Thursday, February 6, 2025
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देश के पहले लोकपाल बने पीसी घोष, राष्ट्रपति भवन ने जारी की अधिसूचना

जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष देश के पहले लोकपाल बन गए हैं. राष्ट्रपति भवन ने उनकी नियुक्ति की अधिसूचना जारी कर दी है. लोकपाल के साथ जस्टिस दिलीप बी. भोंसले, जस्टिस प्रदीप मोहंती, जस्टिस अभिलाषा कुमारी और जस्टिस अजय कुमार त्रिपाठी को न्यायिक सदस्य नियुक्त किया गया है. जबकि दिनेश कुमार जैन, अर्चना रमासुदर्शन, महेंद्र सिंह और डॉ. महेंद्र सिंह को गैर न्यायिक सदस्य बनाया गया है.

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन, कानूनविद मुकुल रोहतगी की चयन समिति ने सर्वसम्मति से पीसी घोष को लोकपाल नियुक्त करने की सिफारिश की थी. लोकसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे भी चयन समिति के सदस्य थे, लेकिन वे चयन प्रक्रिया में शामिल नहीं हुए. इसकी वजह बताते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे पत्र में कहा था कि लोकपाल अधिनियम-2013 की धारा चार में ‘विशेष आमंत्रित सदस्य’ के लोकपाल चयन समिति की हिस्सा होने या इसकी बैठक में शामिल होने का कोई प्रावधान नहीं है.

खड़गे ने तब कहा था कि 2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार ने लोकपाल कानून में ऐसा संशोधन करने का कोई प्रयास नहीं किया जिससे विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी का नेता चयन समिति के सदस्य के तौर पर बैठक में शामिल हो सके.

जस्टिस घोष 1997 में कलकत्ता हाईकोर्ट के जज बने और उसके बाद दिसंबर 2012 में उन्होंने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने. वे 2013 से 2017 तक सुप्रीम कोर्ट के जज रहे. सुप्रीम कोर्ट के जज रहते हुए उनकी ओर से किए गए फैसलों में तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता की सहयोगी रही शशिकला को आय से अधिक संपत्ति के मामले में दोषी करार देने का मामला भी शामिल है. वर्तमान में घोष राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य हैं.

गौरतलब है कि लोकपाल की मांग को लेकर 2012 में सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे की अगुवाई में बड़ा आंदोलन हुआ था. इसमें अन्ना के अलावा दिल्ली के मौजूदा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, उनकी सरकार के कई मंत्री व विधायक, पुदुचेरी की उप राज्यपाल किरण बेदी सहित कई जानी मानी-हस्तियों ने शिरकत की थी. 12 दिन चले इस आंदोलन के दौरान तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ पूरे देश में जबरदस्त जन प्रतिरोध देखने को मिला था.

उत्तर प्रदेश के चुनावी रण में ‘साथी’ ने उड़ाई सबकी नींद

लोकसभा चुनाव के रण में भाजपा को पटकनी देने के लिए देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में 23 साल पुरानी अदावत भुलाकर साथ आई समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने नए नारे और लोगो से चुनावी अभियान का आगाज किया है. नारे में सपा के चुनाव चिह्न साइकिल के ‘सा’ और बसपा के चुनाव चिह्न हाथी के ‘थी’ को जोड़कर ‘साथी’ बनाया है.’

साथी’ के पोस्टर में बायीं ओर समाजवादी पार्टी का झंडा और चुनाव चिह्न व अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव और राम मनोहर लोहिया का फोटो लगा है तो दूसरी ओर बहुजन समाज पार्टी का झंडा और चुनाव चिह्न व डॉ. अंबेडकर, कांशीराम और मायावती का फोटो लगा है. ‘साथी’ के नीचे पंचलाइन के तौर पर ‘महागठबंधन से महापरिवर्तन’ लिखा है.

वहीं, महागठबंधन के लोगो में समाजवादी पार्टी के चुनाव चिह्न साइकिल के पहिए और बहुजन समाजवादी पार्टी के चुनाव चिह्न हाथी की सूंड को जोड़ा गया है. इसके नीचे भी पंचलाइन के रूप में ‘महागठबंधन से महापरिवर्तन’ का प्रयोग किया गया है.

सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने नए नारे और लोगो की तारीफ करते हुए इसकी क्रिएटिविटी की तारीफ की है. उन्होंने ट्वीट के जरिये इसे बनाने वाले को बधाई दी है. बता दें कि सपा और बसपा ने लोकसभा चुनाव साथ लड़ने का फैसला किया है. अखिलेश यादव और मायावती उत्तर प्रदेश ही नहीं, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड और महाराष्ट्र में भी साथ चुनाव लड़ने का फैसला किया है.

गोवा के नए सीएम का एलान, प्रमोद सावंत को मिली कमान

प्रमोद पांडुरंग सावंत गोवा के नए मुख्यमंत्री बन गए हैं. राज्यपाल मृदुला सिन्हा ने सोमवार देर उन्हें एक सादे समारोह में पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई. उनके साथ 11 मंत्रियों ने भी शपथ ली. वहीं सहयोगी दलों महाराष्ट्रवादी गोमंतक पार्टी के सुदीन धावलीकार और गोवा फॉरवर्ड पार्टी के विजय सरदेसाई को उपमुख्यमंत्री बनाया गया है. बता दें कि पिछले एक साल से कैंसर से पीड़ित मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर का रविवार शाम को निधन हो गया था. पर्रिकर के निधन के बाद गोवा के नए मुख्यमंत्री को लेकर गहमागहमी शुरू हो गई थी.

भाजपा और सहयोगी दलों के विधायकों के बीच सहमति बनाने के लिए केंद्रीय मंत्री नितिन गड़करी गोवा पहुंचे थे. सोमवार देर रात को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी विधायकों के साथ मंथन किया. आखिरकार पर्रीकर सरकार में विधानसभा के अध्यक्ष रहे सावंत के नाम पर मुहर लगी. उन्हें पर्रिकर के निधन के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए सबसे बड़ा दावेदार माना जा रहा था. उनके अलावा राज्य के स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे का नाम भी दावेदारों में शामिल था.

उल्लेखनीय है कि गोवा विधानसभा में कुल 40 सीटें हैं, लेकिन फिलहाल कुल विधायकों की संख्या 36 है. इनमें से कांग्रेस के 14 भाजपा के 12, जीएफपी के 3, एमजीपी के 3, निर्दलीय 3 और एनसीपी के 1 विधायक हैं. भाजपा को जीएफपी, एमजीपी और निर्दलीय विधायकों का समर्थन हासिल है. यानी भाजपा के पास कुल 21 विधायक हैं जबकि सरकार बनाने के लिए 19 विधायकों का समर्थन होना जरूरी है.

हालांकि पर्रिकर के निधन के बाद कांग्रेस ने गोवा में सरकार बनाने का दावा पेश किया था. पार्टी ने राज्यपाल को पत्र लिखकर कहा है कि राज्य में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है, ऐसे में उन्हें सरकार बनाने के लिए बुलाया जाए. मगर राज्यपाल मृदुला सिन्हा ने भाजपा गठबंधन को मौका दिया.

कांग्रेस की पांचवीं सूची जारी, अब तक 137 उम्मीदवारों की घोषणा

लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस ने 56 उम्‍मीदवारों की पांचवी सूची जारी की है. इसमें आंध्रप्रदेश से 22, असम से 5, उड़ीसा से 6, तेलंगाना से 8, उत्तर प्रदेश से 3, पश्चिम बंगाल से 11 और लक्ष्यद्वीप से एक उम्मीदवार का नाम शामिल है. इन 56 नामों को मिलाकर कांग्रेस अब तक 137 उम्मीदवारों का एलान कर चुकी है.

पांचवीं सूची में किस प्रत्याशी को कहां से टिकट मिला है, देखें पूरे 56 नाम-

बिहार: जदयू में अंदरूनी कलह का कारण बने प्रशांत किशोर

राजनीतिक पार्टियों का चुनाव प्रबंधन करना और राजनीति करना दोनों अलग-अलग चीजें हैं. चुनावी रणनीतिकार और जदयू प्रमुख नीतीश कुमार के ‘ब्लू आइड ब्वाय’ प्रशांत किशोर इन दिनों ये बात बहुत गहराई से समझ रहे होंगे. प्रशांत अब तक किसी भी तरह के विवाद से अलग रहे हैं, लेकिन हाल ही में मीडिया में दिए गए अपने बयान को लेकर वह विवादों में है और जदयू नेताओं की नजरों में खटकने लगे हैं.

