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आखिर राहुल गांधी गहलोत से क्यों है इतने खफा?

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राजस्थान में कांग्रेस की सत्ता होने के बावजूद लोकसभा चुनाव में पार्टी के खाता नहीं खोलने से राहुल गांधी बेहद नाराज हैं. उनके सीधे निशाने पर हैं सूबे के सीएम अशोक गहलोत. बताया जा रहा है कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में राहुल गांधी ने इस पर खुलकर नाराजगी जाहिर की. राहुल ने कहा कि वो खुद गहलोत के बेटे वैभव गहलोत को जोधपुर से टिकट देने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन गहलोत ने प्रेशर बनाकर वैभव को टिकट दिला दिया.

सूत्रों के मुताबिक गहलोत ने अहमद पटेल, सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी और अविनाश पांडे के जरिए राहुल पर वैभव को टिकट देने का दबाव बनाया. राहुल ने कहा कि अगर वैभव को टिकट नहीं देते तो गहलोत सभी 25 सीटों पर विशेष फोकस रखते और पार्टी का सूपड़ा साफ नहीं होता. खबर है कि राहुल के पास आधा दर्जन से ज्यादा कांग्रेस प्रत्याशियों ने भी यह शिकायत की है कि सारे मंत्री उन्होंने जोधपुर में प्रचार में लगा दिए थे.

सूत्रों का कहना है कि राहुल गांधी इसलिए ज्यादा खफा है कि अशोक गहलोत ने पार्टी हित से ज्यादा पुत्र मोह को तरजीह दी. उन्होंने बेटे के टिकट के लिए दिल्ली में डेरा डाल लिया था. मैं नहीं चाहता था कि वैभव को टिकट मिले, लेकिन यूपीए अध्यक्ष सोनिया, प्रियंका, अहमद पटेल और अविनाश पांडे के जरिए वैभव को जोधपुर से टिकट देने की सिफारिश कराई. गहलोत ने टिकट मिलने के बाद कई मंत्रियों और विधायकों को जोधपुर में प्रचार में लगा दिया, जिसके चलते वो अपनी विधानसभा में पार्टी प्रत्याशियों के लिए वोट नहीं मांग सके.

सूत्रों के मुताबिक मानवेंद्र सिंह ने हरीश चौधरी, ज्योति मिर्धा ने महेंद्र चौधरी, मदन मेघवाल ने बीडी कल्ला, रिजु झुंझुनवाला ने रघु शर्मा और कृष्णा पूनिया ने लालचंद कटारिया के जोधपुर में डेरा डालने की शिकायतें आलाकमान तक पहुंचाई. ये नेता अगर अपनी विधानसभा में भी प्रचार करते तो इसका फर्क जरूर पड़ता, लेकिन गहलोत न तो अपने बेटे को जीत दिला सके और न ही दूसरी जगह ज्यादा प्रचार के लिए जा सके.

सूत्रों के मुताबिक राहुल गांधी के गहलोत से नाराज होने की एक वजह और भी बताई जा रही है. जब राजस्थान में सीएम बनाने को लेकर खींचतान चल रही थी तब राहुल गांधी ने सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी और अहमद पटेल जैसे नेताओं के दवाब में सचिन पायलट की जगह अशोक गहलोत को राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाया था.

इसके पीछे यह तर्क दिया गया कि गहलोत के सीएम रहते हुए कांग्रेस लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करेगी, लेकिन अब परिणाम बाद यह तर्क तार-तार आ चुका है. लिहाजा राहुल अब शायद गहलोत को माफ करने के पक्ष में नहीं दिख रहे. अगर राहुल अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे देते है तो अशोक गहलोत की कुर्सी पर भी खतरा मंडरा सकता है. हालांकि गहलोत यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि मोदी की आंधी में सभी समीकरण ध्वस्त हो गए. यह देखना रोचक होगा कि सीएम के इस तर्क से कांग्रेस आलाकमान कितना सहमत होता है.

CWC द्वारा नामंजूर करने के बाद भी इस्तीफे पर अड़े हैं राहुल गांधी!

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साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर चली और कांग्रेस की मनमोहन सरकार को जनता के जनादेश के आगे मजबूर होना पड़ा और सत्ता बीजेपी के हाथ चली गई. मोदी मैजिक इस बार भी इतना हावी रहेगा ये शायद किसी ने नहीं सोचा होगा. कांग्रेस तो इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं लगा पाई. इस बार कांग्रेस खासी उत्साहित थी कि 2014 का बदला वो इस चुनाव में चुकत कर लेगी और बीजेपी का शासन उखाड़ फेंकेगी.

लेकिन मोदी लहर बरकरार रही और कांग्रेस पिछले साल की एवज में महज 44 से 52 सीटों तक ही सरक पाई. पार्टी कांग्रेस का गढ़ रही अमेठी सीट भी नहीं बचा पाई. यहां से खुद राहुल गांधी चुनाव हार गए. इसके बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को बड़ा धक्का लगा और उन्होंने अपने पद से इस्तीफे की पेशकश कर डाली. राहुल की इच्छा सुनकर पार्टी में हड़कंप मच गया और इसके बाद कई प्रदेशाध्यक्ष भी इस कड़ी में जुड़ गए और अपना इस्तीफा भेज दिया. हांलाकि कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में राहुल का इस्तीफा अस्वीकार कर दिया गया. लेकिन सूत्रों की मानें तो वे अभी भी अपनी बात पर अड़े हैं.

