महाराष्ट्र: राजनीति के सियासी रंगमंच पर अप्रत्याशित पटकथा!

शिवसेना संस्थापक बाला साहेब ठाकरे जो न कर सके, वो दो दशकों बाद हुआ संभव, वजह हालांकि राजनीतिक लेकिन सुखद परिणाम की गुंजाइंश शेष, महाविकास अघाड़ी में विघटन के आसार भी प्रबल

raj and uddhav thackeary in maharashtra
raj and uddhav thackeary in maharashtra

महाराष्ट्र की राजनीति..मतलब मायानगरी की सियासत. 2019 में हुए विधानसभा चुनावों से लेकर अब तक बीते 6 सालों में महाराष्ट्र की जनता ने यहां क्या कुछ नहीं देखा. चिर विरोधी एनसीपी का बीजेपी से मिलन और फिर विघटन, तीन दिन का सीएम, कांग्रेस-शिवसेना-एनसीपी का एक मंच पर आना और असंभव सरकार बनाना, शिवसेना और एनसीपी में टूट के बीच शरद पवार का फिर एक बार खड़े होना. लेकिन इस साल एक ऐसी घटना भी हुई, जिसका दो दशकों से इंतजार था. एक ऐसा काम, जिसे शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे तक अंजाम नहीं दे पाए थे. वो है शिव सैनिक रहे राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे का फिर एक साथ आना. चाहे ये गठजोड़ राजनीति से प्रेरित हो लेकिन स्थानीय राजनीति के मायने से देखा जाए तो यह महाराष्ट्र के सियासी इतिहास की शायद सबसे बड़ी घटनाओं में से एक मानी जाएगी.

मनसे प्रमुख राज ठाकरे और शिवसेना (UBT) सुप्रीमो उद्धव ठाकरे चचेरे भाई हैं. उद्धव का संबंध फिर भी राष्ट्रीय रहा है लेकिन राज ठाकरे हमेशा प्रदेश की नहीं, बल्कि कट्टर स्थानीय राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए जाने जाते हैं. राज्य विधानसभा चुनावों में भी उन्होंने सरकार के मुद्दों को न उठाकर अपनी राजनीति को केवल मराठी लोगों तक सीमित रखा. उनका यह पैतरा अब बीएमसी चुनावों में फायदे का सौदा साबित होगा. वहीं उद्धव को कांग्रेस एवं एनसीपी में जाने का फायदा केवल 15 महीनों के लिए मुख्यमंत्री कुर्सी के रूप में मिला लेकिन इस लाभ से ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा. कट्टर शिव सैनिक रह चुके एकनाथ शिंदे ने पार्टी को तोड़ दिया. न केवल तोड़ दिया, एक तिहाई सांसद-विधायक भी साथ ले गए और शिवसेना को खत्म सा कर दिया. साथ ही सालों से बना बीजेपी से बड़े भाई का रिश्ता भी समाप्त कर दिया.

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इधर मनसे की स्थिति भी इस बार ज्यादा अच्छी नहीं रही. पिछले विधानसभा चुनावों में दो सीट हासिल करने वाली पार्टी बीते साल हुए विधानसभा चुनावों में खाता तक नहीं खोल सकी. एक बार फिर ठाकरे परिवार की परंपरा तोड़ राज ठाकरे के बेटे अमित ठाकरे ने भी सक्रिय राजनीति में कदम रखा लेकिन सफलता नहीं मिली. इससे पहले आदित्य ठाकरे परिवार के इकलौते सदस्य हैं जो सक्रिय राजनीति में सक्रिय हैं और वर्तमान विधायक भी. दोनों पार्टियों के दिन प्रति दिन घटते वर्चस्व के चलते दोनों भाईयों ने समझदारी भरा कदम उठाते हुए मंच साझा कर ही लिया. राज ठाकरे में बाला साहेब की छवि दिखती है. ऐसे में मंच पर पुराने दिन भी ताजा हो उठे.

राज ठाकरे ने मुंबई के वर्ली सभागार में ‘मराठी विजय रैली’ के दौरान दोनों भाईयों के साथ आने का क्रेडिट प्रदेश के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को दिया. उन्होंने कहा कि सीएम देवेंद्र फडणवीस ने वो कर दिखाया, जो बाला साहेब ठाकरे भी नहीं कर सके – मुझे और उद्धव को एक साथ लाना. दोनों भाईयों ने अवसर भी क्या खूब चुना और स्थानीय भी – मराठी भाषा. केंद्र की त्रिभाषी नीति के खिलाफ उन्होंने मराठी भाषा का मान सम्मान को हथियार बनाया और उसे लोगों के दिलों में भरने की कोशिश की. हालांकि राज्य सरकार ने त्रिभाषायी शिक्षा पर फिलहाल के लिए रोक लगा दी है लेकिन मनसे और उद्धव गुट ने इसे आगामी जिला परिषद और पंचायत समिति के चुनाव तक प्रमुख चुनावी मुद्दा बना लिया है.

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यहां उद्धव ने भी सरकार को आईना दिखाते हुए चेतावनी भी दे दी. उन्होंने सरकार पर हमला करते हुए कहा कि हमने अनुभव कर लिया है कि किस प्रकार हमारा इस्तेमाल कर फेंक दिया जाता है. आज हम दोनों साथ हैं. उद्धव ने यह कहकर चेता भी दिया, ‘मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने बोला है कि वह गुंडागर्दी बर्दाश्त नहीं करेंगे. तो उन्हें बता देना चाहता हूं कि अगर वह अपनी भाषा (मराठी) को लेकर गुंडागर्दी करेंगे तो फिर हम भी गुंडे हैं. हमें हिंदू और हिंदुस्तान तो चाहिए, लेकिन जबरदस्ती हिंदी थोपना बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. आपकी सात पीढ़ियां भी अगर हम पर हिंदी थोपेंगी तब भी हम ऐसा होने नहीं देंगे.’

उद्धव और राज ठाकरे का आना कट्टर शिव सेना के समर्थकों एवं मराठी जनता के लिए एक बड़ा फैसला है. यह गठजोड़ न केवल सीधे राज्य की महायुति को टक्कर दे रहा है, बल्कि केंद्र की मोदी सरकार को भी सीधे चुनौती पेश कर रहा है. खैर दोनों भाईयों का साथ आना कितना सुखद रहता है, ये तो बीएमसी चुनावों में पता चल ही जाएगा लेकिन मनसे और शिवसेना का गठबंधन महाविकास अघाड़ी में टूट का स्पष्ट संकेत दे रहा है.

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