पिछले दिनों एक टीवी इंटरव्यू में प्रशांत किशोर ने कहा था कि 2017 में राजद से गठबंधन खत्म करने के बाद जदयू को दोबारा चुनाव लड़ने के बाद सरकार बनानी चाहिए थी. यहां बताते चलें कि 2013 में एनडीए से नाता तोड़ कर जदयू ने राजद और कांग्रेस के साथ मिल कर महागठबंधन बनाया था.

2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन ने शानदार जीत दर्ज कर सरकार बनाई और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए, लेकिन यह गठबंधन ज्यादा समय तक टिक नहीं सका. 2017 के बीच में नीतीश कुमार महागठबंधन से अलग हो गए और एनडीए के साथ मिल कर सरकार बना ली.

राजद समेत अन्य दलों ने नीतीश कुमार के इस कदम की तीखी आलोचना करते हुए इसे जनाधार की डकैती कहा था. विपक्षी पार्टियों का कहना था कि जदयू को दोबारा चुनाव कराना चाहिए थी, क्योंकि बिहार की जनता ने महागठबंधन को चुना था, एनडीए को नहीं. पिछले साल जदयू में शामिल होने वाले प्रशांत किशोर ने जब टीवी इंटरव्यू में कहा कि जदयू को दोबारा चुनाव करा कर सरकार बनानी चाहिए थी, तो उनका वह बयान विपक्षी पार्टियों की लाइन से मेल खाता था और यही बात जदयू के नेताओं को खटक रही है.

जदयू को प्रशांत किशोर की यह बात इसलिए भी अखर रही है कि यह सीधे तौर पर नीतीश कुमार के व्यक्तित्व पर सवाल उठाता है, जो अक्सर अपने भाषणों में महात्मा गांधी के बताये सात पापों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि सिद्धांत के बिना राजनीति पाप है. राजद नेता भाई वीरेंद्र ने प्रशांत किशोर की टिप्पणी पर कहा था, ‘पार्टी के उपाध्यक्ष का बयान हमारे आरोपों को पुख्ता करता है.’

बता दें कि प्रशांत किशोर ने 2014 के आम चुनाव में भाजपा का चुनावी प्रबंधन किया था. इसके बाद नाटकीय घटनाक्रम के तहत वह भाजपा से अलग हो गए और 2015 जदयू के लिए चुनावी रणनीति पर काम किया. बिहार विधानसभा चुनाव में जीत के चलते नीतीश कुमार और प्रशांत किशोर के बीच रिश्ते मजबूत हुए. नीतीश ने बिहार विकास मिशन का गठन कर प्रशांत किशोर को अहम जिम्मेवारी सौंपी और कैबिनेट मंत्री की हैसियत दे दी.

प्रशांत किशोर ने कुछ दिन काम किया, लेकिन बाद में वह इससे अलग हो गए. फिर एक दिन अचानक सियासी गलियारों में चर्चा तेज हो गई कि प्रशांत किशोर जदयू में शामिल हो रहे हैं. कुछ दिन बाद वह पार्टी में शामिल भी हो गए और नीतीश कुमार ने भी उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बना दिया.

माना जाता है कि नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर जदयू में एंट्री कराई. जदयू के कुछ नेताओं का कहना है कि नीतीश रणनीति बना कर काम करने में विश्वास करते हैं. इसमें नैतिक या अनैतिक बातें कोई मायने नहीं रखतीं. नीतीश की तरह प्रशांत किशोर भी रणनीति बनाकर काम करते हैं. दोनों को एक-दूसरे की यह खासियत रास आ गई.

वैसे देखा जाए तो प्रशांत किशोर खुद भी बिहारी मूल के हैं. उनका बचपन बिहार में ही बीता है और उन्होंने अपने कॅरिअर की शुरुआत भी बिहार से की. बाद में वह विदेश चले गए, जहां उन्होंने यूएन के लिए काम किया. प्रशांत 2011 में गुजरात सरकार के साथ जुड़े. उस वक्त नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. मोदी को प्रशांत किशोर का काम इतना भाया कि उन्होंने चुनावी रणनीति बनाने का जिम्मा उन्हें सौंप दिया.

सूत्र बताते हैं कि प्रशांत किशोर के पार्टी में शामिल होने और तुरंत उपाध्यक्ष बना दिए जाने से जदयू के कुछ नेता उनसे नाराज चल रहे हैं. असल में इन नेताओं को लग रहा है कि नीतीश जमीनी नेताओं को अहमियत न देकर ऐसे व्यक्ति को ज्यादा अहमियत दे रहे हैं, जिसने पार्टी के लिए कभी पसीना नहीं बहाया. प्रशांत किशोर के उपाध्यक्ष बनाने से कई नेता खुद को हाशिये पर महसूस कर रहे हैं.