25 मई को दिल्ली मुख्यालय में हुई कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में लोकसभा चुनाव की बड़ी हार पर मंथन हुआ. इस दौरान समिति के सदस्यों ने बारीकी से हर संभव कारण पर चर्चा की और अपने विचार रखे. इसी बैठक में राहुल गांधी की इस्तीफे की पेशकश को भले ही समिति सदस्यों ने अस्वीकार कर दिया हो लेकिन सूत्रों की मानें तो राहुल गांधी अभी भी अपने निर्णय पर अडिग है और कांग्रेस का दूसरा राष्ट्रीय अध्यक्ष ढुढ़ने की बात कर रहे हैं. सूत्र तो यहां तक बताते हैं कि राहुल साफ कह चुके हैं कि उनका उत्तराधिकारी ढुढ़ा जाए. फिर भी वरिष्ठ कांग्रेस नेता राहुल को समझाने में लगे हैं.

जानकारी के अनुसार राहुल गांधी को पद से इस्तीफे की जिद्द छोड़ने के लिए मनाने को कई कांग्रेस जुटे हैं. वरिष्ठ कांग्रेस अहमद पटेल व केसी वेणुगोपाल ने राहुल गांधी से मिलकर चर्चा की है. उन्होंने इस दौरान राहुल गांधी को मनाने की कोशिश की और अपने निर्णय पर फिर से विचार करने को कहा है. लेकिन सूत्रों के अनुसार राहुल ने उनको अनसुना कर साफ कह दिया है कि अब उनका उत्तराधिकारी तलाशा जाए. वे अपना फैसला किसी हाल में नहीं बदलने वाले हैं. ये भी चर्चा बनी हुई है कि वे नव निर्वाचित कांग्रेस सांसदों तक से नहीं मिल रहे हैं.

लोकसभा चुनाव में लगातार दूसरी बार करारी शिकस्त से राहुल गांधी खासे टूट चुके हैं. वे इस हार का कारण जो भी हो लेकिन पूरी नैतिक जिम्मेदारी खुद की मान रहे हैं. ये दूसरा मौका है जब लोकसभा में पार्टी अपोजिशन लीडर तक का पद नहीं पा सकी है. वहीं दूसरी बड़ी और शर्मनाक बात यह रही है कि वे कांग्रेस का गढ़ अमेठी तक को बचाने में नाकामयाब रहे हैं और खुद यहां चुनाव हारे हैं.

कांग्रेस सूत्र तो यहां तक कह रहे हैं कि राहुल अपने फैसले पर डटे हैं और इस खुद उनकी मां सोनिया गांधी व बहन प्रियंका गांधी भी अब उनके निर्मय पर हामी भरते दिख रहे हैं. हालांकि उनकी मां-बहन दोनों ने राहुल से निर्णय पर विचार करने और बदलने की बात कही थी लेकिन अब दूसरी बात सामने आ रही है.

राहुल गांधी को ही नया अध्यक्ष चुनने के लिए योग्य नेता तय करने तक पद पर बने रहने को कहा गया है. इसके बाद राहुल द्वारा जिस नेता पर मोहर लगाई जाएगी वो ही आगे कांग्रेस के रथ का सारथी बन पार्टी की नई दिशा तय करेंगे.

आखिर क्यों राजस्थान में कांग्रेस नहीं तोड़ पाई मोदी का तिलिस्म?

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राजस्थान में लगातार दूसरी बार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई. जिसके चलते आलाकमान बेहद नाराज है. वहीं हार के बाद लालचंद कटारिया के इस्तीफे की खबरें आ रही है तो मंत्री रमेश मीणा भी हार के कारण गिना रहे हैं. दरअसल, कांग्रेस ने टिकट वितरण से लेकर प्रचार तक ऐसी कमजोर रणनीति अपनाई कि सभी 25 सीटों पर कमल खिल गया.

कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को यह एहसास तक नहीं हुआ कि एक बार फिर वो शून्य पर सिमटने जा रहे हैं. हर कांग्रेस नेता राजस्थान परिणाम से पहले 10 से 12 सीटें मिलने का दावा कर रहा था. लेकिन उनके दावों की पोल परिणामों के दिन खुल गई. अब कांग्रेस नेता हार के कारणों को खोजने में जुटे हुए हैं.

कांग्रेस की करारी हार के ये मुख्य कारण माने जा रहे हैं –

  • झुंझुनूं, चूरु, जयपुर शहर, भीलवाड़ा, झालावाड़, राजसमंद, अजमेर, उदयपुर और चितौड़गढ से बेहद कमजोर प्रत्याशी उतारे गए.
  • गुर्जर, जाट और माली समाज के वोट कांग्रेस के पाले में नहीं आए, जबकी कांग्रेस को विधानसभा में इन कास्ट के अच्छे वोट मिले थे.
  • सीएम, डिप्टी सीएम और प्रभारी जैसे दिग्गज नेता मोदी और राष्ट्रवाद की लहर ही नहीं भांप पाए.
  • मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने हर सभा में सीधे पीएम मोदी पर निशाना साधा.
  • प्रदेश के फर्स्ट टाइमर वोटर्स को लुभाने में पार्टी असफल रही है.
  • विधानसभा चुनाव से पहले जीतने के बाद किसानों से किए गए कर्ज माफी के वादे को पूरा नहीं कर पाए.
  • पार्टी कार्यकर्ता को प्रदेश में सरकार बदलने का एहसास ही नहीं करा पाए.
  • सूबे के मुस्लिम वोटर्स का प्रतिशत 50 से 60 के बीच ही रहा.
  • गहलोत और पायलट की गुटबाजी कांग्रेस प्रत्याशियों की जीत पर भारी पड़ी.

