लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद राहुल गांधी का सियासी करियर अधर में अटक गया है. पार्टी उनके नेतृत्व में साल-दर-साल चुनाव हारती जा रही हैं. पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी 207 सीटों से 44 सीटों पर आ गई थी. हाल के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को सिर्फ 52 सीटों पर जीत हासिल हुई है. बीते सालों में राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस के प्रदर्शन को देखते हुए कहा जा सकता है कि पार्टी में राहुल का भविष्य शून्य होने वाला है. हालांकि कांग्रेस दिग्गज़ चाटुकारिता के कारण उन पर अध्यक्ष पद पर बने रहने का दबाव बना रहे हैं लेकिन इससे कांग्रेस को लाभ नहीं बल्कि आने वाले दिनों में बड़ा घाटा होने वाला है.
लेकिन गांधी परिवार का कांग्रेस में ही हाल खराब है, ऐसा नहीं है. बीजेपी में मौजूद गांधी परिवार के दो सदस्यों के राजनीतिक भविष्य की संभावनाएं भी कुछ खास नहीं दिख रही है. बीजेपी के भीतर इन नेताओं को हाशिए पर ले जाने के प्रयास शुरु हो गए हैं.
इसका नमूना पहले ही टिकट वितरण के दौरान देखा जा चुका है जिसमें पार्टी आलाकमान की ओर से मेनका गांधी को सीधे तौर पर कहा गया था कि पार्टी इस बार परिवार के एक सदस्य को ही लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रत्याशी बनाएगी. इस पर मेनका ने बिफरते हुए कहा था कि मैं और मेरा पुत्र वरुण दोनों वर्तमान में सांसद हैं इसलिए पार्टी का यह फार्मूला हम पर लागू नहीं होगा.
मेनका ने पार्टी आलाकमान को कड़े लहजे में कहा था कि अगर एक टिकट दिया जाएगा तो पीलीभीत से वरुण गांधी चुनाव लड़ेगा. पार्टी सुल्तानपुर से किसी को भी चुनाव लड़ाने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र है. यूपी में बीजेपी चुनाव से पूर्व पार्टी पहले ही महागठबंधन से परेशान थी. इसके चलते आलाकमान ने फैसला किया कि अगर इस मुद्दे को ज्यादा हवा मिली तो पार्टी को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है.
यही वजह रही कि पार्टी ने सुल्तानपुर से मेनका गांधी को प्रत्याशी घोषित कर दिया. गठबंधन के गणित के हिसाब से यह चुनाव मेनका के लिए आसान नहीं होने वाला था. लेकिन मोदी मैजिक की बदौलत उन्होंने यह चुनाव करीबी अंतर से निकाल लिया. वरुण पीलीभीत से आसानी से चुनाव जीतने में कामयाब हुए.
यूपी में बीजेपी को मिली बंपर कामयाबी के बाद मेनका आश्वस्त थी कि उन्हें 2014 की तरह मोदी मंत्रिमंडल में शामिल किया जाएगा. मेनका प्रधानमंत्री कार्यालय से फोन का इंतजार ही करती रही लेकिन फोन नहीं आया. मेनका या वरुण के मोदी मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होना इस बात का साफ संकेत है कि गांधी परिवार की राजनीति बीजेपी में रसातल की ओर है. पार्टी में भीतर गांधी परिवार के धरातल पर आने के कई कारण रहे हैं.
पहला कारण यह है कि जब पूरा देश और बीजेपी मोदी-मोदी का गायन कर रहे था, उस समय वरुण गांधी राजनाथ सिंह को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की खुले मंचों पर वकालत कर रहे थे. वरुण के बयानों पर नरेंद्र मोदी और अमित शाह की पैनी नजर थी. राजनाथ सिंह ने उन्हें इस तारीफ का इनाम देते हुए पश्चिम बंगाल का प्रभारी बना दिया.
इतनी कम उम्र में उन्हें पार्टी के भीतर एक ऐसे राज्य की जिम्मेदारी दी गई जो पार्टी के लिए आगामी लोकसभा चुनावों में महत्वपूर्ण होने वाला था. लेकिन वरुण की गलत बयानबाजी ने उनका कद हमेशा पार्टी के भीतर घटाने का काम किया. ऐसा ही कुछ हुआ कोलकाता के ब्रिगेड परेड मैदान में, जहां नरेंद्र मोदी ने फरवरी, 2014 को एक विशाल जनसभा को संबोधित किया. बीजेपी की इस रैली की चर्चा हर जगह हुई.
इस सभा में शामिल हुए लोगों की भारी संख्या को लेकर कई दावे किए जाने लगे. उस वक्त वरुण ने मीडिया से बातचीत में कहा था कि आप लोग जो आंकड़ा बता रहे हैं, वो गलत है. रैली में दो लाख नहीं बल्कि 40 से 45 शामिल हुए थे. वरुण के इस बयान से बीजेपी की खूब किरकिरी हुई थी.
अगस्त, 2014 में पार्टी की कमान अमित शाह के हाथ में आई. शाह ने सर्वप्रथम वरुण से बंगाल को प्रभार छीना और मध्य प्रदेश बीजेपी के नेता कैलाश विजयवर्गीय को प्रभारी बनाया. कैलाश ने पांच साल बंगाल में जमकर मेहनत की जिसका परिणाम हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव के नतीजों में देखने को मिला. 2019 में बीजेपी ने बंगाल में 18 सीटों पर जीत हासिल की.
बंगाल में बीजेपी के शानदार प्रदर्शन के बाद कैलाश का सियासी कद बढ़ना तय माना जा रहा है. अगर वरुण बंगाल में प्रभारी के तौर पर अच्छा कार्य करते तो अमित शाह उनसे प्रभार नहींं छीनते और आज बंगाल में जीत का सेहरा कैलाश विजयवर्गीय के न बंधकर वरुण के सिर बंधता.
2017 के विधानसभा चुनाव में भी वरुण को उम्मीद थी कि इस बार पार्टी उन्हें सीएम के चेहरे के तौर पर उतारेगी इसलिए वरुण ने दावेदारी जताना शुरु कर दिया. दावेदारी जताने के दौरान वरुण के समर्थकों ने पार्टी की बैठकों में हंगामा करना शुरु कर दिया. पार्टी ने अनुशासनहीनता मानते हुए वरुण को चुनावी कमेटियों से बाहर कर दिया. वरुण को विधानसभा चुनाव में कोई जिम्मेदारी नहीं दी गई.
पार्टी के सांसद होने के बावजूद उन्हें वरिष्ठ नेताओं की रैलियों में नहीं बुलाया जाता था. वरुण को लग गया कि उनका नंबर नहीं लगने वाला है इसलिए वे पार्टी के खिलाफ खुले मंचों से बयानबाजी करने लगे. इसका असर यह हुआ कि उनका लोकसभा का टिकट भी संकट में आ गया. हालांकि पार्टी ने आंतरिक विरोध से बचने के लिए वरुण को टिकट तो दे दिया लेकिन अब उनकी हैसियत पार्टी के भीतर सांसद से ज्यादा कुछ भी नहीं है.