एक बात यह भी है कि प्रशांत किशोर सीधे नीतीश कुमार को रिपोर्ट करते हैं. उन्हें जानने वाले बताते हैं कि वे जब गुजरात में काम करते थे, तब भी मोदी तक उनकी सीधी पहुंच होती थी. 2015 में जब उन्होंने नीतीश कुमार के साथ काम शुरू किया, उस वक्त उनसे वे सीधे संपर्क में रहते थे. यहां तक कि उन्होंने अपना दफ्तर भी नीतीश के आवास में ही बना लिया था.

कुल मिलाकर प्रशांत किशोर के काम करने का सलीका जदयू के कई नेताओं खटकता है. सूत्रों का कहना है कि जदयू के कई नेता किशोर से खासे नाराज हैं और चाहते हैं कि पार्टी उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दे. जदयू के वरिष्ठ नेता नीरज कुमार तो यहां तक कह चुके हैं कि वे अभी प्रवचन दे रहे हैं, लेकिन तब कहां थे जब नीतीश कुमार महागठबंधन से अलग हुए थे. उन्हें खुद यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जदयू में उनकी एंट्री भी तब हुई, जब जदयू और भाजपा ने दोबारा गठबंधन किया.

आने वाले दिनों में यह देखना रोचक होगा कि प्रशांत किशोर इस चक्रव्यूह से खुद को बाहर निकाल पाते हैं या नहीं. फिलहाल दोनों ओर से सियासी बिसात पर चालों की भरमार है. इस मुकाबले में अभी तक तो प्रशांत किशोर ही भारी पड़ रहे हैं, क्योंकि उनके सिर पर नीतीश कुमार का हाथ है.

मोदी के इस मंत्री की हालत खस्ता, सीट बदलने के लिए कर रहे भागदौड़

2014 की मोदी लहर में राजस्थान की नागौर सीट से कांग्रेस की ज्योति मिर्धा को हराकर सांसद बने सीआर चौधरी की इस बार हालत खस्ता है. चार महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में नागौर की आठ सीटों में से छह पर भाजपा उम्मीदवारों की हार को देखकर चौधरी फिर से इस सीट पर दाव खेलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे.

बता दें कि सीआर चौधरी मोदी सरकार में मंत्री हैं लेकिन इस बार वे नागौर की बजाय अजमेर सीट से चुनावी रण में उतरना चाहते हैं. इसके लिए चौधरी जयपुर से लेकर दिल्ली तक लॉबिंग कर रहे हैं. सूत्रों के अनुसार भाजपा नेतृत्व भी उन्हें अजमेर से मैदान में उतारने पर विचार कर रहा है, लेकिन पार्टी को नागौर से उनकी जगह मजबूत उम्मीदवार तलाशने में मशक्कत करनी पड़ रही है.

मारवाड़ की यह सीट जाट राजनीति का प्रमुख केंद्र मानी जाती है. यहां के समीकरणों का सीधा असर प्रदेश की राजनीति पर पड़ता है. वैसे यह सीट कांग्रेस के परम्परागत गढ़ के रुप में जानी जाती है. आजादी के बाद से यहां की राजनीति मिर्धा परिवार के इर्द-गिर्द घूमती रही. नाथूराम मिर्धा और रामनिवास मिर्धा के राजनीतिक कद ने नागौर को एक खास पहचान दिलाई.

1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी और पूरे देश में इंदिरा विरोधी लहर के चलते कांग्रेस का सफाया हो गया था उस समय भी नागौर सीट पर नाथूराम मिर्धा को जीत हासिल हुई. नाथूराम मिर्धा के बाद उनके पुत्र भानुप्रकाश मिर्धा यहां से सांसद बने. फिर उनकी पौत्री डॉ. ज्योति मिर्धा को भी जनता ने संसद में पहुंचाया. देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने नागौर की अहमियत को समझते हुए पंचायतराज की शुरुआत के लिए इस जगह को चुना.

लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में मिर्धा परिवार की लोकप्रियता मोदी लहर के बीच रेत का के किले की तरह ढह गयी. इस सीट पर ज्योति मिर्धा के सामने भाजपा ने पूर्व प्रशासनिक अधिकारी सीआर चौधरी को उम्मीदवार बनाकर उतारा. यहां चौधरी के सामने डॉ.ज्योति मिर्धा अपना राजनीतिक गढ़ बचा नहीं सकीं और कांग्रेस की यह परंपरागत सीट पहली बार भाजपा की झोली में आ गिरी.