कांग्रेस की हार के ये ऐसे बड़े कारण थे कि पार्टी प्रदेश में जीरो पर सिमट गई. अगर इन सभी कारणों का समय रहते कांग्रेस निराकरण कर लेती तो कम से कम आठ सीटें आने की संभावना बन सकती थी. वहीं मोदी लहर और राष्ट्रवाद के मुद्दे के काउंटर के लिए कांग्रेस नेताओं के पास ना तो कोई चाल थी और ना ही विजन. लिहाजा जिन मतदाताओं ने पांच माह में सत्ता दिलाई थी उन्होंने ही जमीन पर ला दिया.

अफवाहों-अटकलों पर सुरजेवाला ने कहा- CWC बैठक की पवित्रता बनाए रखे मीडिया

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लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त पर मंथन के लिए 25 मई को आयोजित हुई कांग्रेस कार्य समिति की बैठक के बाद सियासी गलियारों में कई तरह की अटकलें चल रही है. इस पर सोमवार को कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने चुप्पी तोड़ते हुए एक बयान जारी किया है और मीडिया द्वारा एक बंद कमरे में हुई कांग्रेस कार्य समिति की बैठक को पवित्रता को बनाए रखने की बात कही है. साथ ही उन्होंने कहा है कि कांग्रेस कार्य समिति एक ऐसा लोकतांत्रिक मंच है जहां विचारों के आदान-प्रदान के साथ सुधारात्मक कार्रवाई की रूपरेखा तैयार की जाती है.

कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला द्वारा जारी प्रेस रिजीज में उन्होंने साफ किया है कि लोकसभा चुनाव में पार्टी की शिकस्त के लिए सामूहिक जिम्मेदारी ली गई है और आगे की कार्रवाई पर काम करने के लिए मंथन जारी है, जिसमें मौजुदा स्थिति में पार्टी के सामने चुनौतियों पर ध्यान देना ज्यादा जरूरी है. साथ ही सुरजेवाला ने किसी भी तरह की अफवाहों पर ध्यान नहीं देने की बात कही. इसके अलावा उन्होंने यह भी संकेत दिए कि संगठन में आगामी दिनों में कोई बड़ा बदलाव देखा जा सकता है.

अपने ट्विटर हैंडल पर प्रेस रिलीज जारी करते हुए सुरजेवाला ने लिखा कि कांग्रेस कार्य समिति विचारों के आदान-प्रदान और सुधारात्मक कार्रवाई करने के लिए एक लोकतांत्रिक मंच है. कांग्रेस को उम्मीद है कि मीडिया सहित सभी लोग बंद दरवाजे की बैठक की पवित्रता का सम्मान करेंगे. वहीं उन्होंने लिखा कि मीडिया के एक वर्ग में विभिन्न अनुमानों, अटकलों, शिलालेखों, गपशप और अफवाह को अनुचित बताया गया है.

आगे कांग्रेस प्रवक्ता सुरजेवाला ने कहा कि इस हार का ठीकरा किसी एक के सिर नहीं फोड़ा जा सकता और पार्टी ने इसी को ध्यान में रखने हुए सामूहिक जिम्मादारी ली है. संगठन द्वारा आगे की कार्रवाई के लिए मंथन किया जा रहा है. पार्टी के सामने मौजुदा व भावी चुनौतियों को भी बारिकी से अध्ययन करने की ओर कदम उठाए जा रहे हैं. कांग्रेस कार्य समिति की 25 मई की बैठक का फैसला सार्वजनिक तौर पर बता दिया गया था. लेकिन फिर भी कई तरह के कयास और अफवाहों को फैलाया जा रहा है. उन्होंने मीडिया से ऐसी किसी अटकलों या अफवाहों पर नहीं नहीं देने के साथ इंतजार करने की बात कही.

बता दें कि लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पूरी जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा देने की पेशकश की थी, जिसे कांग्रेस कार्य समिति की बैठक के सदस्यों ने एक स्वर में नकार दिया. साथ ही इन सदस्यों ने संगठन के हर स्तर पर बदलाव करने के लिए राहुल गांधी को जिम्मा दिया. सूत्रों की मानें तो राहुल गांधी अभी भी अपने इस्तीफे पर अड़े हैं. सूत्र तो यहां तक कहते हैं कि बैठक में भी राहुल गांधी ने कड़े शब्दों में वरिष्ठ नेताओं पर बेटों के हितों को आगे रखने की बात भी कही. खैर, अब पार्टी के भीतर का ये सन्नाटा कोई बड़ा तूफान ला पाएगा, ये देखने वाली बात रहेगी.

‘भारत माता आज शोकमग्ना है, उसका सबसे लाड़ला राजकुमार खो गया’

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अध्यक्ष महोदय,

एक सपना था जो अधूरा रह गया. एक गीत था जो गूंगा हो गया. एक लौ थी जो अनंत में विलीन हो गई. सपना था एक ऐसे संसार का जो भय और भूख से रहित होगा. गीत था एक ऐसे महाकाव्य का, जिसमें गीता की गूंज और गुलाब की गंध थी. लौ थी एक ऐसे दीपक की जो रात भर जलता रहा. हर अंधेरे से लड़ता रहा और हमें रास्ता दिखाकर, एक प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गया.

मृत्यु ध्रुव है. शरीर नश्वर है. कल कंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ा कर आए, उसका नाश निश्चित था. लेकिन क्या यह जरूरी था कि मौत इतनी चोरी छिपे आती? जब संगी-साथी सोए पड़े थे. जब पहरेदार बेखबर थे. हमारे जीवन की एक अमूल्य निधि लुट गई. भारत माता आज शोकमग्ना है. उसका सबसे लाड़ला राजकुमार खो गया. मानवता आज खिन्नमना है. उसका पुजारी सो गया. शांति आज अशांत है. उसका रक्षक चला गया.

