव में आलू भी अपनी मजबूत मौजूदगी दिखाने वाला है.

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