सीआर चौधरी ने 75218 मतों से कांग्रेस प्रत्याशी को पटखनी दी जबकि 2009 के लोकसभा चुनाव में करीब 1.5 लाख वोटों के अंतर से यही सीट कांग्रेस जीती थी. हालांकि खींवसर विधायक हनुमान बेनीवाल ने इस द्विपक्षीय मुकाबले को काफी रोचक बना दिया था. 2014 के लोकसभा चुनाव में सीआर चौधरी को 414791 और ज्योति मिर्धा को 339573 वोट मिले, वहीं निर्दलीय प्रत्याशी हनुमान बेनिवाल ने 159980 मत हासिल किए.

कांग्रेस इस बार नागौर लोकसभा सीट पर जमकर जोर-आजमाइश कर रही है. पार्टी सीआर चौधरी पर पिछले 5 साल में नागौर की अनदेखी के साथ जाति विशेष के लिए काम करने का आरोप लगा रही है. इस सीट पर कांग्रेस की ओर से ज्योति मिर्धा का टिकट लगभग तय माना जा रहा है. जबकि भाजपा के मौजूदा सांसद सीआर चौधरी दूसरी जगह से टिकट की भागदौड़ कर रहे हैं. यदि पार्टी उनकी सीट बदलती है तो उसे नागौर से नया उम्मीदवार तलाशना होगा.

उत्तर प्रदेश में ‘बड़ा खेल’ करने की तैयारी में ‘छोटे दल’

देश में 17वीं लोकसभा के चुनाव की बिसात बिछ चुकी है. एक ओर राजनीतिक दल उम्मीदवारों को चयन के लिए माथापच्ची कर रहे हैं तो दूसरी ओर दलबदल का दौर तेज हो गया है. इस गहमागहमी के बीच बड़े राजनीतिक दल स्थानीय स्तर पर समीकरणों को दुरुस्त करने के लिए छोटे दलों से गठबंधन करने की कवायद में जुटे हैं.

सीटों की संख्या के लिहाज से देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में भाजपा, कांग्रेस, सपा और बसपा अलग-अलग इलाकों में असर रखने वाले छोटे दलों को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहे हैं. कई छोटे दल बड़े दलों की गोदी में बैठ चुके हैं और कई ऐसा करने के लिए सियासी मोलभाव कर रहे हैं जबकि कुछ अपने दम पर चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी कर रहे हैं.

सपा-बसपा संग रालोद

पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह का राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) ने इस बार सपा-बसपा के गठबंधन में शामिल हैं. अजीत सिंह ने मुस्लिम, जाट, गुर्जर और राजपूत गठजोड़ यानी ‘मजगर’ के बूते अपनी राजनीति को चमकाया, लेकिन राज्य में सपा और बसपा की मजबूती से मुस्लिम वोट उनसे छिटक गए. 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में लोकदल का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा. पार्टी ने विधानसभा चुनाव के दौरान राज्य में 277 उम्मीदवार उतारे थे मगर छपरौली सीट ही बच सकी. हालांकि उप चुनाव में सपा से समझौते के बाद लोकसभा में पार्टी का एक सांसद पहुंच गया.

असमंजस में पीएसपी

शिवपाल सिंह यादव के नेतृत्व वाली प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (पीएसपी) अभी लोकसभा चुनावों को लेकर अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं कर पा रही है. पार्टी सूत्रों की मानें तो उनकी बड़े राजनीतिक दलों के साथ कई छोटे दलों से भी गठबंधन को लेकर वार्ता निर्णायक स्थिति में है. जल्द ही इसकी तस्वीर साफ हो जाएगी. शिवपाल सिंह यादव की पार्टी की गठबंधन के लिए कांग्रेस के साथ पिछले कई दिनों से चर्चा चल रही है, लेकिन अभी तक बात बनी नहीं है. यादव का दावा है कि अब उनकी पार्टी 79 सीटों पर प्रत्याशी उतारेगी. केवल मैनपुरी सीट पर अपना प्रत्याशी देने के बजाए मुलायम सिंह यादव का समर्थन करेगी.