दलितों का सहारा छूट गया. जन-जन की आंख का तारा टूट गया. यवनिका पात हो गया. विश्व के रंगमंच का प्रमुख अभिनेता अपना अंतिम अभिनय दिखाकर अंतर्ध्यान हो गया. महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भगवान राम के संबंध में कहा है कि वे असंभवों के समन्वय थे. पंडित जी के जीवन में महाकवि के उसी कथन की एक झलक दिखाई देती है. वह शांति के पुजारी, किंतु क्रांति के अग्रदूत थे. वे अहिंसा के उपासक थे, किंतु स्वाधीनता और सम्मान की रक्षा के लिए हर हथियार से लड़ने के हिमायती थे.

वे व्यक्तिगत स्वाधीनता के समर्थक थे, किंतु आर्थिक समानता लाने के लिए प्रतिबद्ध थे. उन्होंने समझौता करने में किसी से भय नहीं खाया, किंतु किसी से भयभीत होकर समझौता नहीं किया. पाकिस्तान और चीन के प्रति उनकी नीति इसी अद्भुत सम्मिश्रण की प्रतीक थी. उसमें उदारता भी थी, दृढ़ता भी थी. यह दुर्भाग्य है कि इस उदारता को दुर्बलता समझा गया, जबकि कुछ लोगों ने उनकी दृढ़ता को हठवादिता समझा.

मुझे याद है, चीनी आक्रमण के दिनों में जब हमारे पश्चिमी मित्र इस बात का प्रयत्न कर रहे थे कि हम कश्मीर के प्रश्न पर पाकिस्तान से कोई समझौता कर लें तब एक दिन मैंने उन्हें बड़ा क्रुद्ध पाया. जब उनसे कहा गया कि कश्मीर के प्रश्न पर समझौता नहीं होगा तो हमें दो मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा तो बिगड़ गए और कहने लगे कि अगर आवश्यकता पड़ेगी तो हम दोनों मोर्चों पर लड़ेंगे. किसी दबाव में आकर वे बातचीत करने के खिलाफ थे.

महोदय, जिस स्वतंत्रता के वे सेनानी और संरक्षक थे, आज वह स्वतंत्रता संकटापन्न है. संपूर्ण शक्ति के साथ हमें उसकी रक्षा करनी होगी. जिस राष्ट्रीय एकता और अखंडता के वे उन्नायक थे, आज वह भी विपदग्रस्त है. हर मूल्य चुका कर हमें उसे कायम रखना होगा. जिस भारतीय लोकतंत्र की उन्होंने स्थापना की, उसे सफल बनाया, आज उसके भविष्य के प्रति भी आशंकाएं प्रकट की जा रही हैं. हमें अपनी एकता से, अनुशासन से, आत्म-विश्वास से इस लोकतंत्र को सफल करके दिखाना है.

नेता चला गया, अनुयायी रह गए. सूर्य अस्त हो गया, तारों की छाया में हमें अपना मार्ग ढूंढना है. यह एक महान परीक्षा का काल है. यदि हम सब अपने को समर्पित कर सकें एक ऐसे महान उद्देश्य के लिए, जिसके अंतर्गत भारत सशक्त हो, समर्थ और समृद्ध हो और स्वाभिमान के साथ विश्व शांति की चिरस्थापना में अपना योग दे सके तो हम उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करने में सफल होंगे.

संसद में उनका अभाव कभी नहीं भरेगा. शायद तीन मूर्ति को उन जैसा व्यक्ति कभी भी अपने अस्तित्व से सार्थक नहीं करेगा. वह व्यक्तित्व, वह जिंदादिली, विरोधी को भी साथ ले कर चलने की वह भावना, वह सज्जनता, वह महानता शायद निकट भविष्य में देखने को नहीं मिलेगी. मतभेद होते हुए भी उनके महान आदर्शों के प्रति, उनकी प्रामाणिकता के प्रति, उनकी देशभक्ति के प्रति, और उनके अटूट साहस के प्रति हमारे हृदय में आदर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है. इन्हीं शब्दों के साथ मैं उस महान आत्मा के प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं.

29 मई, 1964

स्मृति ईरानी ने अमेठी में राहुल गांधी को कैसे किया चारों खाने चित?

लोकसभा चुनाव में बीजेपी की बंपर जीत पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोर रही है. पार्टी ने 2014 से भी ज्यादा सीटें जीतकर इतिहास रचा है. बीजेपी के 303 उम्मीदवार चुनाव जीते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है अमेठी से स्मृति ईरानी की जीत की. उन्होंने गांधी परिवार का गढ़ मानी जाने वाली उत्तर प्रदेश की अमेठी सीट से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को पटकनी देकर सबको चौंका दिया है. स्मृति ने राहुल गांधी को 55,122 वोटों के अंतर से शिकस्त दी.

यह दूसरा मौका है जब अमेठी से गांधी परिवार के किसी सदस्य को हार झेलनी पड़ी है. इससे पहले 1977 के लोकसभा चुनाव में संजय गांधी को हार का सामना करना पड़ा था. तब जनता पार्टी के रविंद्र प्रताप सिंह ने संजय गांधी को पटकनी दी थी. हालांकि राजनीतिक विश्लेषक 1977 के चुनाव में संजय गांधी की हार को राहुल गांधी के मुकाबले अप्रत्याशित नहीं मानते, क्योंकि उस समय आपातकाल लागू करने की वजह से पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ गुस्सा था. तब लोग संजय गांधी को ही आपातकाल का सूत्रधार मानते थे.

कई लोग अमेठी से स्मृति ईरानी की जीत की तुलना 1977 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली से इंदिरा गांधी के खिलाफ राजनारायण की जीत से कर रहे हैं. अलबत्ता राजनारायण की जीत में उनकी मेहनत से ज्यादा इंदिरा गांधी के खिलाफ आपातकाल लगाने का गुस्सा था. इस लिहाज से देखें तो स्मृति ईरानी की जीत राजनारायण और रविंद्र प्रताप सिंह से बड़ी है. इस बार के चुनाव में मोदी की आंधी तो थी, लेकिन राहुल गांधी या कांग्रेस के खिलाफ गुस्से जैसी कोई बात नहीं थी.

अमेठी से स्मृति ईरानी की जीत विशुद्ध रूप से पांच साल तक सक्रियता, कड़ी मेहनत और रणनीति का नतीजा है. 2014 के लोकसभा चुनाव में हारने के बावजूद स्मृति ईरानी अमेठी से ठीक वैसे ही जुड़ी रहीं, जैसे वे ही वहां की सांसद हों. 2014 से 2019 के बीच उन्होंने करीब 60 बार अमेठी का दौरा किया जब​कि अमेठी से सांसद चुने गए राहुल गांधी इस दौरान 20 बार भी वहां नहीं गए.

केंद्र में मंत्री होने बावजूद स्मृति ईरानी ने अमेठी को पूरा समय दिया. इस दौरान उन्होंने बीजेपी के स्थानीय नेताओं और संघ के स्वयंसेवकों को साथ लेकर संगठन को मजबूत किया. खासकर कांग्रेस के दलित और पिछड़ी जातियों के वोट बैंक में सेंध लगाई. साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में स्मृति ईरानी ने जोर—शोर से प्रचार किया. उनकी मेहनत नतीजों में साफतौर पर दिखाई दी. अमेठी की पांच में चार सीटों पर बीजेपी ने फतह हासिल की.

विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने के बाद स्मृति ईरानी ने अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ ‘गुमशुदा सांसद’ का नारा दिया. वे जब भी अमेठी गईं, उन्होंने लोगों को यह समझाया कि कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के यहां से जीतने के बावजूद क्षेत्र विकास की दौड़ में पिछड़ा हुआ है. स्मृति की अगुवाई में बीजेपी अमेठी में इतना सब करती रही और इस दौरान कांग्रेस हाथ पर हाथ रखकर बैठी रही. दरअसल, कांग्रेस को यह भरोसा था कि अमेठी गांधी परिवार का गढ़ है और स्मृति ईरानी यहां कितने भी हाथ-पैर मार लें, चुनाव में जीत राहुल गांधी की ही होगी.

अमेठी से स्मृति ईरानी की जीत में उनके चुनाव प्रबंधन का बड़ा योगदान है. एक ओर कांग्रेस ने यह सोचकर चुनाव लड़ा कि यह सीट तो पार्टी का गढ़ है तो दूसरी ओर स्मृति ईरानी ने एक-एक बूथ के हिसाब से रणनीति तैयार की. सूत्रों के अनुसार उन्होंने कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए कई डमी प्रत्याशी भी खड़े किए. आपको बता दें कि अमेठी में स्मृति ईरानी और राहुल गांधी के अलावा 25 दूसरे उम्मीदवार भी मैदान में थे. इन्हें मिले वोटों का जोड़ स्मृति की जीत के अंतर के आसपास ही है.

स्मृति ईरानी की मेहनत और रणनीति के अलावा राहुल गांधी की हार में उन नेताओं की भी कम भूमिका नहीं है, जिनके भरोसे कांग्रेस आलाकमान ने अमेठी को छोड़ रखा था. इनमें सबसे बड़ा नाम चंद्रकांत दुबे का है, जो अमेठी में राहुल गांधी के अघोषित नुमाइंदे थे. कांग्रेस के स्थानीय कार्यकर्ताओं का आरोप है कि दुबे ने उनकी बात राहुल गांधी तक नहीं पहुंचाई. अपनी उपेक्षा से आहत इन कार्यकर्ताओं ने चुनाव में अनमने ढंग से काम किया. नतीजतन राहुल गांधी न सिर्फ चुनाव हारे, बल्कि उन्हें किसी भी विधानसभा सीट पर बढ़त नहीं मिली. वे वोटों की गिनती में एक बार भी स्मृति ईरानी से आगे नहीं निकले.

कारण चाहे जो भी रहे हों, फिलहाल हकीकत यह है कि गांधी परिवार का गढ़ कही जाने वाली अमेठी सीट कांग्रेस के हाथ से निकल चुकी है. गौरतलब है कि अमेठी के साथ कांग्रेस का सुनहरा अतीत जुड़ा रहा है. यह सिलसिला 1967 से शुरू हुआ था जब कांग्रेस के विद्याधर वाजपेयी ने अमेठी में पार्टी की जीत की नींव रखी थी. 1967 और 1971 के लोकसभा चुनाव में भी वाजपेयी यहां से चुनाव जीते. 1977 के चुनाव में जनता पार्टी के रविंद्र प्रताप सिंह ने संजय गांधी को हराकर इस सीट पर फ​तह हासिल की.

अमेठी की बागडोर असली रूप से गांधी परिवार के हाथ में 1980 के लोकसभा चुनाव में आई. संजय गांधी ने यहां से जीत दर्ज की, लेकिन उनकी विमान हादसे में मौत हो गई. 1981 में राजीव गांधी ने यहां से चुनाव लड़ा और 1991 तक यहां से सांसद रहे. बम धमाके में राजीव गांधी के निधन के बाद कांग्रेस ने यहां से सतीश शर्मा को मैदान में उतारा. वे 1991 से लेकर 1998 तक यहां से सांसद रहे. 1998 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के संजय सिन्हा ने सतीश शर्मा को शिकस्त दी.