भाजपा के साथ अपना दल (एस)

अपना दल (एस) एनडीए सरकार का घटक दल है. पार्टी की संयोजक अनुप्रिया पटेल केंद्रीय मंत्री हैं. उत्तर प्रदेश सरकार में भी अपना दल (एस) के मंत्री हैं. हालांकि अनुप्रिया पिछले कुछ दिनों से भाजपा से नाराज सी थीं, लेकिन बोर्ड और निगमों में पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोनयन के बाद उनकी नाराजगी दूर हो गई है. इस बार भी अनुप्रिया पटेल की पार्टी उत्तर प्रदेश में दो सीटों पर चुनाव लड़ेगा. अनुप्रिया पटेल मिर्जापुर से चुनाव लड़ेंगी और दूसरी सीट पर दोनों दलों के नेता बैठकर चर्चा करेंगे. अपना दल (एस) को मिर्जापुर सीट देने के बाद विकल्प के रूप में प्रतापगढ़, रॉबर्ट्सगंज, फूलपुर, डुमरियागंज या प्रयागराज में से किसी एक को रखा गया है.

अपना दल को हाथ का साथ

केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल के अपना दल (एस) के भाजपा के साथ तालमेल को अंतिम रूप देने के एक दिन बाद उनकी मां कृष्णा पटेल की अगुवाई वाले अपना दल ने कांग्रेस से हाथ मिला लिया. गठबंधन के तहत कांग्रेस ने अपना दल को दो सीटें- गोंडा और बस्ती दी हैं, हालांकि अपना दल फूलपुर सीट की भी मांग कर रहा है. बता दें कि फूलपुर अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल की कर्मस्थली है. यह धड़ा दावा करता है कि उनकी पार्टी ही सोनेलाल पटेल द्वारा गठित मूल पार्टी है और उसे पटेल एवं दूसरे पिछड़े वर्गों का समर्थन हासिल है.

भाजपा से सुलह की ओर भाएसपी

सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (भाएसपी) उत्तर प्रदेश में बीजेपी का सहयोगी दल है. हालांकि सरकार में शामिल होने के बाद भी भाएसपी अध्यक्ष लगातार सरकार की कार्य प्रणाली पर प्रश्न चिह्न लगाते रहे हैं. पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अरुण राजभर का कहना है कि उनकी पार्टी के बीजेपी से मतभेद खत्म हो गए हैं. लोकसभा चुनाव के लिए उन्होंने पांच सीटें मांगी हैं. हालांकि अभी सीटों का बंटवारा तय नहीं हुआ है.

अपने बूते मैदान में जनसत्ता दल

जनसत्ता दल (लोकतांत्रिक) बनाने वाले रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं. राजा भैया ने कौशांबी से शैलेंद्र कुमार को प्रत्याशी बनाया है. शैलेंद्र कुमार तीन बार सांसद और तीन बार विधायक रह चुके हैं. वहीं, प्रतापगढ़ से पूर्व सांसद और वर्तमान एमएलसी अक्षय प्रताप सिंह मैदान में हैं. राजा भैया फतेहपुर, हमीरपुर, गाजियाबाद समेत बीस सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं.

भाजपा के भरोसे आरपीआई

रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (ए) भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार का घटक दल है. इसका आधार महाराष्ट्र में है, लेकिन अब इसने उत्तर प्रदेश में भी अपनी जमीन तलाशनी शुरू कर दी है. इसी के मद्देनजर पार्टी ने यहां संगठन को विस्तार भी दिया है. लखनऊ दौरे पर आए आरपीआई के अध्यक्ष रामदास अठावले ने कहा था कि उन्होंने भाजपा से उत्तर प्रदेश में सीटें मांगी हैं. भाजपा सीटें नहीं देती है तो भी उनकी पार्टी उन सीटों पर चुनाव लड़ेंगे, जहां प्रभाव है.

और भी हैं कतार में…

प्रदेश के अन्य छोटे दल भी किसी न किसी के साथ चुनावी गठजोड़ की कवायद में जुटे हैं. पीस पार्टी ने तीन अन्य दलों राष्ट्रीय क्रांति पार्टी, वंचित समाज पार्टी और जयहिंद पार्टी के साथ नैशनल प्रोग्रेसिव अलाइंस का गठन किया है. महान दल कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुका है. साथ ही आम आदमी पार्टी, प्रगतिशील मानव समाज पार्टी (पीएमएसपी) और इत्तेहाद-ए-मिल्लत कौंसिल (आइइएमसी), ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) जैसे दल भी गठबंधन की कोशिश में जुटे हैं.

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