1999 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी अमेठी से मैदान में उतरीं. उन्होंने बीजेपी के संजय सिन्हा को चुनाव में हराया और 2004 तक अमेठी की सांसद रहीं. 2004 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी यहां से मैदान में उतरे और लगातार तीन बार चुनाव जीते. 2019 के लोकसभा चुनाव में स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी हो हराकर अमेठी में गांधी परिवार के किले को ढहा दिया है.

इस बड़ी जीत के बाद स्मृति ईरानी का केंद्र की मोदी सरकार में कद बढ़ना तय माना जा रहा है. यह देखना रोचक होगा कि कद बढ़ने के बाद वे अमेठी पर कितना ध्यान देती हैं. यदि वे पिछले पांच साल की तरह ही यहां सक्रिय रहीं तो 2024 के लोकसभा चुनाव में भी इस सीट पर कांग्रेस के लिए वापसी करना मुश्किल हो जाएगा. वहीं अमेठी के एक बीजेपी कार्यकर्ता की हत्या के बाद जिस तरह से स्मृति वहां पहुंची और उनकी अर्थी को कंधा दिया, उसे देखकर यह कयास लगाए जा रहे हैं कि गांधी परिवार की तरह वे भी इस सीट को अपना स्थायी ठिकाना बनाना चाहती हैं.

BSP सांसद अतुल राय को SC का झटका, दुष्कर्म मामले में नहीं कोई रियायत

Floor Test in Maharashtra
Floor Test in Maharashtra

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को यूपी के घोसी से नवनियुक्त सांसद अतुल राय को दुष्कर्म व अपहरण मामले में किसी भी तरह की रियायत देने से इंकार कर दिया है. राय की ओर से कोर्ट में उनकी गिरफ्तारी से छुट देने की याचिका दायर की गई थी. जिसे प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की अवकाश पीठ ने नकार दिया है. जिसके बाद नवनियुक्त इस सांसद की परेशानी बढ़ती दिख रही है. इससे पहले भी अदालत ने राय को गिरफ्तारी में छूट देने से इनकार किया था.

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उत्तरप्रदेश की घोसी लोकसभा सीट से इस बार सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के प्रत्यासी अतुल राय ने भले ही जीत दर्ज की हो लेकिन उन पर लगा दुष्कर्म का आरोप उनकी परेशानी बढ़ा रहा है. सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने भी अतुल राय को गिरफ्तारी में किसी भी छुट से इनकार कर दिया. चीफ जस्टिस रंजन गोगोई व जस्टिस अनिरूद्ध बोस की अवकाश पीठ ने अतुल राय को राहत नहीं दी है. इससे पहले यूपी में भी न्यायालय ने राय को किसी भी तरह की रियायत देने के मना कर दिया था.

नव निर्वाचित सांसद अतुल राय की याचिका पर कोर्ट की सुनवाई के बाद उनके वकील ने जानकारी दी कि ऐसे मामलों में यूपी में अग्रिम जमानत का कोई प्रावधान नहीं है. जिसके चलते इसी 8 मई को न्यायालय राय की गिरफ्तारी से रियायत का अनुरोध करने की याचिका अस्वीकार कर चुका है.

बता दें कि वाराणसी की एक कॉलेज छात्रा द्वारा नव निर्वाचित घोसी सांसद अतुल राय पर दुष्कर्म व अपहरण करने का आरोप लगाया था. छात्रा की शिकायत के बाद इसी 1 मई को राय के खिलाफ मामला दर्ज किया गया. आरोप में छात्रा ने बताया है कि राय उसे अपनी पत्नी से मिलवाने की बात कह कर उसे घर ले आए और उसका दुष्कर्म किया. मामला दर्ज होने के बाद से ही आरोपी अतुल राय फरार है. हांलाकि इस दौरान वे घोसी से लोकसभा का चुनाव बिना प्रचार ही जीत चुके हैं.

मोदी की आंधी ने ध्वस्त किए देश की राजनीति में दशकों से जारी ​मिथक

लोकसभा चुनाव में बीजेपी की बंपर जीत ने देश की राजनीति में वर्षों से जारी कई स्थापित मान्यताओं को ध्वस्त कर दिया है. चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करने पर साफ दिखाई देता है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र अब नए दौर में प्रवेश कर चुका है. आइए जानते हैं लोकसभा चुनाव से देश की राजनीति में आए आठ बड़े बदलावों के बारे में-

जाति का जंजाल तबाह:
यूपी और बिहार में बीजेपी को घेरने के लिए विपक्षी दलों ने तमाम जातिगत समीकरणों को साधते हुए महागठबंधन का निर्माण किया. महागठबंधन के निर्माण के बाद अंदेशा था कि बीजेपी को भारी नुकसान होगा लेकिन चुनावी नतीजे इससे बहुत उलट आए. कई ऐसे क्षेत्रों में बीजेपी ने जीत हासिल की जहां गठबधन का गणित बहुत मजबूत था. यूपी की मेरठ लोकसभा सीट पर मुकाबला इस बार बसपा के हाजी याकूब और बीजेपी के राजेंद्र अग्रवाल के बीच था. यहां जातिगत समीकरण पूरी तरह से हाजी याकूब के पाले में थे. उनकी जीत मेरठ से तय मानी जा रही थी लेकिन नतीजे राजेंद्र अग्रवाल के पक्ष में आए. बीजेपी के पक्ष में आया नतीजा साबित करता है कि दलितों ने भी इस बार मायावती का साथ छोड़ मोदी के नाम पर बीजेपी को वोट दिया है.

सियासी पर्यटन के दिन खत्म:
इस बार के चुनाव में यह तथ्य मुख्य रुप से नतीजों में उभरकर आया. पहले जिस प्रकार नेता क्षेत्र में पार्टियों के टिकट लेकर आते थे और पार्टी के दम पर जीत भी जाते थे, लेकिन उसके बाद क्षेत्र की सुध लेने पांच साल में एक बार भी नहीं आते थे, ऐसे नेताओं को 2019 के लोकसभा चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा. हरियाणा की हिसार लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेसी उम्मीदवार भव्य विश्नोई को चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा. उनकी हार का प्रमुख कारण उनकी मां आदमपुर विधायक रेणुका विश्नोई और पिता कुलदीप विश्नोई का क्षेत्र से गायब रहना रहा. दूसरा उदाहरण डिंपल यादव को कन्नौज से मिली हार है. उन्होंने बीते पांच सालों में एक बार भी क्षेत्र की सुध नहीं ली. क्षेत्र के लोगों से उनका जुड़ाव न के बराबर रहा.

सिर्फ नाम से नहीं चलेगा काम:
भारतीय राजनीति में माना जाता रहा है कि दिग्गज़ उम्मीदवारों के सामने लड़ने वाला उम्मीदवार सिर्फ पार्टी की चुनावी प्रकिया को पूर्ण करने के लिए ही मैदान में होता है. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव ने इस थ्योरी को सिरे से खारिज किया है. इस बार देश के कई बड़े नेता अपेक्षाकृत छोटे प्रत्याशियों के सामने हारते हुए दिखे. मध्यप्रदेश के गुना लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेसी दिग्गज़ ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार हार का सामना करना पड़ा. उन्हें बीजेपी के नए नवेले प्रत्याशी केपी यादव ने करीब सवा लाख वोटों से मात दी.

बाहुबलियों की विदाई:
जरायम की दुनिया से निकले लोगों ने भारतीय राजनीति में अपनी जगह बनाई है लेकिन 2019 के चुनाव में जनता ने इन बाहुबली नेताओं को नकारा है. सीवान लोकसभा क्षेत्र से बाहुबली शहाबुद्दीन की पत्नी हीना साहब को जेडीयू की कविता सिंह से हार का सामना करना पड़ा. वहीं बिहार की मुंगेर लोकसभा क्षेत्र से मोकमा विधायक अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी को बिहार सरकार के मंत्री ललन सिंह से हार झेलनी पड़ी. हालांकि इन नतीजों में अपवाद भी देखने को मिले. यूपी के गाजीपुर लोकसभा क्षेत्र से बाहुबली नेता मुख्तार अंसारी के भाई अफजाल अंसारी को जीत हासिल हुई. उन्होंने मोदी सरकार के मंत्री मनोज सिन्हा को मात दी.

राजपरिवारों के दिन लदे:
इस बार के लोकसभा चुनाव में जनता ने पूर्व राजपरिवारों के सदस्यों को नकारा है. यूपी के प्रतापगढ़ लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस की प्रत्याशी राजकुमारी रत्ना सिंह को करारी हार का सामना करना पड़ा. उन्हें बीजेपी के संगमलाल गुप्ता ने मात दी. राजस्थान के अलवर लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर भंवर जितेन्द्र सिंह को बड़ी हार का सामना करना पड़ा. उन्हें बीजेपी के बाबा बालकनाथ ने करीब सवा तीन लाख वोटों से हराया है.

रसातल में राजघरानों की राजनीति:
लोकसभा चुनाव के नतीजों में राजनीतिक घरानों के राजकुमारों को भी हार का सामना करना पड़ा. अमेठी से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को अपने चुनावी करियर में पहली हार का सामना करना पड़ा. उन्हें बीजेपी की स्मृति ईरानी ने मात दी. वहीं पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण के पौत्र जयंत चौधरी को बागपत लोकसभा क्षेत्र से बीजेपी के सत्यपाल सिंह से हार का सामना करना पड़ा.

केंद्र और राज्य में अंतर साफ:
देश में आए लोकसभा चुनाव के नतीजों में जनता की प्रदेश और केंद्र को लेकर अलग-अलग राय देखने को मिली. ओडिशा में बीजेपी को लोकसभा की 8 सीटों पर जीत हासिल हुई. लेकिन विधानसभा चुनाव में कोई खास कामयाबी नहीं हासिल कर पायी. विधानसभा चुनाव में पार्टी को केवल 22 सीटें ही मिली. यानी लोगों को केंद्र और राज्य की प्राथमिकताओं के बारे में पता है. वे मुद्दों को देखकर अलग—अलग फैसला लेने लगे हैं.

विकास का बोलवाला:
बीजेपी को मिले इस ऐतिहासिक जनादेश का अवलोकन किया जाए तो इसका प्रमुख कारण मोदी सरकार द्वारा लाई गई शौचालय स्कीम और उज्जवला योजना रही जिसका बीजेपी को जबरदस्त फायदा हुआ. इन योजना के लाभार्थियों ने मोदी पर पुनः विश्वास जताया है. उडीसा में नवीन पटनायक की जीत भी इसी ओर इशारा करती है. पूरे देश में मोदी की आंधी के बावजदू पटनायक अपना किला बचाने में कामयाब हो गए. उनके कार्यकाल के हुआ विकास इसकी बड़ी वजह है. पटनायक की सॉफ्ट छवि ने भी प्रदेश में मोदी लहर को धीमा करने का काम किया.

जीत के बाद काशी पहुंचे मोदी, विश्वनाथ के दर्शन कर कार्यकर्ताओं को कहा धन्यवाद

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लोकसभा चुनाव में जीत के बाद नरेंद्र मोदी पहली बार वाराणसी पहुंचे. यहां पहुंचकर उन्होंने सबसे पहले बाबा विश्वनाथ भोलेनाथ के दर्श किए. इसके बाद एक कार्यकर्ता सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि आज की राजनीति पुराने ढर्रे पर चल रही है. देश में छूआछूत की राजनीति बढ़ती जा रही है. आज भी बीजेपी को अछूत माना जाता है. जबकि सबका साथ सबका विकास हमारा ध्येय है. हमने कमिंया हैं लेकिन इराके नेक हैं. आज रग-रग में विकास को लिए कोई दल है तो वह केवल भारतीय जनता दल है. बता दें कि काशी में यह मोदी का पहला विजयी भाषण है. इस मौके पर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी मौजूद रहे.

उन्होंने कहा कि इस बार पूरा चुनाव संगठन ने नहीं अपितु कार्यकर्ताओं ने लड़ा है. वर्क और वर्कर पार्टी की दो अहम शक्ति है. सरकार ने केवल काम किए, कार्यकर्ताओं ने विश्वास दिलाया कि अभी तो शुरूआत हुई है. इसी का नतीजा है कि यूपी में जीत की हैट्रिक लगी. सरकार केवल नीति बनाती है और संगठन रणनीति. सरकार और संगठन में तालमेल जरूरी है. इसी का परिणाम है कि सरकार केवल पिछले 5 साल में 32 हजार करोड़ से अधिक की परियोजनाएं पटल पर लाई. वहीं कार्यकर्ताओं के दम पर लगातार सत्ता में आ गई है. उन्होंने बताया कि अंकगणित को हराकर केमेस्ट्री से विजयी हुए हैं.

उन्होंने विपक्ष पर निशाना साधते हुए कहा है कि उन्होंने कहा कि 21वीं सदी के राजनीतिक पंडितों ने पार्टी पर हिंदी पार्टी का टैग चिपका दिया है लेकिन हमने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया.  बीजेपी देश की भलाई के लिए वोट बैंक पर कार्य नहीं करती है. हम दिलों में आग नहीं लगने देते. बीजेपी के रग रग में केवल लोकतंत्र है. हमने जाति देखकर किसी को घर नहीं दिए हैं. उन्होंने कहा कि जितना हमने संस्कृति को महत्व दिया है, तो 21वीं सदी की टेकनोलॉजी को भी ला रहे हैं.

उन्होंने कहा कि हमारी संस्कृति में पूजा की थाली में 1.50 रुपया डालने की प्रथा है तो उसे डिजिटल पेमेंट से ट्रांसफर करने की प्रथा पर पार्टी काम कर रही है.  हमने 11वें नंबर की अर्थव्यवस्था से सफर शुरू किया था. आज 6ठें नंबर पर हैं और 5वें नंबर के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं.

उन्होंने कहा कि हर नागरिक को भारतीय होने पर गर्व होना चाहिए. बस की सीट फाड़ने और पान की पीक थूकने वालों पर चुटकी लेते हुए उन्होंने कहा कि देश को गंदा करने वाले भी ‘भारत माता की जय’ बोलते हैं. उन्होंने देश के युवाओं से अपील की कि देश को गंदा न करें. यही सच्ची देशभक्ति है.

पीएस तमांग ‘गोले’ सिक्किम के नए CM, राज्यपाल गंगा प्रसाद ने दिलाई शपथ

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देश में लोकसभा के साथ चार राज्यों में विधानसभा चुनाव में हुए थे. जिसमें से सिक्किम राज्य भी एक है. यहां सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा ने मुख्यमंत्री पवन चामलिंग के 25 साल की सत्ता को हटाने में कामयाबी हासिल की है. पार्टी अध्यक्ष प्रेम सिंह तमांग ने सोमवार को सिक्किम के नए मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण की. तमांग को प्रदेश के राज्यपाल गंगा प्रसाद ने राजधानी गंगटोक में पद व गोयपनियता की शपथ ग्रहण करवाई. सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा के अध्यक्ष प्रेम सिंह तमांग को प्रदेश की जनता में ‘गोले’ नाम से भी जाने जाते हैं. उन्होंने नेपाली भाषा में शपथ ली थी.

गंगटोक में सोमवार को दिन सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा के लिए खास रहा. विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के बाद सत्ता में लौटी एसकेएम के अध्यक्ष प्रेम सिंह तमांग ने सिक्किम के नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की. गंगटोक के पलजोर स्टेडियंम में आयोजित कार्यक्रम में राज्यपाल गंगा प्रसाद ने उन्हें पद व गोपनियता की शपथ दिलाई. सिक्किम के नए सीएम 51 वर्षीय पीएस तमांग उर्फ गोले ने नेपाली भाषा में शपथ ली. इस अवसर पर कार्यक्रम स्थल में मौजुद पार्टी समर्थकों, नेताओं व कार्यकर्ताओं ने उनका उत्साहवर्द्धन किया.

मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण कार्यक्रम में बुलावे के बाद भी प्रदेश के पूर्व सीएम पवन कुमार चामलिंग और सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट के कोई नेता उपस्थित नहीं हुए, जो प्रदेश में चर्चा बना हुआ है. बता दें कि सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा के अध्यक्ष प्रेम सिंह तामंग ने इस बार विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा था. वे सिक्किम विधानसभा के सदस्य नहीं हैं. अब मुख्यमंत्री बनने के बाद तामंग को 6 माह की अवधि में विधानसभा का सदस्य बनना होगा. उनकी पार्टी ने प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कुल 32 विधानसभा सीटों में से 17 पर जीत हासिल कर बहुमत हासिल किया है.

उनकी पार्टी सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा ने प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कुल 32 विधानसभा सीटों में से 17 पर जीत हासिल कर बहुमत हासिल किया है. इस पार्टी का गठन साल 2013 में किया गया था. वहीं ढाई दशक से प्रदेश में राज कर रहे पवन चामलिंग की पार्टी सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट यहां सिर्फ 15 सीटों पर सिमट कर रह गई और शासन खो दिया.

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